इस तकनीक से गमले में उगाएं गन्ना, जानें क्या है खास मियावाकी विधि

ईख की बुवाई साल में 2 बार की जा सकती है. मिड फरवरी से अप्रैल के पहले हफ्ते तक. इसे सामान्य बुवाई कहते हैं. दूसरा समय 10 सितंबर से 10 अक्टूबर तक है. इसे ऑटम बुवाई कहते हैं. ईख की बुवाई के लिए फरवरी अंत से मार्च अंत तक का समय सबसे उत्तम रहता है. लेकिन मियावाकी विधि से किसी भी मौसम में गन्ना उगाया जा सकता है.

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गमले में कैसा उगाएं गन्ना गमले में कैसा उगाएं गन्ना

मृगांक शेखर

  • नई दिल्ली,
  • 25 दिसंबर 2023,
  • अपडेटेड 7:33 AM IST

मैं गमलों में जंगल उगाना चाहता था, लेकिन महज तने, पत्तों और झाड़ियों वाला नहीं...मैं फलों का जंगल उगाना चाहता था. फलों का जंगल, बोले तो - मेरे हिसाब से जंगल में मंगल. और ये काम मैं तभी से करना चाहता था जब मुझे जापानी वैज्ञानिक अकीरा मियावाकी के काम के बारे में पता चला. जब पहली बार मुझे मालूम हुआ कि 1970 में अस्तित्व में आई मियावाकी विधि से जंगल यानी कुदरती वन भी उगाये जा सकते हैं, तो काफी हैरानी हुई थी. हैरानी इसलिए भी क्योंकि इंसान के ऐसे ज्यादातर काम तो कुदरत के लिए नुकसानदेह ही होते हैं. पहाड़ों और जंगलों में जो हो रहा है, सब देख ही रहे हैं.

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बाग-बगीचे और वनों में बुनियादी फर्क ये होता है कि वन पूरी तरह आत्मनिर्भर होते हैं. न तो उनको मौसम की परवाह होती है, न ही उन पर कीट-पतंगों का ही कोई असर होता है. गमले में पलने वाले पौधों के लिए तो कीटों के साथ मौसम भी अक्सर चुनौती बना रहता है. जिसे केमिकल के इस्तेमाल से परहेज हो उनके लिए तो कीटों के कहर से बच पाना बहुत ही मुश्किल होता है.

फल तो गमलों में लोग उगाते ही रहते हैं. हर नर्सरी में फलदार पौधे मिल जाते हैं. बेमौसम भी आप जाएं तो नर्सरी वाले आम का पौधा सामने रख देंगे जिनमें आपको कैरी लगे हुए मिलेंगे. घर लाकर गमलों में लगाने के बाद कुछ दिनों तक वे फल बड़े भी हो जाते हैं, लेकिन फिर टूट कर गिर जाते हैं, और एक बार गिर गए तो दोबारा नहीं आने वाले. मेरे साथ ऐसा कई बार हुआ है और इस मामले में मैं कोई अकेला तो हूं नहीं, ये बात अब मैं अच्छी तरह समझ चुका हूं. 

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अकीरा मियावाकी के प्रयोगों से प्रेरित होकर मैं गमलों में साधारण वन की जगह फलों का वन विकसित करना चाहता था. बाग-बगीचे हम लगाते हैं, लेकिन वन और जंगल कुदरती विकास प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं - बाद में भले ही रख रखाव की ज्यादा जरूरत न पड़ती हो, लेकिन शुरू में तो अच्छी देखभाल करनी पड़ती है. 

मियावाकी विधि को लेकर ताज्जुब तो तब हुआ जब मालूम पड़ा कि इंसान के उगाये हुए वन पूरी तरह आत्मनिर्भर होते हैं. मतलब, कुदरत के कहर से बचे रहें तो मौसम की मार से भी कोई फर्क नहीं पड़ता. 

मेरे लिए इस तरीके में एक ही पेच फंस रहा था, मैं जमीन की जगह गमलों में वन उगाना चाहता था. जमीन पर तो संभव भी है, गमले में तो ये काम असंभव जैसा है. एक बार चीजें ऑटोमेशन मोड में चली जायें तो जमीन से पौधों को जरूरत की सभी चीजें मिल जाती हैं, लेकिन गमले में? गमले का तो जमीन से कोई कनेक्शन ही नहीं होता. खाद-पानी से लेकर हर चीज के लिए निर्भरता बनी रहती है. ज्यादा दिन हो जाने पर रीपॉटिंग भी करनी होती है. 

