इजरायल (Isreal) पर हमास का हमला कोई मामूली हमला नहीं था. बल्कि ये हमास (Hamas) की तरफ से इजरायल पर किया गया अब तक का सबसे बड़ा हमला है. इस हमले ने इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद को भी नाकाम कर दिया. इजरायल ने इस हमले के जवाब में पलटकर हमास पर वार किया है. गाजा पट्टी में बड़े पैमाने पर इजराइली सेना ने हवाई हमला किया है.
गाजा पट्टी ही हमास का केंद्र माना जाता है. यही वो इलाका है, जिसे लेकर इजरायल और फिलिस्तीन के बीच कई वर्षों से संघर्ष होता आया है. अब इस ताजा हमले के बाद हालात ये हैं कि एक तरफ तो हिज़्बुल्लाह लेबनान के लड़ाके बॉर्डर पर जुटे हैं, वहीं दूसरी और तालिबान भी फिलिस्तीन की मदद के लिए जाना चाहता है. ऐसे में इजरायल पर ट्रिपल खतरा मंडरा रहा है.
हमास, हिज़्बुल्लाह लेबनान और तालिबान ये सभी ऐसे संगठन हैं. जिन्हें कई देशों ने मान्यता दी है तो कई मुल्कों ने इन्हें आतंकी संगठन बताकर बैन लगा रखा है. हांलाकि ये इन तीनों संगठनों में हिज़्बुल्लाह के हालात अब पहले जैसे मजबूत नहीं हैं. लेकिन ईरान की मेहरबानी से ये संगठन आज भी सक्रीय है. क्या है इन तीनों संगठनों की कहानी? आइए जान लेते हैं.
क्या है हमास?
इजरायल पर हमला करने वाले हमास पर पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है. ये वही हमास है, जिसका गाजा पट्टी पर कब्जा है. हमास इजराइल का खात्मा चाहता है. इसी वजह से इजराइल और हमास के बीच कई बार झड़पें हो चुकी हैं. हमास इजराइल के कब्जे वाले वेस्ट बैंक और अल अक्सा मस्जिद को आजाद कराना चाहता है. इजराइल जैसे मजबूत देश को घुटनों पर लाने वाला हमास कैसा इतना ताकतवर बन गया. इसकी वजह उसे मिलने वाली फंडिंग है. हमास को दुनिया के कई मुल्क सपोर्ट करते हैं. जिसमें सबसे अहम है ईरान और तुर्की. ये दोनों देश हमास को पैसे और हथियारों से मदद पहुंचाते हैं. हमास के पास घातक मिसाइलों का जखीरा भी हैं.
हमास कोई संगठन नहीं, बल्कि एक आंदोलन है. जिसका मतलब है इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन. इसकी स्थापना 1987 में पहले फ़िलिस्तीनी इंतिफ़ादा के दौरान हुई थी. इंतिफादा का मतलब बगावत या विद्रोह करना होता है. हमास के नेता कतर सहित मध्य पूर्व के कई देशों में फैले हुए हैं. हमास को ईरान के साथ-साथ कई देशों का समर्थन हासिल है. इसकी विचारधारा मुस्लिम ब्रदरहुड की इस्लामी विचारधारा से मेल खाती है, जिसे 1920 के दशक में मिस्र में स्थापित किया गया था.
हमला का मकसद फिलिस्तीन में इस्लामिक शासन स्थापित करना और इजरायल का खात्मा करना है. 12 साल की उम्र से व्हीलचेयर पर रहने वाले शेख अहमद यासीन ने हमास की स्थापना की थी. यासीन ने 1987 में इजराइल के खिलाफ पहले इंतिफादा का ऐलान किया था. साल 2007 में हमास ने वेस्ट बैंक में सत्ता पर काबिज और फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) के प्रमुख राष्ट्रपति महमूद अब्बास के लड़ाकों को एक गृह युद्ध शिकस्त दी थी.
साल 2006 में फिलिस्तीनी संसदीय चुनावों में अपनी जीत के बाद हमास ने गाजा पर कब्ज़ा कर लिया था. तब यहां आखिरी बार चुनाव आयोजित हुए थे. हमास ने महमूद अब्बास पर उसके खिलाफ साजिश रचने का आरोप लगाया. वहीं अब्बास ने गाजा पर हमास के कब्जा करने को तख्तापलट करार दिया था.
तब से, इज़रायल के साथ हमास का कई बार युद्ध हो चुका है, जिनमें अक्सर गाजा से इज़रायल की तरफ उसके द्वारा रॉकेट दागे जाते हैं. जवाब में इजरायल भी हवाई हमले और बमबारी करता है.
