अहंकार का प्रतीक, नकारात्मक शक्तियों वाली धरोहर... कहानी उस धनुष की जो सीता स्वयंवर में टूट गया था

नवरात्रि के दौरान रामलीला में सीता स्वयंवर का प्रसंग दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता है, जिसमें पिनाक धनुष का इतिहास और उसकी महत्ता बताई गई है. यह धनुष शिवजी का दिव्य अस्त्र था, जिसे केवल एक बार त्रिपुर के विनाश के लिए प्रयोग किया गया था.

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शिवधनुष का इतिहास त्रिपुर के विनाश से जुड़ा हुआ है शिवधनुष का इतिहास त्रिपुर के विनाश से जुड़ा हुआ है

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 29 सितंबर 2025,
  • अपडेटेड 2:59 PM IST

नवरात्रि के साथ-साथ रामलीलाओं का मंचन जारी है. रामलीला में सीता स्वयंवर का प्रसंग बहुत दिलचस्प होता है और लोग इसके धनुषभंग प्रसंग को बड़े चाव से देखते हैं. कई राजाओं का धनुष उठाने का असफल प्रयास, किसी-किसी का तो उसे हिला ही न पाना और कई का तो सिर्फ दूर से ही प्रणाम करके चले जाना. फिर इसके बाद जब राम बने किरदार, शांत भाव से उठकर, धीमी गति से चलकर, मुंह और आंखें नीचे किए हुए धनुष के पास आते हैं तब भले ही यह मंचन आपने कई बार देखा हो और कहानी कई बार सुनी हो, तब भी एक बार टिककर देखने का मन हो जाता है कि आखिर 'श्रीराम' कैसे इस धनुष को तोड़ेंगे.

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सीता स्वयंवर में रखे धनुष का नाम पिनाक था
सीताजी के स्वयंवर में जो धनुष रखा गया था, उसका नाम पिनाक था. यह शिवजी का धनुष है, जिसका इस्तेमाल उन्होंने एक ही बार किया था वह भी सिर्फ त्रिपुर के विनाश के लिए. खास बात है कि पिनाक धनुष जिस बांस से बना था, उसके ही टुकड़े से दो धनुष और बने थे. एक था सारंग और दूसरा गांडीव.

कण्व ऋषि के आश्रम में पनपे बांस से बना था धनुष
कहानी कुछ ऐसी है कि महान ऋषि कण्व ने जब अथक तपस्या की तो इस दौरान 12वर्ष का लंबा अकाल पड़ा. अकाल के इस दुर्दिन में भी जब सारी वनस्पतियां सूख गईं, ऋषि की तपस्थली के पास ही एक बांस का पौधा उग आया था जो इस अकाल में भी नहीं सूखा और उसकी लंबाई आकाश को छूने लगी. ऋषि के तप से प्रसन्न ब्रह्मदेव ने कण्व ऋषि को ब्रह्नर्षि का पद दिया. फिर वो सोचने लगे कि तप के प्रभाव से ही यह बांस हरा-भरा रहा है. तब उन्होंने इस दिव्य बांस को देव शिल्पी विश्वकर्मा को दिया. विश्वकर्मा ने इससे तीन दिव्य धनुष बनाए. 

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पिनाक, सारंग और गांडीव... एक बांस से बने थे तीन धनुष
पहला था पिनाक- पिनाक धनुष शिवजी को दिया गया, जिससे उन्होंने त्रिपुर का अंत किया. वास्तव में ब्रह्माजी ने दिव्य बांस पिनाक धनुष बनाने के लिए ही दिया था.
दूसरा था सारंग- सारंग धनुष विष्णुजी को दिया गया था, जिससे उन्होंने हयग्रीव नाम के असुर का अंत किया था. 
तीसरा था गांडीव- सबसे अधिक बार इसी धनुष के मालिक बदलते रहे हैं. पहले यह इंद्र को मिला, इंद्र ने इसे अग्नि को दिया. अग्नि से सूर्य ने यह धनुष मांग लिया था. फिर सूर्यदेव ने गांडीव वरुण देव को दे दिया. कई कालों तक गांडीव धनुष वरुण देव के पास ही रहा. जब अर्जुन ने खांडव प्रस्थ जलाया और इंद्रप्रस्थ के निर्माण के लिए वरुणदेव से मैत्री की, तब वरुण ने अर्जुन को दिव्य रथ, दिव्य शंख और दिव्य धनुष गांडीव मित्रता के उपहार स्वरूप दिया था. 

