इंस्टा पर एक रील वायरल है. रेलवे स्टेशनों पर जिन लाउड स्पीकर्स पर तीखे ट्रेन अनाउंसमेंट गूंजा करते हैं, वे बीच-बीच में मधुर हो उठते हैं. 'पहिले-पहल हम कईनी, छठ मईया बरत तुहार...' कुछ साल पहले बिहार कोकिला शारदा सिन्हा की आवाज में पगा ये छठ गीत रिलीज हुआ था. ये रील एक अलग ही सुकून देने वाली है और लोग इसे शेयर कर रहे हैं. इसे शेयर करने की दो वजहें हैं. पहला बिहार के लोगों की आत्मा से जुड़ा छठ महापर्व और दूसरी वजह हैं शारदा सिन्हा... जिनके बिना सूप में 'जोड़े-जोड़े फलवा' तो हैं, 'काचे बांस के बहंगी लचकत जात बा' और व्रती लोगों से गुलजार छठ घाट 'उगा-उगा हो सुरुज देव' की मनुहार कर रहे हैं, लेकिन ये सब देखने-सुनने के लिए खुद शारदा सिन्हा नहीं है.
आने वाली पांच नवंबर को उनको गुजरे हुए सालभर पूरे हो जाएंगे. हर बढ़ते समय के साथ वो एक याद बनती चली जाएंगी और पुण्यतिथि-स्मृति दिवसों में जिंदा रहेंगी, लेकिन छठ घाटों की रौनक बढ़ाने वाले उनके सुरीले गीतों की माला में नए गीत नहीं जुड़ेंगे.
शारद सिन्हा... तीसरे प्रकार का अनोखा संगीत
संगीत की समझ रखने वाले मानते हैं कि संगीत दो तरीके का होता है, एक तो वो जो दुख में आपका साथी बने, सांत्वना दे, साहस दे, बढ़ावा दे. दूसरा संगीत वह जो आपको खुशी और उत्साह को दोगुना कर दे... लेकिन, जिन कानों में शारदा सिन्हा रस घोल चुकी हैं और जिनकी खदकती चाशनी दिल में शीरा बनकर उतरी हुई है वह जानते हैं कि संगीत का एक तीसरा प्रकार भी होता है. वह संगीत, जिसे सुनकर आप बिना दुखी हुए और खुशमिजाज माहौल में भी रो सकते हैं, वह भी माहौल को बिना गमगीन किए.
वो संगीत जो आपके भीतर छिपे किसी ट्रॉमा को ट्रिगर नहीं करता, बल्कि चुपके से जाकर उसे सहला आता है, अंदर ही अंदर घाव की मरहम पट्टी कर देता है और कई मामलों में इतना खुश कर देता है कि आपकी आंखों में खुशी के आंसू आ जाता हैं. ये जादू लोक संगीत का जादू है और शारदा सिन्हा निर्विवाद रूप से इस जादू को जानने वाली जादूगर थीं.
आचार्य रामभद्राचार्य अपनी रामकथाओं में एक भजन/ठुमरी अक्सर गाया करते हैं, 'आज मोहे रघुबर की सुध आई' लोग इसे पसंद भी करते हैं, लेकिन वास्तव में इसे शारदा सिन्हा ने ही अपनी किसी पुरानी एल्बम में गाया था. साल 2021 में हुए 'जश्न-ए-अदब' के मौके पर उन्होंने इसकी लाइव प्रस्तुति दी थी. भजन में एक अंतरा आता है, जिसके भाव कुछ ऐसे हैं कि बारिश का महीना है (सावन-भादों) मूसलाधार बारिश हो रही है और अयोध्या के महल में राम-लखन की याद लिए सूनी आंखों वाली कौशल्या खिड़की पर बैठीं हैं. उनकी चिंता देखिए, वह कह उठती हैं...
'सावन गरजे-भादौं बरसे,
चलई पवन पुरवाई
कौन वृक्षतर भीजत हुईहैं,
सीय सहित दोऊ भाई.
मोहे रघुबर की सुध आई...'
मेरे घर-परिवार की व्रत परंपरा में छठ शामिल नहीं है, लेकिन गोरखपुर में पले-बढ़े होने के कारण इस महापर्व से बहुत करीबी नाता रहा है. इतना कि छठ अपने ही घर होने वाला कोई त्योहार लगता है और बचपन से खुद को नहाय-खाय के लौकी चावल, खरना के रसियाउर-रोटी और आखिरी दिन सूर्योदय के बाद घाट पर मिलने वाले महाप्रसाद ठेकुआ के साथ जुड़ा हुआ पाया है.
