उत्तराखंड: अलग राज्य बनने के बाद भी राजनीतिक अस्थिरता ने नहीं बढ़ने दी विकास की गाड़ी

उत्तराखंड में नारायण दत्त तिवारी एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री रहे जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया. इसके अलावा इस पहाड़ी राज्य में बीजेपी या कांग्रेस के किसी भी नेता ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया है. 

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दिलीप सिंह राठौड़

  • देहरादून,
  • 13 जनवरी 2022,
  • अपडेटेड 12:31 AM IST
  • उत्तराखंड की राजनीतिक अस्थिरता ने नहीं होने दिया राज्य का विकास
  • 22 साल बाद भी पहाड़ी राज्य का नहीं हुआ विकास

उत्तर प्रदेश से अलग होकर बने उत्तराखंड को पहाड़ी प्रदेश के तौर पर जाना जाता है. चारधाम और पर्यटन व्यवसाय ही उत्तराखंड के मुख्य आमदनी का स्रोत है. माना जाता है कि देवभूमि के लोग बेहद ही सरल स्वभाव के होते हैं, इसलिए राजनीतिक पार्टियां लगातार देवभूमि की जन भवनाओं से खिलवाड़ करती हैं.

उत्तराखंड के राजनीतिक हालात राज्य बनने के बाद से ही इस ओर इशारा करते हैं, क्योंकि प्रदेश बनने के बाद से ही राजनीतिक उठापटक यहां आज तक प्रचंड बहुमत की सरकार होने के बाद भी जारी है. यही वजह है कि प्रदेश की जनता अपने को आज भी ठगा हुआ महसूस करती है.

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यूपी से अलग राज्य की मांग इसलिए की गई थी, ताकि इस पहाड़ी क्षेत्र का जो विकास नहीं हो पाया है उसे संभव बनाया जा सके. 09 नवंबर 2000 को तत्कालीन अटल सरकार ने उत्तराखंड को अलग पहाड़ी राज्य की सौगात दी थी, पर पहाड़ की विकास की आशा आज भी पहाड़ जैसी है. राजनीतिक दल लगातार प्रदेश की भोली भाली जनता से खिलवाड़ करती रहती है और आज भी पहाड़ की जनता की आशाएं राजनीतिक अस्थिरता की भेंट चढ़ती नजर आती है.

राज्य बनने से अब तक ऐसे रहे राजनीतिक हालात

2000 में राज्य गठन के बाद अंतरिम सरकार का गठन किया गया पर दो साल के अंदर ही अंतरिम सरकार में बीजेपी ने प्रदेश को दो मुख्यमंत्री दे दिए. नित्यानन्द स्वामी प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने, लेकिन तब राजनाथ सिंह और निशंक के विरोध के चलते चुनाव से कुछ समय पूर्व भगत सिंह कोश्यारी को सत्ता सौंप दी गई.

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2002 में उत्तराखंड विधानसभा का पहला चुनाव हुआ, जिसमें कांग्रेस ने बाजी मारी और नारायण दत्त तिवारी प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता पर काबिज हुए.

हालांकि जब वो मुख्यमंत्री थे, तब हरीश रावत लगातार उनकी सरकार को असहज करते रहे. उस समय में हरीश रावत और नारायण दत्त तिवारी के बीच की खाई साफ दिखाई देती थी. कई मौके ऐसे भी आए, जब लगा तिवारी की विदाई हो सकती है फिर भी तिवारी सरकार 2007 तक अपना कार्यकाल पूरा करने में सफल रही.

उसके बाद प्रदेश में फिर बीजेपी की सत्ता में वापसी हुई और खंडूरी को प्रदेश की कमान सौपीं गई, लेकिन ढाई साल में ही खींचतान के चलते प्रदेश में खंडूरी को हटाकर निशंक को जिम्मेदारी दे दी गई.

चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक हालात फिर बदले और खंडूरी को फिर से सत्ता के सिंहासन की चाबी सौंप दी गई. हालांकि अगले चुनाव में 'खंडूरी हैं जरूरी' के स्लोगन पर चुनाव लड़ने वाली बीजेपी चुनाव हार गई. खंडूरी कोटद्वार से खुद भी चुनाव हार गए. कांग्रेस चुनाव जीत कर फिर से सत्ता में वापस आ गई.

2012 में फिर से कांग्रेस के विजय बहुगुणा ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली, जिसके बाद कांग्रेस में भी दो गुट बन गए. हरीश रावत का गुट लगातार विजय बहुगुणा सरकार की मुसीबतें बढ़ाता रहा. समय का चक्र घूमा और केदारनाथ में भीषण तबाही आई, जिसके बाद राहत कार्यों में ढिलाई के चलते कांग्रेस को भी बदलाव को मजबूर होना पड़ा. इसके बाद हरीश रावत को उत्तराखंड सरकार की कमान सौंपी गई.

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हालांकि विधायकों की नाराजगी के चलते कांग्रेस के 9 दिग्गज मंत्री और विधायक हरीश रावत की सरकार गिराकर बीजेपी में शामिल हो गए और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया गया.

इस फैसले के खिलाफ हरीश रावत कोर्ट की शरण में गए, जहां से उनको बहुमत साबित करने का मौका दिया गया. बागियों की सदस्यता रद्द होने के कारण हरीश रावत बहुमत साबित करने में सफल रहे, लेकिन 2017 में कांग्रेस प्रदेश में बुरी तरह हार गई. खुद मुख्यमंत्री हरीश रावत दो सीट से चुनाव हार गए और कांग्रेस 11 सीट पर सिमट कर रह गई.  बीजेपी 57 सीट के प्रचंड बहुमत से सत्ता पर आसीन हुई और त्रिवेंद्र रावत मुख्यमंत्री बनाए गए.

त्रिवेंद्र रावत पूरे चार साल मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाले रहे, लेकिन अचानक उनको सत्र के बीच से बुलाकर पार्टी ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिलवा दिया और पौड़ी से सांसद तीरथ सिंह को मुख्यमंत्री की कमान दी गई, लेकिन अपने विवादित बयानों के चलते तीरथ की भी तीन महीने में ही विदाई हो गई और उसके बाद बीजेपी ने सबको हैरान करते हुए युवा नेता पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बना दिया. अब उन्हीं के नेतृत्व में बीजेपी चुनाव में उतर रही है.

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