एक पक्षी दो सिर... दक्षिण भारतीय मंदिरों की नक्काशी में 'गंडभिरुंड' की प्रतिमाओं का रहस्य

प्राचीन मूर्तियों में दो सिर वाला पक्षी क्या सिर्फ कला की सुंदरता का आलंकारिक नमूना है, क्या यह सिर्फ सजावट के लिए है, या किसी चित्रकार की यूं ही की गई कल्पना है? नहीं, आपको आश्चर्य होगा कि दो सिरों वाला यह एक पक्षी अपने आप में एक रहस्य गाथा है. यह सिर्फ अपनी मौजूदगी भर से एक बहुत बड़ी पुराण कथा कह रहा है.

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दक्षिण भारतीय मंदिरों में दो सिर वाले पक्षी का रहस्य क्या है दक्षिण भारतीय मंदिरों में दो सिर वाले पक्षी का रहस्य क्या है

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 26 अप्रैल 2025,
  • अपडेटेड 6:34 AM IST

कर्नाटक सरकार के राज्य चिह्न पर नजर डालिए, क्या दिखाई देता है? बारीकी से देखें तो नजर आता है कि इस प्रतीक चिह्न के बिल्कुल बीच में एक लाल रंग की ढाल है. ये ढाल सुरक्षा का प्रतीक है. इसी ढाल पर सफेद रंग की पक्षीनुमा आकृति नजर आती है.

ध्यान से देखें तो इस पक्षी के दो सिर हैं और जिस तरह उसे ढाल के ठीक बीच में उकेरा गया है, वह इस बात का प्रतीक है, यह ढाल और पक्षी दोनों ही समान रूप से रक्षक के प्रतीक हैं. ढाल की सीमा नीले रंग की है, इसके ऊपर अशोक चक्र अंकित है जो कि भारत का राज्य चिह्न है.

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कर्नाटक सरकार का राज्य चिह्न

नीली किनारी वाली लाल ढाल के दोनों ओर लाल और पीले रंग के दो गजकेसरी (आधा सिंह और आधा हाथी) चित्रित हैं. यह पौराणिक प्राणी बुद्धिमत्ता, शक्ति और समृद्धि का प्रतीक है, जो सिंह (शौर्य) और हाथी (बुद्धि) का संयोजन है. यह प्रतीक कर्नाटक की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को दर्शाता है, साथ ही राज्य की शक्ति, धर्म और प्रशासनिक स्थिरता को प्रदर्शित करता है.

कर्नाटक सरकार का राजकीय चिह्न

कर्नाटक सरकार का यह प्रतीक मैसूर साम्राज्य के सैन्य प्रतीक से प्रेरित है. मैसूर साम्राज्य में इस प्रतीक का अपना अलग इतिहास रहा है.

अब इसी तरह, मैसूर विश्वविद्यालय (University of Mysore) के प्रतीक चिह्न पर भी नजर डालिए. इसमें भी आपको मध्य में दो सिर वाली वही पक्षी आकृति नजर आएगी. प्रतीक में विश्वविद्यालय का आदर्श वाक्य "नहि ज्ञानेन सदृशं" (संस्कृत में, जिसका अर्थ है "ज्ञान के समान कुछ भी नहीं") अंकित है. यह शिक्षा और ज्ञान के प्रति विश्वविद्यालय की प्रतिबद्धता को दर्शाता है. प्रतीक में आमतौर पर नीला, लाल और सुनहरा रंग उपयोग किया जाता है, जो शाही और शैक्षणिक गरिमा को दर्शाते हैं. दो सिर वाला पक्षी यहां भी एक ढाल पर ही उकेरा गया है. कर्नाटक सरकार और मैसूर विश्वविद्यालय दोनों के प्रतीकों में ये समानता बताती है कि दोनों ही का जुड़ाव और जड़ें  मैसूर साम्राज्य के साथ जुड़ी रही हैं.

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क्या ये पक्षी सिर्फ आलंकारिक सुंदरता का नमूना?

सवाल उठता है कि दो सिर वाला पक्षी क्या सिर्फ कला की सुंदरता का आलंकारिक नमूना है, क्या यह सिर्फ सजावट के लिए है, या किसी चित्रकार की यूं ही की गई कल्पना है? नहीं, आपको आश्चर्य होगा कि दो सिरों वाला यह एक पक्षी अपने आप में एक रहस्य गाथा है. यह सिर्फ अपनी मौजूदगी भर से एक बहुत बड़ी पुराण कथा कह रहा है, हालांकि समय के साथ इस कहानी के कुछ हिस्से धुंधले जरूर हो गए हैं, लेकिन शोधकर्ताओं के लिए इसमें किसी कहानी का छिपा होना कोई बड़ी बात नहीं है. वास्तव में इस कहानी और रहस्य की शुरुआत इस पक्षी के नाम से ही हो जाती है.

