विश्व की तमाम संगीत पद्धतियां, चाहे वे भारतीय हों या विदेशी, कहीं न कहीं शास्त्रीय संगीत से ही निकली हैं. भले ही उनकी शैली अलग हो, लेकिन सभी का आधार संगीत के सात सुर ही हैं.
क्या है ललित कला?
भारतीय शास्त्रीय संगीत ललित कला का एक अंग है. ललित कला में पांच कलाएं संगीत, कविता, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला आती है. इनमें भी संगीत गायन, वादन और नृत्य तीनों कलाओं का संगम है. संगीत रत्न नामक प्राचीन ग्रंथ में इसे लेकर कहा गया है कि 'गीतं वाद्यं तथा नृत्यं, त्रयः संगीत मुच्यते.' यानी गायन-वादन और नृत्य तीनों का एक साथ शामिल होना ही संगीत है.
क्योंकि गायन सुरों के बिना अधूरा है. नृत्य वादन और सुरों के बिना अधूरा है और वादन भी ताल के बिना अधूरा है. इसीलिए तीनों के होने में कहीं न कहीं तीनों का होना जरूरी है. अब बात आती है संगीत से जुड़ी प्रचलित शब्दावलियों की.
आखिर क्यों समझ में नहीं आता है शास्त्रीय गायन?
अक्सर लोग यह कहते मिल जाते हैं कि शास्त्रीय संगीत सिर्फ आ आ आ... टाइप होता है. समझ में कुछ नहीं आता है. पता नहीं गाने वाला क्या गा रहा है, लगता है रो रहा है. बोरिंग और न जाने क्या-क्या... विडंबना है कि इसी देश की मिट्टी में, प्रकृति से उपजा हुआ और ईश्वरीय वरदान के रूप में विख्यात शास्त्रीय संगीत अपने इसी देश में अनसुना है. भला हो फिल्मी संगीत के संगीतकारों का जिन्होंने इन रागों को 'लाइट म्यूजिक' वाले पैटर्न पर फिल्मी गीतों के जरिए जिंदा रखा, लिहाजा शास्त्रीय आधारित गीत भी फिल्मों का हिस्सा बनता रहे. इस तरह यह संगीत अभी भी लोगों के बीच जिंदा है.
दरअसल, लोगों को शास्त्रीय संगीत इसलिए समझ नहीं आता है, क्योंकि वो इसकी शब्दावली से परिचित नहीं हैं. संगीत, सुरों के अलावा शब्दों का ही तो खेल है और सनातन परंपरा में शब्द को तो ब्रह्म कहा गया है. इसलिए शास्त्रीय संगीत की समझ के लिए अगर कुछ शब्द और उनकी परिभाषा व अर्थ समझ लिए जाएं तो शास्त्रीय संगीत भी समझ आएगा.
क्या हैं संगीत पद्धतियां?
शुरुआत करते हैं संगीत पद्धतियों से. भारतीय शास्त्रीय संगीत में मुख्य दो प्रकार का संगीत प्रचार में है. इन्हें संगीत पद्धति कहते हैं. पहला है उत्तरी संगीत पद्धति, जिसे हिंदुस्तानी संगीत भी कहते हैं. दूसरी पद्धति दक्षिणी या कर्नाटक संगीत पद्धति कहलाती है.
उत्तरी संगीत पद्धतिः इसे हिंदुस्तानी संगीत पद्धति भी कहते हैं. यह पद्धति उत्तर भारत में बंगाल, बिहार, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, गुजरात और मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में प्रचलित है. भौगोलिक आधार पर ही यह उत्तरी संगीत कहलाता है.
दक्षिणी संगीत पद्धतिः खासतौर पर दक्षिण भारत में प्रचलित है, जिनमें तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल व कर्नाटक और दक्षिण के अन्य राज्य शामिल हैं. इसे ही कर्नाटक संगीत पद्धति भी कहते हैं. ये दोनों पद्धतियां भले ही अलग हैं, लेकिन शास्त्रीय नजरिए से इनमें काफी हद तक समानताएं भी हैं. सिर्फ रागों के नाम और कुछ रागों के गाने के आधारित तरीकों में हल्का बदलाव इन्हें अलग बनाता है.
क्या है ध्वनि?
ये तो हुई संगीत की पद्धतियों की बात, लेकिन शास्त्रीय संगीत को समझने के लिए इसके सबसे शुरुआती स्टेप को समझना शुरू करते हैं. जब हम किसी गायक को सुनते हैं और हमें उसका गीत पसंद आता है तो कहते हैं कि इसकी आवाज अच्छी है.
