हर दिन लाखों भारतीय छात्र सिर्फ पढ़ाई ही नहीं, बल्कि माता-पिता की उम्मीदों, पैसों की चिंता और दोस्तों से तुलना के बोझ के साथ जी रहे हैं. ज्यादातर छात्र बताते हैं कि परीक्षा और अच्छे नंबर लाना ही सबसे बड़ा तनाव है. बोर्ड एग्जाम और प्रतियोगी परीक्षाएं उन्हें लगता है जैसे बिना अंत वाली दौड़ हो. कई बच्चों को लगता है कि उनकी कीमत सिर्फ अंकों और रैंक से तय होती है. इससे डर और असफलता का डर और भी बढ़ जाता है.
IC3 Student Suicide Report 2025 रिपोर्ट
आईसी3 स्टूडेंट सुसाइड रिपोर्ट 2025 के अनुसार, छात्रों में तनाव के प्रमुख कारण शैक्षणिक दबाव, माता-पिता की अपेक्षाएं, आर्थिक चिंताएं और साथियों से प्रतिस्पर्धा हैं. ये सब मिलकर एक ऐसी पीढ़ी की गंभीर तस्वीर पेश करते हैं जो घेरे में है. रिपोर्ट में आधे से ज्यादा छात्रों ने परीक्षा और प्रदर्शन की चिंता को अपने तनाव का सबसे बड़ा कारण बताया. बोर्ड परीक्षाओं, प्रतियोगी प्रवेश परीक्षाओं और शीर्ष कॉलेजों के प्रति जुनून के कारण, छात्रों को लगता है कि वे बिना किसी अंतिम लक्ष्य के मैराथन दौड़ रहे हैं.
बच्चों में बढ़ रहा असफलता का डर
हर परीक्षा ऐसे लगती है जैसे कोर्ट का फैसला हो. अगर टॉप नहीं किया तो लगता है मैंने परिवार को निराश कर दिया. कई बच्चों को लगता है कि उनका मूल्यांकन सिर्फ अंकों और रैंक से किया जाता है. मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इससे बच्चों में असफलता का डर और परफेक्शन की बीमारी बढ़ती है.
यूरोपीय छात्रों में नौकरी की चिंता
बहुत से छात्र मानते हैं कि महंगी कोचिंग, स्कूल और विदेश पढ़ाई परिवार पर भारी बोझ है. मिडिल क्लास परिवारों में यह तनाव सबसे ज़्यादा महसूस होता है.
यूरोप जैसे देशों में, जहां पढ़ाई लगभग मुफ़्त है, छात्रों को ये चिंता कम होती है. सिंगापुर और दक्षिण कोरिया में भी भारत की तरह ही शैक्षणिक तनाव हावी है - लेकिन इन देशों में स्कूल-आधारित परामर्श नेटवर्क अधिक मजबूत हैं. इसके विपरीत, यूरोपीय छात्रों ने बताया कि उनमें शैक्षणिक तनाव कम है, लेकिन अनिश्चित अर्थव्यवस्थाओं में नौकरी की संभावनाओं को लेकर चिंता अधिक है.
दोस्तों से तुलना से बढ़ता दबाव
क्लास में नंबर और रैंक की तुलना से दोस्त भी प्रतियोगी बन जाते हैं. सोशल मीडिया इसे और बढ़ाता है, क्योंकि वहां सब अपनी “परफ़ेक्ट लाइफ़” दिखाते हैं.
अमेरिका में भी छात्रों को पढ़ाई, दोस्तों के रिश्ते और भविष्य की चिंता से तनाव होता है. सिंगापुर और दक्षिण कोरिया में भी भारत जैसा ही दबाव है, लेकिन वहां स्कूलों में काउंसलिंग सिस्टम मजबूत है. यूरोप में पढ़ाई का तनाव कम है, लेकिन वहां नौकरी की चिंता ज्यादा है.
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
डॉ. अंजलि मेहरा कहती हैं- हमारे बच्चे सिर्फ किताबें नहीं पढ़ रहे, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था का बोझ भी उठा रहे हैं जहां अंकों को मानसिक स्वास्थ्य से ज्यादा महत्व दिया जाता है. स्कूलों में मेंटल हेल्थ की पढ़ाई हो. शिक्षकों को बच्चों के तनाव को पहचानने की ट्रेनिंग मिले. माता-पिता सिर्फ नतीजों की नहीं, बल्कि बच्चों के प्रयासों की भी तारीफ करें. शिक्षकों को यह सिखाया जाए कि वे बच्चों में थकान या तनाव के शुरुआती लक्षण पहचान सकें.
माता-पिता को चाहिए कि वे सिर्फ अंकों पर नहीं, बल्कि बच्चों की मेहनत की भी तारीफ करें. रिपोर्ट कहती है कि छात्रों के लिए तनाव कोई कभी-कभार आने वाली परेशानी नहीं है, बल्कि वही माहौल है जिसमें वे जीते हैं. अगर स्कूल, माता-पिता और सरकार मिलकर बदलाव नहीं करेंगे, तो भारत में ऐसी पीढ़ी तैयार होगी जो कागज़ पर तो होशियार दिखेगी, लेकिन अंदर से टूट चुकी होगी.
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