इस जुड़ाव को और मजबूत करते रहे हैं शारदा सिन्हा के गीत, जिनके भीतर कितने गहरे और कितने मार्मिक भाव भरे होते थे. उनका एक गीत है, 'केलवा के पात पर' इस गीत में एक छठ व्रती महिला से बातचीत है. एक दूसरी महिला उससे बार-बार पूछ रही है कि ये व्रत क्यों कर रही हो. ये व्रत किसके लिए फलदायी होगा. इस व्रत से किसकी पूजा होगी? इन सारे सवालों के जवाब में छठ व्रती महिला सूर्य देव की पूजा की बात बताती है और कहती है कि इससे यह व्रत उनकी संतान के लिए फलदायी होगा. यहां ध्यान देने वाली बात है कि गीत में संतान की बात है न कि सिर्फ बेटे की.
क्योंकि गीत का आखिरी अंतरा बेटी को भी व्रत का फल मिलने की बात उतने ही जोरदार तरीके से करता है, जितने जोर-शोर से इसके पहले अंतरे में बेटे के लिए जिक्र आया है.
'केलवा के पात पर उगेलन सुरुज मल झांके ऊंके
हो करेलु छठ बरतिया से झांके ऊंके
हम तोसे पूछी बरतिया ऐ बरितया से केकरा लागी
हमरो जे बेटवा पवन ऐसन बेटवा से उनके लागी
हो करेलु छठ बरतिया से उनके लागी...'
(भावः केले पत्ते की आड़ में उगे हुए सूर्यदेव छठ व्रतियों को झांक देख रहे हैं, जो उनकी पूजा कर रही हैं. लेकिन, पूजा तुम क्यों कर रही हो, किसके लिए? व्रती कहती है ये व्रत अपने पवन की तरह चंचल बेटे के लिए कर रही हों, देखो इससे उसका जीवन कैसे संवर जाएगा. सूर्यदेव छठव्रती की ये बात सुन रहे हैं और कह रहे हैं ऐसा ही होगा. ये व्रत मेरी बेटी के लिए है, जो मेरे बेटे ही की तरह हवा जैसी चंचल है, देखती जाओ, कैसे सूर्यदेव के आशीष से उसका जीवन बदलता चला जाएगा.)
अधिकांश उत्तर भारतीय दिवाली के मौके पर घर की ओर रवाना होते हैं, लेकिन दिल्ली-मुंबई, पुणे-बेंगलुरु के कार्पोरेट जगत का हिस्सा बन चुके बिहार के लोग, जिनके भीतर छठ की वेदी पर जला दीपक टिमटिमाता है वह साल भर अपनी तमाम छुट्टियां कुर्बान करते देखे जा सकते हैं, ताकि छठ के चार दिन के मौके पर कम से कम वह अपने घर, अपने परिवार और अपने लोगों के बीच रह सकें. जो इतने के बावजूद नहीं जा पाते हैं, शारदा सिन्हा के गीत उन्हें इससे रूबरू कराने की कोशिश करते हैं.
उनकी मधुर आवाज छठ का अभिन्न अंग यूं ही नहीं बन गई है, बल्कि उनके कंठ से प्रवासियों का दर्द इतनी शिद्दत से आवाज बनकर उभरा है कि कई बार ये छठ गीत सिर्फ छठ मईया की प्रार्थना में उठे स्वर नहीं लगते हैं, बल्कि ये क्रांति की आवाज से बन जाते हैं, घर लौट चलने का आह्नान बन जाते हैं. अपने निधन से कुछ महीने पहले ही उन्होंने जो छठ गीत जारी किया था, वह कुछ ऐसी हे दर्द, ऐसी ही आस का बयाना था. जिसमें एक छठी व्रती का दुख, उसका दर्द, उसकी आशा और उसकी आस्था सबकुछ समा गए थे.
“दुखवा मिटइ छठी मैया, रउआ असरा हमार” (मां छठी, हमारे दुख दूर करो, तुम हमारी आशा हो) को सुनना अपने आप में एक मांत्रिक अनुष्ठान सा लगता है.