इस पक्षी का नाम क्या है?

बिल्कुल, आप यकीन नहीं करेंगे कि दो सिर वाले इस पक्षी का एक नाम भी है. यानी एक बात तय रही है कि यह महज कल्पना नही हैं. इस पक्षी का नाम है गंडभिरुंड, जिसे 'गंधभिरुंड' भी कहा गया है. यह अब कहीं नहीं पाए जाते, बल्कि कई सदियों के इतिहास में कहीं भी ऐसे पक्षी को देखे जाने का सुबूत नहीं मिला है, जिसके दो सिर हैं, लेकिन भारत की पौराणिक कथाओं के कई पन्नों में इस पक्षी के विवरण दर्ज हैं, इसलिए इसे पौराणिक पक्षी मान लिया गया है.

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क्या है इस पक्षी की कहानी?

पुराणों में इस पक्षी की मौजूदगी की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. विष्णु पुराण की कहानी में जिक्र है कि हिरण्यकश्यप की असंभव मृत्यु को संभव करने के लिए विष्णु ने अजीब अवतार लिया. वह न मनुष्य का था और न ही जानवर का, बल्कि इन दोनों के बीच की कड़ी जैसा था. जैसे कि उनका मुख शेर की तरह, पैने-नुकीले दांतों वाला, चेहरा, लंबे बालों (जिसे अयाल कहते हैं) से घिरा हुआ, लेकिन गले से लेकर नीचे पांव तक वह पूरी तरह एक मनुष्य थे. दो पैरों पर खड़े, लेकिन हाथों के पंजें और नाखून लंबे और शेर की ही तरह पैने-मजबूत.

नरसिंह अवतार से जुड़ी है कहानी

विशाखापटनम के सिंहाचलम पहाड़ी पर स्थित वराह लक्ष्मी नरसिम्हा मंदिर में नरसिंह की ऐसी ही प्रतिमा देखी जा सकती है. कथा के अनुसार विष्णु ने इस भयानक अवतार में हिरण्यकिश्यप को मारा डाला. आम तौर पर कहानी यहीं खत्म हो जाती है, लेकिन नहीं, अभी ठहरिए... ये कहानी अभी आगे और भी है और इसका अगला हिस्सा ही 'गंडभिरुंड' पक्षी की उत्पत्ति का केंद्र है.

जब नहीं शांत हुआ नरसिंह का क्रोध

हुआ यूं कि हिरण्यकश्यप को मारने के बाद भी नरसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ और वह अनियंत्रित गु्स्से में चारों ओर तोड़फोड़ मचाने लगे. उन्होंने धरती को नष्ट कर देना चाहा और जो भी सामने पड़ा उसे मार डालना चाहा. यानी नरसिंह, जो खुद एक बुराई को खत्म करने आया था, वह खुद समस्या बनने लगा था. इस समस्या का निपटारा करने के लिए कदम उठाया शिवजी ने. इस कथा का जिक्र विष्णु धर्मेत्तर पुराण में मिलता है.

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नरसिंह को कंट्रोल करने के लिए शिव ने लिया शरभ अवतार

शिवजी ने पहले वीरभद्र को भेजा, लेकिन नरसिंह ने एक मुक्के से ही वीरभद्र को जमीन दिखा दी. अब शिव को खुद आना था, लेकिन वह सामान्य शिव स्वरूप में नरसिंह का सामना नहीं कर सकते थे. इसलिए शिव ने भी एक भयंकर अवतार लिया. ऐसा जानवर, जिसके 8 पैर, चार हाथ, शरीर घोड़े का, जिस पर पंख भी थे और इसका भी चेहरा शेर की ही तरह था. पुराणों में इसे शिव का शरभ अवतार बताया गया है.

शरभ ने एक छलांग लगाई और नरसिंह बने विष्णु की छाती पर चढ़ गया. तब उन्होंने अपने एक-एक हाथ से नरसिंह के दोनों हाथ पकड़े, चार पैरों से धड़ को जकड़ा और पीछे के चार पैरों से नरसिंह के पैर दबा कर जकड़ लिए. अब शरभ, नरसिंह को लेकर आकाश में उड़ चला. नरसिंह ने गुस्से में शरभ का गला दबोचने की कोशिश की, तब शरभ ने अपने नाखूनों से नरसिंह को चीर दिया और उसके सिंह कपाल को धड़ से उखाड़ लिया. इससे नरसिंह का स्वरूप नष्ट हो गया और फिर महाविष्णु अपने शांत स्वरूप में सामने आ गए.