यही आवाज संगीत का पहला और शुरुआती पक्ष है. इसे 'ध्वनि' कहते हैं. जैसे ईंट गिरने, किसी के रोने या हंसने की आवाज ध्वनि है, वैसे ही गाने की आवाज भी ध्वनि है. संगीत का संबंध मधुर ध्वनि से है और हम मधुर ध्वनि को ही सुनना पसंद करते हैं. संगीत में मधुर ध्वनि को नाद कहते हैं.
कंपन क्या है?
ध्वनि की उत्पत्ति कंपन से होती है. यह एक आम फिजिक्स है. किसी वाद्ययंत्र को बजाने में उससे निकलने वाली आवाज असल में उसके कंपन से ही निकलती है. संगीत की भाषा में कंपन की इसी प्रक्रिया को आंदोलन कहते हैं. ये आंदोलन सिर्फ वाद्ययंत्रों में ही नहीं होता है, जब हम कुछ बोलते या गाते हैं, तब भी होता है. इसी आंदोलन के कारण ही आवाज सुरीली-मधुर या किसी की आवाज कर्कश होती है.
होता क्या है कि मान लीजिए कोई तार है. उसे एक बार खींचकर छोड़ा तो वह जितना ऊपर जाएगा उतना ही नीचे जाएगा और फिर अपनी बीच की अवस्था में आएगा. किसी तार के लिए ये एक आंदोलन हुआ. इन्हीं आंदोलनों की संख्या पर ध्वनि तय होती है.
इसके अलावा जब ध्वनि के आंदोलन की एक तय रफ्तार होती है तो उसे नियमित आंदोलन कहते हैं. जब किसी ध्वनि की आंदोलन संख्या हर एक सेकेंड में समान रहती है तो इसे नियमित आंदोलन कहते हैं. इसी तरह जब किसी ध्वनि में कुछ देर तक आंदोलन होता रहता है तो उसे स्थिर आंदोलन कहते हैं.
आंदोलन क्या है?
संगीत में नियमित और स्थिर आंदोलन वाली ध्वनि ही काम आती है. इस तरह नियमित और स्थिर आंदोलन वाली ध्वनि को नाद कहा जाता है.
प्राथमिक तौर पर शास्त्रीय संगीत की खूबसूरती का सारा आधार यही 'नाद' है. देर तक कंपन होने से नाद बड़ी देर तक और कम कंपन होने से नाद छोटा होता है. इसी तरह यह भी सुना जाता है कि जब गायन होता है तो कुछ सुर नीचे या कुछ ऊंचे होते हैं. यह ऊंचा-नीचा होना भी नाद पर ही निर्भर करता है. नाद ऊंचा तो सुर ऊंचा, नाद नीचा तो सुर नीचा होता है. उदाहरण के लिए संगीत में सा से ऊंचा रे, रे से ऊंचा ग, ग से ऊंचा म और आगे क्रम ऐसे ही चलता है. यानी जैसे-जैसे एक-एक स्वर बढ़ते जाते हैं, सुर ऊंचा होता जाता है. प्रति सेकेंड अधिक आंदोलन संख्या होने से नाद ऊंचा होता है, कम आंदोलन संख्या होने से नाद नीचा होता है.
इस तरह हम जो भी राग सुन रहे हैं, जो भी गीत सुन रहे हैं वह अच्छे लग रहे हैं, क्योंकि नाद अच्छे लग रहे हैं. नाद इसलिए अच्छा है,क्योंकि हर एक छोटे से छोटा कंपन बेहतरीन और नियमित तरीके से हो रहा है. एक भी कंपन बिगड़ा तो राग खराब और कर्कश हो जाएगा. इसलिए जब भी किसी शास्त्रीय संगीत के गायक को सुनें तो यह समझने की कोशिश करें कि उसने अपने गले से कितनी खूबसूरती से एक सुंदर कंपन वाले 'नाद' को पैदा किया है.
नाद क्या है?
संगीत में नाद कोई साधारण ध्वनि नहीं है, बल्कि इसे ब्रह्मांड का मूल आधार और स्वयं परमेश्वर माना गया है. कहते हैं कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति के समय हुए महाविस्फोट (बिग बैंग) की ध्वनि ही महानाद थी, और इसी से संगीत का जन्म हुआ है. यही कारण है कि संगीत को ईश्वरीय माना जाता है. इस रहस्य को समझकर जब आप अगली बार कोई भी संगीत सुनेंगे, तो सिर्फ उसकी धुन ही नहीं, बल्कि उसकी आत्मा को भी महसूस कर पाएंगे और उसके साथ पूरी तरह जुड़ पाएंगे
विकास पोरवाल