पांचवें चरण की सियासी भागदौड़ के बाद अब पूर्वांचल चुनाव का केंद्र बन गया है. उत्तर प्रदेश में एक कहावत है कि जिसने पूर्वांचल को फतह किया वो लखनऊ की सत्ता पर बैठता है. पूर्वांचल की 28 जिलों में 170 विधानसभा सीटें हैं जो सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए मायने रखती हैं.
हम यहां उन तीन फैक्टरों की चर्चा कर रहे हैं जिसके सहारे सपा-कांग्रस गठबंधन पूर्वांचल की सत्ता पर काबिज होना चाहेगा.
1. यूपी की विकास गाथा
यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने हर जनसभा में, हर रैली में विकास की बात करते हैं. वो कहते रहे हैं कि राज्य में उन्होंने जो विकास कार्य करवाए हैं, चुनाव उसपर लड़ा जाना चाहिए हालकि ऐसा होता हुआ नहीं दिख रहा है.
बीजेपी पूर्वांचल में चुनाव से पहले श्मशान, कब्रिस्तान और हिंदू बिजली, मुस्लिम बिजली का राग अलाप चुकी है.
अखिलेश और राहुल गांधी इस मुद्दे से बचते हुए आगे बढ़ना चाहेंगे और अपनी रैलियों में अगर वो पूर्वांचल की जनता को विकास के मुद्दे के इर्दगिर्द मुद्दे रख पाए तो सपा-कांग्रेस के लिए बेहतर होगा.
2. पिछली जीत को बरकरार रखते हुए, बढ़त की चाहत
इस बार पूर्वांचल में सपा के लिए दोहरी चुनौती है. पहली चुनौती यह कि उसे 2012 के विधानसभा चुनाव में जीते गए अपने 106 सीटों पर कब्जा बरकरार रखना है और दूसरी चुनौती यह कि 2012 विधानसभा चुनाव में दूसरे पायदान पर रही बसपा को कमजोर करना.
2012 के चुनाव में विधानसभा चुनाव में बसपा को 23 सीटों पर सफलता मिली थी. बीजेपी को 17 सीटें मिली थीं. कांग्रेस ने 13 सीटों पर कब्जा किया था और 11 सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे.
इस चुनाव में सपा-कांग्रेस साथ है. अगर ये दोनों पार्टियां अपने पिछले जीत को भी बरकरार रख लेती हैं तो इनके लिए यह एक बड़ी कामयाबी होगी. लेकिन यह तो कहा ही जाएगा कि अखिलेश यादव पूर्वांचल में अपना कद नहीं बढ़ा पाए.
3. मोदी फैक्टर
सपा-कांग्रेस की कोशिश होगी कि वो बीजेपी को इस इलाके में रोक पाएं और इसके लिए उन्हें ’मोदी फैक्टर’ को कमज़ोर करना होगा. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी पूर्वांचल में लगभग एकतरफा जीत हासिल कर चुकी है.
पार्टी चाहेगी कि लोकसभा चुनाव जैसी ही जीत इस विधानसभा में उन्हें मिले और इसके लिए जरूरी है कि पूर्वांचल के मतदाताओं में मोदी फैक्टर मजबूती से काम करे.
सपा-कांग्रेस गठबंधन को बीजेपी की इस रणनीति का काट खोजना पड़ेगा.
विकास कुमार