नरसिंह को कंट्रोल करने मे आपा खो बैठे शरभ अवतार शिव

शरभ अवतार सात्विकता से भी उपजे नकारात्मक क्रोध को कंट्रोल करने का प्रतीक है. यहां कहानी का एक भाग खत्म होता है, लेकिन कहानी अभी बाकी है. आगे ऐसा हुआ कि नरसिंह को कंट्रोल करने की कोशिश में शरभ ने अपना आपा खो दिया और अब संसार के लिए वह नई समस्या बन गया. जब शरभ बने शिव को कोई नहीं रोक सका तो फिर विष्णु ने अपने ही वाहन गरुण का दोहरा अवतार लिया. गरुण जो तेज गति से उड़ने वाला पक्षी है और ज्ञान और भक्ति का प्रतीक है. यही गंडभिरुंड है.

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मैसूर के ललिता महल पैलेस होटल में 'गंडभिरुंड' की धातु शिल्प

फिर विष्णु बने गंडभिरुंड पक्षी

इस ताकतवर मजबूत पक्षी के विशालकाय पंख थे, मजबूत पंजे थे और उसके दो मुख थे, जिनके आगे तीखी-नुकीली चोंच भी थी. गंडभिरुंड ने अब शरभ को अपने कब्जे में लिया और अपनी चोंच से उसे सच्चाई का ज्ञान कराया. शरभ बने शिव को सबकुछ याद आ गया और धीरे-धीरे वह शांत हो गए. कई मूर्तियों के विवरण में ऐसा दिखाई देता है कि गंडभिरुंड ने शरभ पर विजय पाई और उसे उसी तरह चीर दिया, जैसे कि हिरण्यकश्यप को चीरा था, लेकिन अधिकांश प्रतिमाएं ऐसी मिलती हैं, जिनमें गंडभिरुंड ने शरभ को अपने पंजे में जकड़ रखा है और शरभ अपने अगले दो हाथों से प्रणाम की मुद्रा में है.

मूर्तिकला और शिल्प में गंडभिरुंड

गंडभिरुंड की छवि दक्षिण भारतीय मूर्तिकला और शिल्प में विस्तार से देखी जा सकती है. यह पक्षी अपनी विशिष्ट दो सिर वाली आकृति के साथ शाही और धार्मिक कला का हिस्सा रहा है. विजयनगर साम्राज्य (1336-1646) के सिक्कों, मुहरों और स्थापत्य में गंडभिरुंड की मौजूदगी दिखाई देती है. उदाहरण के लिए, हम्पी के कुछ खंडहरों में इसकी नक्काशी देखी जा सकती है. मैसूर पैलेस की दीवारों और सजावट में गंडभिरुंड को सुनहरे और रंगीन चित्रों में उकेरा गया है, जो वोडेयार राजवंश की शक्ति और वैभव का प्रतीक चिह्न भी है. कर्नाटक के पारंपरिक हस्तशिल्प, जैसे कासुती कढ़ाई और चंदन की नक्काशी, में भी गंडभिरुंड की आकृतियां नजर आती हैं.

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आवृत्ति आलेखन की शुरुआत

चित्रकला के आवृत्ति आलेखन की शुरुआत भी गंडभिरुंड के अस्तित्व से ही है. असल में आवृत्ति आलेखन दोहरे पैटर्न वाली चित्रकला की एक शैली है. जिसमें कैनवस के आधे भाग पर जिस तरह के बेलबूटे उकेरे जाते हैं. कैनवस के दूसरे सिरे पर भी ठीक वही बेलबूटों की आकृति दोहराई जाती है. गंडभिरुंड के दोनों मुख समान दूरी के साथ एक-दूसरे के विपरीत ही नजर आते हैं और एक जैसी ही संरचना में होते हैं.

मंदिरों की दीवारों पर नक्काशी

कर्नाटक के मंदिरों में गंडभिरुंड की नक्काशी धार्मिक और शाही प्रतीक के रूप में शामिल है. श्रृंगेरी के विद्याशंकर मंदिर (14वीं शताब्दी) और बेलूर के चेन्नकेशव मंदिर (12वीं शताब्दी) में इस पक्षी की सूक्ष्म नक्काशी देखी जा सकती है. ये नक्काशियां अक्सर मंदिरों के गोपुरम या मुख्य द्वारों पर उकेरी जाती जाती रही हैं, जो दैवीय शक्ति और रक्षा का प्रतीक थीं.