कितना भयानक था पिनाक धनुष?
खैर, पिनाक पर वापस लौटते हैं. ऐसा धनुष, जिसकी डोर की कंपन से बादल फट जाएं और पर्वत भी हिलने लग जाएं, ऐसे प्रलंयकारी धनुष को महादेव शिव ने सिर्फ एक ही बार साधा और त्रिपुरासुर का वध कर देवताओं को दे दिया. पिनाक बहुत शक्तिशाली धनुष था और उसका प्रयोग सिर्फ मर्यादा की स्थापना की लिए ही हो, यही कामना थी. देवताओं ने उस धनुष को सहेज कर रखा, क्योंकि उसे वैसे भी कोई नहीं उठा सकता था. फिर एक दिन देव सेनापति कार्तिकेय ने उस धनुष को उठा लिए. इससे कार्तिकेय के मन में शिवपुत्र होने का अभिमान आ गया.

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तब शिवजी ने वह धनुष परशुरामजी को दे दिया. परशुराम ने उस धनुष को विदेहराज के पूर्वज निमि के पास रखवा दिया. उस समय रावण भी यह धनुष पाने की इच्छा रखता था, लेकिन इस धनुष को उठाना उसके वश की बात भी नहीं थी. 

विजय, जब अहंकार का प्रतीक बन जाए
इसलिए यह धनुष अहंकार का प्रतीक भी बनता गया. अस्त्र-शस्त्र या व्यक्ति कोई भी उसके साथ पायी गई विजय अहंकार लेकर आती ही है. विदेह के यहां पिनाक इसलिए रखा गया क्योंकि वही उसके प्रति उदासीन रह सकते थे, बाकी किसी और के यहां उसके दुरुपयोग की संभावना थी, फिर एक दिन महालक्ष्मी रूप सीता ने खेल ही खेल में धनुष को एक जगह से उठाकर दूसरी जगह रख दिया. तब उनके पिता सीरध्वज जनक ने अहंकार में ही यह वचन ले लिया कि जो भी इस धनुष को उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाएगा उससे ही सीता का विवाह होगा. उन्होंने जाने-अन्जाने ही सीताजी के प्रारब्ध को एक धनुष से बांध दिया.

हर अहंकार के नष्ट होने का प्रतीक है शिवधनुष
हालांकि इसको समझने का एक जरिया यह भी है कि, जब सीताजी ने पिनाक को खिलौने की तरह उठा लिया तो महाराज जनक समझ गए कि सीता के योग्य वही है जिसने अहंकार पर विजय पा ली हो. भगवान राम बल और शील के सुंदर समायोजन हैं. वह अपने बल और शील के द्वारा उस मर्यादा की स्थापना करते हैं जिसका निर्वाह खुद महादेव ने किया था. अहंकार टूटता है, केवल धनुष के रूप में नही बल्कि जनक के दरबार में आए सभी योद्धाओं का टूटता है, परशुराम का टूटता है. आगे चल कर उस युग के अहंकारी रावण का टूटता है. अहंकार को वही तोड़ सकता है जो मर्यादा में हो और शील सौम्य की प्रतिमूर्ति हो. 

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तब जब सभी राजा घनुष उठाने में असमर्थ होते हैं और जनक अपने प्रण पर खुद को कोस रहे होते हैं, तब विश्वामित्र एक बार सारी सभा को देखते हैं, फिर क्या कहते हैं, उसे तुलसी बाबा के शब्दों में समझिए...

विश्वामित्र समय सुभ जानी, बोले अति सनेहमय बानी,
उठहुं तात भंजऊं भव चापा, मैटेहु तात जनक परितापा।।

(विश्वामित्र ने शुभ समय जानकार बहुत स्नेह भरे शब्दों में कहा- उठो राम, भवसागर के इस प्रतीक को तोड़ो और जनकराज की परेशानी का निदान करो.)