हमास इजरायल को मान्यता नहीं देता. 1990 के दशक के मध्य में इज़रायल और पीएलओ द्वारा किए गए ओस्लो शांति समझौते का हिंसक विरोध किया था. हमास के पास इज़ अल-दीन अल-क़सम ब्रिगेड नामक एक सशस्त्र विंग है, जिसने इजरायल में कई बंदूकधारी और आत्मघाती हमलावर भेजे हैं.
साल 1988 के संस्थापक चार्टर में इजरायल के विनाश का आह्वान किया गया था. हालांकि हमास के नेताओं ने कई बार 1967 के युद्ध में इजरायल द्वारा कब्जाए गए सभी फिलिस्तीनी क्षेत्र पर फिलिस्तीनी राज्य के बदले में हुदना (दीर्घकालिक संघर्ष विराम) की पेशकश भी की है. दूसरी तरफ इजरायल इसे एक प्रपंच करार देता है.
हमास को इज़राइल, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ, कनाडा, मिस्र और जापान एक आतंकवादी संगठन के रूप में देखते हैं. वहीं हमास एक क्षेत्रीय गठबंधन का हिस्सा है, जिसमें ईरान, सीरिया और लेबनान में शिया इस्लामी समूह हिजबुल्लाह शामिल हैं, जो मध्य पूर्व और इजरायल में अमेरिकी नीति का विरोध करते आए हैं.
क्या है हिजबुल्लाह?
इस संगठन के लड़ाके इजराइल बॉर्डर के बाहर जमा हो रहे हैं. उन्हें बस हुक्म मिलने का इंतजार है. ताकि वे हमास के समर्थन में इजरायल पर हमला कर सकें.
हिजबुल्लाह लेबनान का एक शिया राजनीतिक और अर्द्धसैनिक संगठन है. हिजबुल्लाह लेबनान के नागरिक युद्ध के दौरान स्थापित किया गया था. हिजबुल्लाह के नेता हसन नसरूल्लाह हैं. साल 1982 में इजराइल ने जब दक्षिणी लेबनान पर हमला किया था, तब ये संगठन वजूद में आया था. हालांकि इसे आधिकारिक रूप से साल 1985 माना जाता है. इस संगठन को लेबनान के संविधान के तहत मान्यता प्राप्त है, जिसने इजरायल के बढ़ते खतरे के चलते अपने देश को इजरायल के कब्जे में जाने से बचाया था.
इसकी शुरुआत को समझने के लिए लेबनान के इतिहास पर एक नजर जरूरी है. 1943 में लेबनान में हुए एक समझौते के अनुसार धार्मिक गुटों की राजनीतिक ताकतों को कुछ इस तरह बांटा गया - एक सुन्नी मुसलमान ही प्रधानमंत्री बन सकता था, ईसाई राष्ट्रपति और संसद का स्पीकर शिया मुसलमान. लेकिन यह धार्मिक संतुलन बहुत लंबे वक्त तक कायम नहीं रह पाया. फिलिस्तीनियों के लेबनान में बसने के बाद देश में सुन्नी मुसलामानों की संख्या बढ़ गई. ईसाई अल्पसंख्यक थे लेकिन सत्ता में भी थे. ऐसे में शिया मुसलामानों को हाशिये पर जाने का डर सताने लगा. इसी कारण 1975 में देश में गृह युद्ध छिड़ गया जो 15 साल तक चला.
इस तनाव के बीच इस्राएल ने 1978 में लेबनान के दक्षिणी हिस्से पर कब्जा कर लिया. फिलिस्तीन के लड़ाके इस इलाके का इस्तेमाल इजरायल के खिलाफ हमले के लिए कर रहे थे. इस बीच 1979 में ईरान में सरकार बदली और उसने इसे मध्य पूर्व में अपना दबदबा बढ़ाने के मौके के रूप में देखा. ईरान ने लेबनान और इस्राएल के बीच तनाव का फायदा उठाना चाहा और शिया मुसलामानों पर प्रभाव डालना शुरू किया. साल 1982 में लेबनान में हिजबुल्लाह नाम का एक शिया संगठन बना जिसका मतलब था "अल्लाह की पार्टी". ईरान ने इसे इस्राएल के खिलाफ आर्थिक मदद देना शुरू किया. जल्द ही हिजबुल्लाह दूसरे शिया संगठनों से भी टक्कर लेने लगा और तीन साल में यह खुद को एक प्रतिरोधी आंदोलन के तौर पर स्थापित कर चुका था.