मियावाकी विधि के बारे में और बातें जानने से पहले यहां मुद्दे की बात ये है कि गन्ने में मुझे ऐसी कौन सी खासियत नजर आई जो बाकी पौधों में नहीं देखने को मिल रही थी. चलिये ये भी जान लेते हैं.

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गन्ना ही क्यों? 
ये एक अहम सवाल है कि गमलों में फल उगाने थे तो गन्ना लगाने का क्या मतलब हुआ? वास्तव में तकनीकी रूप से गन्ना फलदार वृक्ष की कैटेगरी में तो आता नहीं. भले ही गन्ना मिठास से भरपूर हो, लेकिन वो तो ग्रास यानी वनस्पति जगत की घास बिरादरी से आता है.

सवाल का जवाब भी यही है. ये घास की मिठास ही है जो मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रही थी. गन्ना के घास होने से ही ऐसा भरोसा बना कि ये मीठे जंगल के लिए मजबूत नींव खड़ा कर सकता था, और हुआ भी ऐसा ही है. 

लेकिन, ‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः’ वाला ही हाल हुआ. शुरू में मैं छोटे से गमले में गन्ना लगाने की कोशिश कर रहा था. कुछ तो पहले ही सड़ गए, कुछ उगे तो दुबले-पतले और बड़े बेजान से. पीले पीले. बहुत सारी गांठों वाले. 

कुछ दिन बाद मैंने 18 इंच के गमले में लगाकर देखा, लेकिन मनमाफिक रिजल्ट नहीं मिला. जब मुझे करीब ढाई फीट का लंबा चौड़ा गमला मिला तब जाकर लगा मिशन सफल हो सकता है. 

बड़े वाले गमले में मैंने 2015 में गन्ने का बीज लगाया था. ये बीज छोटे वाले गमले से मिला था और उससे उगे मझोले वाले पौधे से. ये, असल में, मियावाकी विधि की एक जरूरी शर्त होती है. जिस जगह वन विकसित होना है, बीज उसी वातावरण में तैयार होना चाहिए और ये भी बता दूं कि तब से मैंने अपने गमले में कभी नया बीज नहीं लगाया है. आठ साल पहले जो जड़ें विकसित हुई थीं, तने उन्हीं से अब भी निकल रहे हैं. 

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जहां तक पहले साल की बात है, पौधे ठीक ठाक हुए थे. मोटे भी और गांठें भी स्टैंडर्ड दूरी पर बनी थीं. दूसरे साल थोड़े पतले और गांठों के बीच की दूरी अपेक्षाकृत कम हो गई थी. बाद के दो साल गांठें बहुत ज्यादा होने लगीं. मुझे तो बस देखना था, आगे आगे होता है क्या? 

कुछ अलग प्रयोग भी करते रहे. मैंने गन्ने वाले गमले में खाद डालने के बजाय सीधे वह चीजें डालीं जिनसे मैं घर पर ऑर्गेनिक खाद बनाता हूं. सब्जियों और फलों के छिलके. सूखे और खराब हो चुके तरह-तरह के अनाज. अनाज और आलू के छिलके तो उग आते थे, लेकिन बाकी वहीं सड़ गल जाते रहे. बाकी पौधे ये नहीं सह पाते हैं, अक्सर सूख जाते हैं या सड़ जाते हैं. गन्ना बेअसर रहा. खड़ा रहा और टिका भी रहा. जैसे मियावाकी नहीं बल्कि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की कविता ‘मैंने कहा पेड़’ का किरदार हो.

एक्सपेरिमेंट के क्रम में कई बार मैं लहसुन, प्याज की जड़ें और धनिया भी डालकर छोड़ देता था. वे सभी पौधों के रूप में उग आते रहे और मैं उनका इस्तेमाल कर लेता. कई बार आलू भी जमीन में हुए थे, एक-दो बार मूंगफली भी - लेकिन बहुत कम मात्रा में. अलग से आलू लगाने पर मिलने वाले रिजल्ट की तुलना में. 

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फलों के गूदे और छिलकों के साथ जो बीज होते थे, वे भी कुछ समय बाद उग आते. गन्ने के साथ मैंने एक बार केले का पौधा भी लगा दिया था और तुलसी भी. केला तो ज्यादा नहीं चल पाया, तुलसी का पौधा काफी दिनों तक कंधे से कंधा मिला कर गमले में डटा रहा.