शारदा सिन्हा और बिहार का लोक साहित्य
हालांकि शारदा सिन्हा के आर्ट को सिर्फ छठ तक सीमित कर देना नाइंसाफी होगी. उनका महत्वपूर्ण योगदान बिहारी साहित्य को भी जनमानस में लोकप्रिय बनाने में रहा है, जिसमें उन्होंने प्रमुख लेखकों और कवियों के गीत गाकर उन्हें प्रसिद्ध किया. उन्होंने लोक साहित्य को एक मजबूत पहचान दी. महेंद्र मिसिर जो कि पूरबिया बादशाह कहे जाते हैं, सिन्हा ने अपनी आवाज से उनके कई गीतों को अमर कर दिया, जैसे हमनी के रहब जानि, दुनु हो प्राणि. इस गीत में चाकरी के लिए जा रहे अपने पति से एक पत्नी पूछती है कि, तुम तो चले जा रहे हो यहां मेरा कौन ख्याल रखेगा?
मैथिली कवि विद्यापति से महादेव हलवाई तक... शारदा सिन्हा ने इनकी रचनाओं को बनाया अमर
प्रवासन के कारण अलगाव का पर आधारित यह रचनाएं आज भी बिहार में प्रासंगिक है, और शारदा सिन्हा की आवाज इसमें करुणा और सहनशीलता को खूबसूरती से कैद करती है. उन्होंने भिखारी ठाकुर (भोजपुरी के शेक्सपियर के नाम से प्रसिद्ध), महादेव हलवाई, राम सकल सिंह, नरेश सिन्हा, और विकास समस्तीपुरी जैसे कवियों की रचनाओं को, कृतियों को आवाज दी, सुरों से सजाया. उन्होंने अपनी गायकी के जरिए 14वीं शताब्दी के मैथिली कवि विद्यापति के साहित्य को भी लोकप्रिय बनाया.
एक गीत में, एक महिला अपने आंगन में कांव-कांव कर रही कौवे को बताती है कि अगर उसके पति लौट आएं, तो वह उसके चोंच को सोने से मढ़ देंगी, जो फिर से बिहार से पलायन और प्रवासन के दुख को शब्द देता है. शारदा सिन्हा को लोक कवियों की इन रचनाओं को मुख्य धारा में लाने के कारण उन्हें उनके अमर गीतों और गायकी के लिए साल 1991 में पद्म श्री और 2018 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया.
हर रस्म-हर अनुष्ठान से जुड़ीं शारदा सिन्हा
शारदा सिन्हा ने विवाह समारोहों से जुड़े हर अनुष्ठान के लिए गीत गाए. हल्दी, तिलक, शादी, लावा मेरई से लेकर दुल्हन के विदाई और द्वार छिकाई तक. इन गीतों में नवविवाहिता की टीस, उसके उमंग, उसकी लाज, उसकी खुशियां और उसके भीतर बुन रहे सपनों को भी सुर मिला है.
एक पुराने एल्बम ‘पिरितिया’ में, उन्होंने एक प्रसिद्ध समाजवादी भोजपुरी गीत गाया, जिसमें एक महिला मजदूर जमींदार को बताती है कि वह उसके लिए अब काम नहीं करेगी, क्योंकि वह अपने बेटे को स्कूल भेजता है जबकि उसका बेटा उसके भैंसों को चराता है. भोजपुरी, मैथिली, मगही में गाने के अलावा, शारदा सिन्हा ने हिंदी फिल्मों के लिए भी गाया. क्या आप करवाचौथ का वह आइक़ॉनिक गीत कभी भूल पाएंगे, 'कहे तोसे सजना' जिसने करवाचौथ के असली मर्म-धर्म-कर्म को कितनी शालीनता से समझाया था.
शारदा सिन्हा का जन्म 1 अक्टूबर, 1952 को हुआ था और बीते साल अपनी मृत्यु तक, वह लोक गीतों और संगीत के प्रति समर्पित रहीं. उनके गीत बिहारी अस्मिता को असली अर्थ देते हैं और कहते हैं शारदा सिन्हा कहीं नहीं गई हैं, वह जन्म में हैं, बधाई में हैं, प्रेम में हैं, बिछड़न में भी हैं. विवाह में हैं, दुख-दैन्य दुर्दिन में भी हैं और मृत्यु में भी हैं. बस आज जब सुपली, दौरा, बहंगी, डगरा सजाए जा रहे हैं और उन्हें छठ घाट पर ले जाने की तैयारी है तो बरबस ही शारदा सिन्हा की याद आ रही है, वह सुनाई तो दे रही हैं, दिख नहीं रहीं, काश! वह होती तों...
विकास पोरवाल