वाल्मीकि रामायण में नहीं है स्वयंवर सभा का जिक्र
हालांकि वाल्मीकि रामायण में न तो स्वयंवर सभा का जिक्र है, न धनुष को तोड़ने का और न ही किसी बड़े आयोजन का. वहां सिर्फ इतना भर लिखा है कि जनकजी ने धनुष यज्ञ का आयोजन किया था. इसके लिए विश्वामित्र जी को बुलावा भेजा था. तब विश्वामित्र अपने दोनों शिष्यों को (राम-लक्ष्मण) सिर्फ जनकपुरी घुमाने के लिहाज से मिथिला लेते आए थे. रास्ते में उन्होंने राम-लक्ष्मण को कई पुराण कहानियां सुनाईं तब उन्होंने शिवजी के पवित्र धनुष का भी जिक्र किया. तब राम-लक्ष्मण ने उनसे धनुष के दर्शन की इच्छा जताई थी.

फिर जब तीनों मिथिला पहुंचे तो ऋषि विश्वामित्र ने राजा जनक से दोनों कुमारों का परिचय कराया और बातों ही बातों में धनुष देखने की उनकी इच्छा भी बता दी. राजा जनक ने उनकी बात मानकर सेवकों से धनुष लाने को कहा. थोड़ी देर में कई सारे सैनिक एक धनुष को घसीटे ला रहे थे जो कि एक पहिए वाली मेज पर रखा था. सेवकों को इतनी मशक्कत करते देख राम-लक्ष्मण उधर ही बढ़ चले. राम के पीछे-पीछे जनकराज, उनके मंत्री और विश्वामित्र भी चले.

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श्रीराम ने उस धनुष को प्रणाम किया और देखते ही देखते उसे हाथ में उठा लिया. यह देख राजा जनक आश्चर्य में पड़ गए और उन्होंने बहुत पहले विवाह को लेकर जो प्रण कर रखा था, उसके अनुसार ही विश्वामित्र से श्रीराम का हाथ मांगा. विश्वामित्र ऋषि ने अपनी ओर से औपचारिक हां कर दी, लेकिन तुरंत ही राजा दशरथ को बुलावा भेज दिया. बाद में श्रीराम और सीता का विवाह हो गया.

लेकिन, तुलसीदास ने मानस में धनुष यज्ञ और स्वयंवर सभा का बहुत विस्तार से और शृंगार परक जिक्र किया है. देखिए उन्होंने क्या कहा?

गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।।


लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।

श्रीराम अपनी जगह से उठकर मंच तक, जहां धनुष रखा हुआ था आए. गुरुजी को मन ही मन प्रणाम किया और धनुष को बहुत हल्के ही हाथों से उठा लिया. फिर आकाश में बिजली चमकने लगी. वह धनुष श्रीराम के हाथ में उठकर आकाश के बराबर होकर गोलाकार हो गया. श्रीराम ने उसे कानतक खींचकर ताना, उसकी डोर बांधी औऱ फिर उसकी कमानी की मजबूती जांचने के लिए उसकी डोर को कान तक खींचा  ये सबकुछ इतनी तेजी से हुआ कि कोई नहीं देख सका. इसी बीच राम के हाथों वह धनुष टूट गया और तीनों लोकों में कठोर धुन वाली गर्जना गूंज गई.

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इस तरह शिवजी का वह धनुष जो सिर्फ एक बार इस्तेमाल हुआ और जो कई कालखंड तक सिर्फ अहंकार का प्रतीक बना रहा, श्रीराम ने उसे अपनी मर्यादा से तोड़ दिया और इस तरह श्रीराम और सीता का विवाह हुआ. 

कोदंड था श्रीराम के धनुष का नाम
आखिरी में एक और बात बतानी चाहिए कि श्रीराम के अपने धनुष का नाम कोदंड है. कई दक्षिणभारतीय मंदिरों में श्रीराम की पूजा कोदंडस्वामी, कोदंडधारी के नाम से होती है. रामेश्वरम में भी एक मंदिर कोदंडाधिकारी स्वामी का है जो बहुत प्रसिद्ध है.

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