'गीता में लिखा है कि शरीर मरता है, आत्माएं हमेशा ज़िंदा रहती हैं लेकिन आजकल इसका उल्टा हो रहा है आत्माएं मर रही हैं जिसके चलते संवेदनाएं भी शून्य होती जा रही हैं. अगर आत्माएं ना मर रही होतीं तो डॉक्टर्स पर कोई जल्दी उंगली नहीं उठाता. पहले ऐसा नहीं होता था लोग डॉक्टर को भगवान मानते थे.'
मैक्स हेल्थकेअर के डॉक्टर दुर्गतोष पांडे से मिलकर घर लौट रहा था तो उनकी कही ये लाइनें बराबर में मन में गूंजती रहीं. मैं कार में आगे की सीट पर बैठा था. छोटा भाई अजय गाड़ी चला रहा था. पीछे की सीट पर कई तकियों का सहारा लेकर लेटी हुई मेरी मां थीं और उन्हें संभाले हुए मेरे पिता. आज मां के टांके हटा दिए गए थे और उन्होंने 15 दिन में पहली बार मुंह के जरिए चाय पी क्योंकि इससे पहले पानी की एक बूंद भी पाइप के ज़रिए उनके शरीर में जाती थी.
पिछले 6 महीने में शायद ये पहला कोई ऐसा दिन था जब हम लोग खुश थे, बहुत खुश. हम आपस में एक दूसरे को बस देखते और खिड़की के शीशे से बाहर देखने लगते ताकि कोई किसी के आंसू ना पढ़ ले. एक बात हम तीनों के मन में साफ थी कि डॉक्टर दुर्गतोष पांडे जैसे डॉक्टर अब भी होते हैं जिनके लिए डॉक्टर होना सिर्फ पेशा नहीं एक जिम्मेदारी भी है.
पिता की इच्छा को पूरा किया
डॉक्टर दुर्गतोष के पिता धनबाद, झारखंड में कोल इंडिया में काम करते थे और ये उनकी इच्छा थी कि उनका बेटा डॉक्टर बने. पिता की इच्छा को उद्देश्य मानते हुए दुर्गतोष ने भी तय कर लिया कि वो डॉक्टर ही बनेंगे. दसवीं की पढ़ाई देवघर के रामकृष्ण विद्यापीठ से की तो जीवन पर आध्यात्म का प्रभाव पड़ने लगा. डॉक्टर दुर्गतोष का मानना है कि देवघर के इस स्कूल से पढ़ने का सबसे बड़ा असर ये हुआ कि उन्होंने अपने पेशे के साथ हमेशा ईमानदारी बरती.
मौलाना आजाद कॉलेज दिल्ली से एमबीबीएस की डिग्री ली और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कंसल्टेंट डॉक्टर काम करने लगे. सब कुछ ठीक था तभी एक दिन पता चला कि उनके पिता को कैंसर है. डॉक्टर दुर्गतोष खुद कैंसर के डॉक्टर थे दो बार ऑपरेशन करना पड़ा लेकिन पिता को बचाया नहीं जा सका.
कैंसर से पिता की मृत्यु के बाद डॉक्टर दुर्गतोष ने इस बीमारी के खिलाफ ही लड़ने का फैसला कर लिया. जिसकी झलक मैंने तब देखी जब मैं अपनी मां को लेकर उनसे ओपीडी में मिला करता था. वो बड़े ही सहज तरीके से मरीज के रिश्तेदारों से मिलते हैं. मरीज को ये आभास कराते हैं कि कैंसर से लड़ा जा सकता है और हम लड़ेंगे.
पुरुषों में सबसे ज्यादा फेफड़ों का कैंसर
डॉक्टर दुर्गतोष ने बताया कि इस वक्त कैंसर से होने वाली मौतों में 90 फीसदी पुरुष फेफड़ों में कैंसर की वजह से मर रहे हैं जिसके लिए कहीं न कहीं कुछ डॉक्टर्स का रवैय्या भी ज़िम्मेदार है. उनके मुताबिक जब भी कोई स्पॉट किसी के फेफड़ों में देखता है ज्यादातर डॉक्टर्स उसे टीवी मानकर उसका इलाज शुरू कर देते हैं. और जब तक पता चलता है कि वो टीवी नहीं कैंसर है तब तक देर हो चुकी होती है. जबकि ऐसी किसी भी स्थिति में बिना बायोप्सी या थूक की जांच के किसी भी नतीजे पर पहुंचना घातक होता है. लिहाजा कैंसर को लेकर बड़ी सजगता की जरूरत है.
उन्होंने ये भी कहा कि लंग कैंसर को लेकर भ्रम भी बहुत है कि इसका इलाज लगभग नामुमकिन है , जबकि ऐसा नहीं है. अगर सतर्कता बरती जाए तो इस कैंसर से भी लड़ा जा सकता है.
जीजान से जुटे हैं अपने मिशन पर
43 साल के हो चुके डॉक्टर दुर्गतोष पांडे के बारे में कहा जाता है कि जरूरत पड़ने पर वो घर नहीं जाते, अपने केबिन को ही घर बना लेते हैं और अपने उस कर्तव्य को पूरा करने में लगे रहते हैं जिसके बारे में उन्होंने तब संकल्प लिया था जब वो देवघर के रामकृष्ण मिशन स्कूल में पढ़ते थे या तब, जब कैंसर से अपने पिता को मरते देखा था.
मरीज के चेहरे की मुस्कुराहट के अलावा उन्हें सबसे ज़्यादा सुकून कव्वाली सुनकर मिलकर मिलता है. अक्सर निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जा कर शांत बैठते हैं और कव्वाली सुनते हैं. वारसी ब्रदर्स उनके दिल को छूते हैं. बाकी खाली वक्त में किताबें पढ़ते हैं और अपने अनुभवों से कुछ किताबें लिख भी रहे हैं.
मुझे इंतजार है उनकी किताब का. उस डॉक्टर की किताब का जिसका मकसद ज़िंदगियों में रोशनी भरना है. ये सब सोचते-सोचते मेरा घर भी आ गया. मैंने मां को सहारा देकर उतारा और अपने पैरों पर चलकर घर के अंदर जाते हुए देखा.
अंदर पैर रखते हुए उन्होंने पलट कर कहा कि बेटा तुम्हारा डॉक्टर अच्छा है और मैं महसूस कर रहा था डॉक्टर दुर्गतोष की कही हुई बातें -
'ऑपरेशन थिएटर की तरफ कदम बढ़ाते वक्त मेरे मन में वो सारे चेहरे एक एक करके घूमते हैं जो पिछले कुछ दिनों से मेरे अंदर भगवान तलाश कर रहे होते हैं. उन्हें हमेशा लगता है कि मेडिकल सपोर्ट पर अचेत अवस्था में पड़े उनके रिश्तेदार में सिर्फ मैं प्राण फूंक सकता हूं क्योंकि मैं भगवान का ही रूप हूं. उनका वो विश्वास ही पूरे ऑपरेशन के दौरान मुझे शक्ति देता है और मैं वाकई ईश्वर को धन्यवाद देता हूं कि उसने मुझे अपनी सर्वोत्तम कृति यानी मानव की सेवा का अवसर दिया.'
मेधा चावला