कहानी सुनना-सुनाना और कहानी को बदलकर फिर से सुनाना या किसी कहानी को बार-बार सुनाना... लगता है दुनिया में सबसे पुराना फन यही है. इसे पुराना क्यों, बल्कि पहला फन कहा जाना चाहिए. आखिर ऊपर वाले ने आदम को एक बाग में भेजा, फिर एक कहानी सुनाई और आखिरी में कहा- उस पेड़ के फल मत चखना... आदम ने ऊपर वाले की बात मानी होती तो शायद कहानियों का सिलसिला वहीं खत्म हो जाता. आदम की ही कहानी पहली और आखिरी होती, लेकिन नतीजा तो आप जानते हैं कि क्या हुआ?
आदम ने उस पेड़ के फल न सिर्फ चखे, बल्कि खाए और मनभर के खाए, खुद भी खाए, अपनी श्रीमती जी को भी खिलाए... लिहाजा कहानियां बनती चली आ रही हैं. गुनती-गुनगुनाती चली आ रही हैं, सुनाई जा रही हैं, सुनी जा रही हैं. फिर तो लिखी भी जानें लगीं और अब तो आलम ये है कि दास्तानों में बदल दी गईं हैं, फिर देखिए कि कैसी महफिल सजी है.
एक मंच है, धीमी रोशनी में चमक रहा है. तिस पर सफैद चादर पड़ी है, दो मसनदें रखी हैं. इधर-उधर शम्मा जल रही है, चांदी के से चमकते कटोरों में पानी भरा है. रोशनी थोड़ी तेज होती है, मंच पर दो शख्स नजर आते हैं और आते ही तख्त पर बैठ जाते हैं. सामने हैं ख्वातीन और हजरात... सिलसिला शुरू होता है, दास्तान शुरू होती है, जिसे नाम दिया गया है, दास्तान-ए-रागदरबारी.
दास्तान-ए- रागदरबारी
दास्तान-ए-राग दरबारी असल में श्रीलाल शुक्ल के लिखे मशहूर हास्य उपन्यास राग दरबारी का ही दस्तान में बदला हुआ नया चेहरा है. ये किताब जो आधुनिक भारत में लिखी गई सबसे महान व्यंग्य रचनाओं में से एक मानी जाती है, जिसे लगभग पचास साल पहले प्रकाशित किया गया था और इसे तुरंत एक क्लासिक के रूप में मान्यता दी गई थी, क्योंकि इसमें गांव की जिंदगी की खुश्बू अपने सबसे असली और ताजा रूप में बसी हुई है. इस किताब में गंवई जिंदगी, उनकी संस्कृति और उनकी खालिस राजनीति का सबसे क्रूर और विद्रूप चेहरा इसमें उतारा गया है. जो हंसाता है, गुदगुदाता है और इसी बहाने झिंझोड़ डालता है.
इसकी चतुरता, हास्य और ग्रामीण जीवन की दमघोंटू अवस्था के सभी रूढ़ियों और पवित्रताओं को ध्वस्त करने की क्षमता के लिए यह उपन्यास अद्वितीय बना हुआ है. यह लगातार प्रकाशित रहा है और पांच लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं, इसके अलावा इसे एक टेलीविजन धारावाहिक के रूप में भी बदला गया. राग दरबारी का हिंदी साहित्यिक संस्कृति पर व्यापक प्रभाव माना जाता है, लेकिन इसके लोकप्रिय संस्कृति पर भी उल्लेखनीय प्रभाव है, इसी असर को और बढ़ाता है 'दास्तान-ए-राग दरबारी'
लेखक, कलाकार और निर्देशक महमूद फारूकी जिन्होंने दास्तानगोई (16वीं सदी की उर्दू कहानी सुनाने की कला) को फिर से जिंदा किया, ने हाल ही में दास्तान-ए-राग दरबारी के इस नए कलेवर को मंडी हाउस स्थित LTG ऑडिटोरियम पेश किया और लोगों को अपना मुरीद बना लिया. फारुकी पहले भी इस दास्तान को पेश कर चुके हैं, लेकिन सुनने वाले कद्रदान उनके इस फन के ऐसे दीवाने हैं कि हर बार उन्हें ये प्रस्तुति नई सी ही लगती है और वह इसे बार-बार सुनने आते हैं.
साहित्य अकादमी से पुरस्कार से सम्मानित है उपन्यास
श्रीलाल शुक्ला के 1968 के मशहूर उपन्यास का रूपांतरण है, जो साहित्य अकादमी पुरस्कार जीत चुका है. लोगों ने इसे बड़े ही ध्यान से सुना और हंसते-खिलखिलाते हुए उनका समय बीता. जब फारूकी और दारैन शाहिद जैसे दास्तनगो ने शिवपालगंज नाम के काल्पनिक गांव की कहानी के जरिए उस वक्त की राजनीति और समाज पर तंज कसा तो इसने सुनने वालों को लोटपोट कर दिया. दास्तानगोई ने लोगों को बांधे रखा, क्योंकि इसमें नागार्जुन, केदारनाथ सिंह, प्लेटो और निकोलो मैकियावेली जैसे लोगों की हास्यभरी कविताएं और विचार भी शामिल थे. इस कहानी में समाज की हालत पर सच्चाई और हंसी-मजाक से कटाक्ष किया गया, जो भ्रष्ट अफसरों और खराब शिक्षा व्यवस्था के चक्कर को दिखाता है. ये आज के जमाने में भी सही बैठता है और इसके उदाहरण और प्रसंग आज भी प्रासंगिक नजर आते हैं.
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