बिहार में जातीय संघर्ष और उसके परिणीत नरसंहार का इतिहास वर्षों पुराना है. भले ही वर्ष 2007 के बाद नरसंहार की कोई घटना यहां नहीं घटी लेकिन इसके पहले करीब 25-30 सालों के दौरान कई सामूहिक कत्लेआम की घटनाओं ने देश और दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था. नरसंहार की उन घटनाओं की तपिश अब भी चुनाव के दौरान महसूस होती है. अक्सर ही नरसंहार प्रभावित जिलों में इसे मुद्दे के रूप उठाया जाता है. आइए अतीत के पन्नों को पलट कर देखते हैं कि कब-कब जातीय संघर्ष ने बिहार में कत्लेआम कराया था.
करीब 25 वर्षों तक चला जंगलराज: बिहार में जातीय हिंसा की शुरूआत 1976 में भोजपुर जिले के अकोड़ी गांव में हुई हिंसा के तौर पर मानी जाती है. ये वह दौर था जब बिहार में जमींदारी प्रथा तथा भूमिधरों और भूमिहीनों के बीच का ये संघर्ष बाद में अगड़ी, पिछड़ी और दलितों के बीच की वर्चस्व की लड़ाई में तब्दील हो गया. जिसके परिणाम स्वरूप में 2000 के अंत तक बिहार में कई ऐसी हिंसक घटनाएं हुईं जिसमें मरने वालों की संख्या के लिहाज से उसे नरसंहार का नाम दिया गया.
बेलछी नरसंहार: बिहार के नरसंहार की घटनाओं में सबसे पहले चर्चित घटना बनी साल 1977 में बेलछी में हुई घटना. पटना के पास बेलछी गांव में 14 दलितों की हत्या कर दी थी. इस घटना को ज्यादा कवरेज तब मिला जब पीड़ित परिवारों से मिलने इसी वर्ष सत्ता से बेदखल हुईं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पहुंची. इंदिरा गांधी बाढ़ से प्रभावित इस गांव में हाथी पर बैठकर पहुंची थीं. कठिन परिस्थितियों में इंदिरा गांधी के वहां पहुंचने की घटना ने उस हिंसक संघर्ष की कहानी को दुनिया भर में चर्चा में ला दिया.
दंवार बिहटा एवं पिपरा/देलेलचक-भगौरा: भोजपुर जिले के दंवार बिहटा गांव में अगड़ी जाति के लोगों ने 22 दलितों की निर्ममता के साथ हत्या कर दी थी. ये घटना 1978 की थी. इसके बाद 1980 में पटना के पिपरा गांव में पिछड़ी जाति के दबंगों ने 14 दलितों की सामूहिक हत्या कर दी थी. औरंगाबाद जिले के देलेलचक भगौरा गांव में 1987 की ये घटना उस वक्त के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक थी. इस घटना में पिछड़ी जाति के दबंगों ने कमजोर तबके के 52 लोगों को एक साथ मौत के घाट उतार दिया था. इस जतीय नरसंहार के बाद जातीय संघर्ष तथा एक दूसरे के प्रति नफरत का भाव और बढ़ गया.
नोही नागवान/तिस्खोरा व देवसहियारा: साल 1989 में जहानाबाद के नोही नागवान गांव में 1989 में हुई 18 लोगों की हत्या ने भी बिहार को हिला दिया था. इस घटना में पिछड़ी जाति और दलित वर्ग के लोगों को निशाना बनाया गया था. अगड़ी जाति के दबंगों पर इस घटना को अंजाम देने का आरोप लगा. वर्ष 1991 में सामूहिक हत्या की दो बड़ी घटनाएं हुईं. इसमें पटना के तिस्खोरा गांव में तथा इसके बाद भोजपुर जिले के देवसहियारा गांव में 15-15 दलितों की हत्या हुईं.
बारा गांव/बथानी टोला: गया जिले के बारा गांव में माओवादियों ने 12 फरवरी 1992 को भूमिहार जाति के 35 लोगों को उनके घरों से अगवा किया. इसके साथ वे सभी लोगों को एक नहर के किनारे ले गए और रस्सी से उनके हाथ पैर बांधकर बारी-बारी सभी का गला रेत उनकी हत्या कर दी थी. बिहार का भोजपुर एरिया मानो जातीय संघर्ष का केंद्र बनता जा रहा था. वर्ष 1996 में भोजपुर के बथानी टोला गांव में दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जाति के 22 लोगों की हत्या कर दी गई थी. माना जाता है कि बारा नरसंहार के प्रतिशोध स्वरूप इस घटना को अंजाम दिया गया था.
लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार: एक दिसंबर 1997 की रात को जहानाबाद जिले के लक्ष्मणपुर बाथे गांव में बिहार के सबसे बड़े नरसंहार को अंजाम दिया गया. यहां घरों में सो रहे 61 लोगों को बेरहमी से मारा गया जिसमें बड़ी संख्या बच्चे और गर्भवती महिलाएं भी थीं. इस घटना के पीछे रणबीर सेना का हाथ होने का आरोप लगा था. इस घटना ने हर किसी को झकझोर दिया था क्योंकि मारे जाने वालों में एक साल तक के बच्चे भी थे.
सेनारी हत्याकांड: साल 1999 में बिहार में जातीय हिंसा की कई घटनाएं घटीं. सबसे बड़ी घटना जहानाबाद के सेनारी गांव में घटी जहां अगली जाति के 35 लोगों की सामूहिक हत्या की गई. माना जाता है सेनारी की घटना वर्ष 1999 में ही जहानाबाद जिले में शंकरबीघा तथा नारायणपुर गांव में हुई सामूहिक हत्या का बदला था. शंकरबीघा गांव में 23 तथा नारायणपुर गांव में 11 दलितों की हत्या की गई थी.
मियांपुर नरसंहारः औरंगाबाद जिले के मियांपुर गांव में 16 जून 2000 को 35 दलितों की सामूहिक हत्या ने एक बार फिर पूरे बिहार का झकझोर दिया. इसे जातीय संघर्ष की आखिरी बड़ी घटना माना जाता था क्योंकि मियांपुर नरसंहार की घटना के बाद कई सालों तक बिहार में कोई बड़ी घटना नहीं हुई. लेकिन 2007 में हुई एक और घटना ने साबित कर दिया कि बिहार में जातीय संघर्ष थमा है, खत्म नहीं हुआ.
अलौली नरसंहारः खगड़िया जिले में 01अक्टूबर 2007 को धानुक जाति के करीब एक दर्जन लोगों की सामूहिक हत्या कर दी गई थी. नीतीश कुमार के मुख्यमंत्रित्व काल में ये पहली जातीय नरसंहार की घटना थी. हालांकि इसके बाद बिहार में कोई और घटना घटित नहीं हुई.