ठीक बगल वाले गमले में करी पत्ता लगा था. उसके बीज सूख कर गन्ने वाले गमले में गिरे और बहुत सारे करी पत्ते उग आए. उसी में मैंने गिलोय भी लगा दिया है. करी पत्ता और गिलोय फिलहाल मैदान में बने हुए हैं. 

कुछ दिनों बाद पड़ोसी पौधे साथ छोड़ देते रहे, लेकिन गन्ना अपनी जगह बना हुआ है. एक दो बार मैंने कुछ गन्ने काटे होंगे, वरना वे तभी हटते हैं जब सूख जाते हैं या सड़ जाते हैं - और नयी कोंपलें अपने आप आती रहती हैं. मैंने कुछ और गमलों में बड़े वाले गमले में तैयार गन्ने के बीज लगाया है - और वे भी अपने पेरेंट्स और पुरखों की तरह उगने लगे हैं. 

क्या है मियावाकी तकनीक?
मियावाकी मेथड से जंगल विकसित करने के लिए उसी जमीन पर तैयार बीज इसलिए जरूरी होते हैं, क्योंकि बीज का निर्माण वहां की मिट्टी और पूरे इकोसिस्टम के अनुरूप हुआ रहेगा तो आने वाले पौधे के लिए सर्वाइवल आसान होगा. वे तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों से मुकाबला करने में सक्षम होंगे.

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बारिश तो वैसे भी पादप जगत के लिए बहार लेकर आती है. मियावाकी विधि से उगाये जाने वाले पौधों के लिए सबसे बढ़िया समय मॉनसून सीजन ही होता है. नियमित रूप से पानी मिलने और सुहाने मौसम में पौधों की जड़ें भी अच्छी तरह निकल आती हैं, और ज्यादा देखभाल की भी जरूरत नहीं पड़ती. जमीन ही नहीं, गमलों के मामले में भी यही बात लागू होती है.

जमीन के लिए तो मियावाकी तकनीक इतनी कारगर है कि बहुत कम समय में काफी घना जंगल लगाया जा सकता है. ऐसा जंगल गांव शहर कहीं भी तैयार किया जा सकता है - यहां तक कि बंजर जमीन पर भी.  

देखा जाए तो गमले भी बंजर जमीन की ही तरह होते हैं. खाद-पानी डाल देने के बाद भले ही वे उपजाऊ माहौल दे देते हों, लेकिन कितने दिनों तक. अगर सप्लाई रुकी तो गमलों की दुनिया में फिर से बंजर की घुसपैठ होने में देर नहीं लगती.
 
मियावाकी विधि की सबसे बड़ी खासियत ये होती है कि ये तरीका अपनाने पर पौधे दस गुना तेजी से बढ़ते हैं, और कुदरती वन की तुलना में तीस गुना तक घने हो सकते हैं. 

अकीरा मियावकी के ये तकनीक विकसित करने के पीछे पहला मकसद तो यही था कि कैसे जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर कम से कम वक्त में घने से घना जंगल खड़ा किया जा सके.

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टीवी पर प्रसारित शाहरुख खान वाले टेड टॉक्स में शुभेंदु शर्मा ने मियावाकी विधि के बारे में बड़े ही सहज तरीके से समझाया था, ‘छह गाड़ियों के पार्किंग स्पेस में, एक आईफोन भर के खर्चे में तीन सौ पौधों का एक छोटा जंगल उगाया जा सकता है’ - और दस साल बाद कोई ये नहीं कह सकता कि वो वन इंसानी दिमाग में उपजे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कमाल है.

साल में दो बार हो सकती है ईख की बुवाई
बता दें, ईख की बुवाई साल में 2 बार की जा सकती है. मिड फरवरी से अप्रैल के पहले हफ्ते तक. इसे सामान्य बुवाई कहते हैं. दूसरा समय 10 सितंबर से 10 अक्टूबर तक है. इसे ऑटम बुवाई कहते हैं. ईख की बुवाई के लिए फरवरी अंत से मार्च अंत तक का समय सबसे उत्तम रहता है. लेकिन मियावाकी विधि से किसी भी मौसम में गन्ना उगाया जा सकता है.

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