लेपाक्षी मंदिर (16वीं शताब्दी, आंध्र प्रदेश, विजयनगर प्रभाव क्षेत्र) में गंडभिरुंड की चित्रकारी और नक्काशी वैष्णव कला की उत्कृष्टता को दर्शाती है. कर्नाटक के कुछ जैन मंदिरों, जैसे श्रवणबेलगोला, में भी इस प्रतीक का उपयोग शक्ति और बुद्धि के प्रतीक के रूप में हुआ है. ये नक्काशियां न केवल धार्मिक महत्व रखती हैं, बल्कि कर्नाटक की स्थापत्य कला की समृद्धि को भी उजागर करती हैं.

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रामेश्वरम मंदिर में भी गंडभिरुंड की नक्काशी

12 ज्योतिर्लिंगों में से एक रामेश्वरम मंदिर के मुख्य भवन की छत पर भी गंडभिरुंड की नक्काशी देखी जा सकती है. वहीं, तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर में भी दीवार पर उकेरी गई एक पुरानी पेंटिंग में गंडभिरुंड का अक्स नजर आता है. मंदिर और पेंटिंग दोनों ही प्राचीन हैं, लेकिन इसके रंग-रोगन कुछ नए हैं, जो इस नक्काशी पेंटिंग को और अधिक स्पष्ट बनाते हैं.

रामेश्वरम मंदिर के छत की नक्काशी में गंडभिरुंड

साहित्य में गंडभिरुंड

गंडभिरुंड का उल्लेख भारतीय साहित्य और ग्रंथों में भी मिलता है. विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अलावा, कन्नड़ साहित्य में इसकी मौजूदगी देखी जा सकती है. कन्नड़ कवि पंप और रन्न जैसे मध्यकालीन कवियों ने अपनी कृतियों में गंडभिरुंड या गंडभिरुंड का प्रतीकात्मक उपयोग किया, जो शाही गौरव और शक्ति का वर्णन करता था. मैसूर राजवंश के ऐतिहासिक दस्तावेजों में गंडभिरुंड को शाही प्रतीक के तौर पर दिखाया जाता है. आधुनिक काल में, कर्नाटक के साहित्य और लोक कथाओं में यह पक्षी साहस और विजय के प्रतीक के रूप में जीवंत है. इसके अतिरिक्त, पंचतंत्र और जातक कथाओं में दो सिर वाले पक्षी के उल्लेख को गंडभिरुंड (गंडभेरुंड) से जोड़ा जाता है, जो नैतिक और दार्शनिक शिक्षाओं को दर्शाता है.

धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश का प्रतीक

हालांकि दो सिर वाला यह पक्षी द्वैत और एकता का प्रतीक है, जो बुद्धि और शक्ति के संतुलन को दर्शाता है. यह दैवीय शक्ति, रक्षा और अजेयता का प्रतीक माना जाता है. कर्नाटक में वैष्णव भक्ति परंपरा के प्रभाव के कारण, गंडभिरुंड को भगवान विष्णु के रक्षक रूप से जोड़ा गया, जो धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश का प्रतीक है.

गंडभिरुंड का उपयोग विजयनगर साम्राज्य (1336-1646) में भी देखा गया, जो दक्षिण भारत का एक शक्तिशाली साम्राज्य था. विजयनगर के कुछ सिक्कों और शिलालेखों में इस प्रतीक का उल्लेख मिलता है. मैसूर साम्राज्य, जो विजयनगर के पतन के बाद उभरा, ने इस प्रतीक को अपनाया और इसे अपनी पहचान बनाया.

रूसी साम्राज्य में भी दो सिर वाला ईगल पक्षी

गंडभिरुंड जैसे दो सिर वाले पक्षी अन्य संस्कृतियों में भी पाए जाते हैं, जैसे कि रूसी साम्राज्य का दो सिर वाला ईगल या बीजान्टिन प्रतीक. हालांकि, गंडभिरुंड की विशिष्टता इसकी भारतीय पौराणिक और शाही जड़ों में निहित है, जो इसे कर्नाटक की अनूठी पहचान देती है. गंडभिरुंड या गंडभिरुंड की कहानी और रहस्य इतने भर ही नहीं हैं, लेकिन इनका विवरण एक और रहस्यमयी पक्षी या जानवर शरभ की ओर आकर्षित करता है. भारत की प्राचीन कला में शरभ की मूर्तियां भी ऐसे ही अनेक रहस्य खुद में समेटे हुए है, शरभ की प्रतिमाओं की बारीकी का जिक्र अगली कड़ी में.

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