1985 में इसने अपना घोषणापत्र जारी किया जिसमें लेबनान से सभी पश्चिमी ताकतों को निकाल बाहर करने का ऐलान किया गया. तब तक यह फ्रांस और अमेरिका के सैनिकों और दूतावास पर कई हमले भी कर चुका था. पत्र में अमेरिका और सोवियत संघ दोनों को इस्लाम का दुश्मन घोषित किया गया था. साथ ही इस घोषणापत्र में इस्राएल की तबाही और ईरान के सर्वोच्च नेता की ओर वफादारी की बात भी कही गई. हिजबुल्लाह ने ईरान जैसी इस्लामी सरकार की पैरवी तो की लेकिन साथ ही यह भी कहा कि लेबनान के लोगों पर ईरान का शासन नहीं चलेगा.
धीरे धीरे हिजबुल्लाह देश की राजनीति में भी सक्रिय हुआ और 1992 के चुनावों में इसने संसद में आठ सीटें हासिल की. इसके बाद भी हिजबुल्लाह के हमले जारी रहे. 90 के दशक ने अंत तक यह अलग-अलग हमलों में सैकड़ों लोगों की जान ले चुका था और 1997 में अमेरिका ने इसे आतंकी संगठन घोषित कर दिया था.
साल 2000 में इजराइली सैनिक आधिकारिक रूप से लेबनान से बाहर आ गए लेकिन दोनों देशों के बीच तनाव खत्म नहीं हुआ. फिर 2011 में जब सीरिया में गृह युद्ध छिड़ा तब हिजबुल्लाह ने बशर अल असद के समर्थन में अपने हजारों लड़ाके वहां भेजे. इस बीच राजनीतिक रूप से हिजबुल्लाह लेबनान में और मजबूत होता गया. आज यह देश की एक अहम राजनीतिक पार्टी है. लेकिन दुनिया के कई देश इसे आतंकी संगठन घोषित कर चुके हैं. 2016 में सऊदी अरब भी इस सूची में शामिल हो गया. वहीं यूरोपीय संघ ने लंबी चर्चा के बाद 2013 में इसके सैन्य अंग को आतंकी घोषित किया था. अब जर्मनी के पूर्ण प्रतिबंध के बाद माना जा रहा है कि ईयू पर भी ऐसा करने का दबाव बढ़ेगा.
कौन है तालिबान?
तालिबान लड़ाके भी कुछ देशों से उन्हें रास्ते देने की इजाजत मांग रहे हैं, ताकि वे जंग में इजरायल के खिलाफ हमास का साथ दे सकें. आपको बता दें कि अफगानिस्तान से रूसी सैनिकों की वापसी के बाद 1990 के दशक की शुरुआत में उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान का उभार हुआ था. पश्तो भाषा में तालिबान का मतलब होता है छात्र खासकर ऐसे छात्र जो कट्टर इस्लामी धार्मिक शिक्षा से प्रेरित हों. कहा जाता है कि कट्टर सुन्नी इस्लामी विद्वानों ने धार्मिक संस्थाओं के सहयोग से पाकिस्तान में इनकी बुनियाद खड़ी की थी. तालिबान पर देववंदी विचारधारा का पूरा प्रभाव है. तालिबान को खड़ा करने के पीछे सऊदी अरब से आ रही आर्थिक मदद को जिम्मेदार माना गया था. शुरुआती तौर पर तालिबान ने ऐलान किया कि इस्लामी इलाकों से विदेशी शासन खत्म करना, वहां शरिया कानून और इस्लामी राज्य स्थापित करना उनका मकसद है. शुरू-शुरू में सामंतों के अत्याचार, अधिकारियों के करप्शन से आजीज जनता ने तालिबान में मसीहा देखा और कई इलाकों में कबाइली लोगों ने इनका स्वागत किया लेकिन बाद में कट्टरता ने तालिबान की ये लोकप्रियता भी खत्म कर दी लेकिन तब तक तालिबान इतना पावरफुल हो चुका था कि उससे निजात पाने की लोगों की उम्मीद खत्म हो गई.
शुरुआती दौर में अफगानिस्तान में रूसी प्रभाव खत्म करने के लिए तालिबान के पीछे अमेरिकी समर्थन माना गया लेकिन 9/11 के हमले ने अमेरिका को कट्टर विचारधार की आंच महसूस कराई और वो खुद इसके खिलाफ जंग में उतर गया. लेकिन काबुल-कंधार जैसे बड़े शहरों के बाद पहाड़ी और कबाइली इलाकों से तालिबान को खत्म करने में अमेरिकी और मित्र देशों की सेनाओं को पिछले 20 साल में भी सफलता नहीं मिली. खासकर पाकिस्तान से सटे इलाकों में तालिबान को पाकिस्तानी समर्थन ने जिंदा रखा और आज अमेरिकी सैनिकों की वापसी के साथ ही तालिबान ने फिर सिर उठा लिया और तेजी से पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा जमा लिया.
तालिबान कट्टर धार्मिक विचारों से प्रेरित कबाइली लड़ाकों का संगठन है. इसके अधिकांश लड़ाके और कमांडर पाकिस्तान-अफगानिस्तान के सीमा इलाकों में स्थित कट्टर धार्मिक संगठनों में पढ़े लोग, मौलवी और कबाइली गुटों के चीफ हैं. घोषित रूप में इनका एक ही मकसद है पश्चिमी देशों का शासन से प्रभाव खत्म करना और देश में इस्लामी शरिया कानून की स्थापना करना. पहले मुल्ला उमर और फिर 2016 में मुल्ला मुख्तर मंसूर की अमेरिकी ड्रोन हमले में मौत के बाद से मौलवी हिब्तुल्लाह अखुंजादा तालिबान का चीफ है. वह तालिबान के राजनीतिक, धार्मिक और सैन्य मामलों का सुप्रीम कमांडर है. हिब्तुल्लाह अखुंजादा कंधार में एक मदरसा चलाता था और तालिबान की जंगी कार्रवाईयों के हक में फतवे जारी करता था. 2001 से पहले अफगानिस्तान में कायम तालिबान की हुकूमत के दौरान वह अदालतों का प्रमुख भी रहा था. उसके दौर में तालिबान ने राजनीतिक समाधान के लिए दोहा से लेकर कई विदेशी लोकेशंस पर वार्ता में भी हिस्सा लेना शुरू किया.
सत्ता हस्तांतरण की बातचीत के लिए काबुल पहुंचा तालिबान कमांडर मुल्ला अब्दुल गनी बारादर तालिबान में दूसरी रैंक पर है और इसी के अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनने की सबसे ज्यादा संभावना जताई जा रही है. यह तालिबान का राजनीतिक प्रमुख है और दोहा में लगातार अफगानिस्तान को लेकर तालिबान की ओर से बातचीत में शामिल होता रहा है. यह 1994 में बने तालिबान के 4 संस्थापक सदस्यों में से एक था और संस्थापक मुल्ला उमर का सहयोगी रहा है. यह कई लड़ाइयों को कमांड कर चुका है.
साल 2001 से शुरू हुई अमेरिकी और मित्र सेनाओं की कार्रवाई में पहले तालिबान सिर्फ पहाड़ी इलाकों तक ढकेल दिया गया लेकिन 2012 में नाटो बेस पर हमले के बाद से फिर तालिबान का उभार शुरू हुआ. 2015 में तालिबान ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण कुंडूज के इलाके पर कब्जा कर फिर से वापसी के संकेत दे दिए. ये ऐसा वक्त था जब अमेरिका में सेनाओं की वापसी की मांग जोर पकड़ रही थी. अफगानिस्तान से अमेरिका की रूचि कम होती गई और तालिबान मजबूत होता गया. इसी के साथ पाकिस्तानी आतंकी संगठनों, पाकिस्तान की सेना और आईएसआई की खुफिया मदद से पाक सीमा से सटे इलाकों में तालिबान ने अपना बेस मजबूत किया.
अफगानिस्तान से लौटने की अपनी कोशिशों के तहत 2020 में अमेरिका ने तालिबान से शांति वार्ता शुरू की और दोहा में कई राउंड की बातचीत भी हुई. एक तरफ तालिबान ने सीधे वार्ता का रास्ता पकड़ा तो दूसरी ओर बड़े शहरों और सैन्य बेस पर हमले की बजाय छोटे-छोटे इलाकों पर कब्जे की रणनीति पर काम करना शुरू किया. अप्रैल 2021 में अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाइडेन के ऐलान के बाद तालिबान ने मोर्चा खोल दिया और 90 हजार लड़ाकों वाले तालिबान ने 3 लाख से अधिक अफगान फौजों को सरेंडर करने को मजबूर कर दिया. अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी, उनके प्रमुख सहयोगियों, तालिबान से लड़ रहे प्रमुख विरोधी कमांडर अब्दुल रशीद दोस्तम और कई वॉरलॉर्ड्स को तजाकिस्तान और ईरान में शरण लेनी पड़ी.
परवेज़ सागर