कोई भी काम शुरू करने पर मन में हवाई किले बनने लगते हैं, लेकिन थोड़ी दूर चलते ही मालूम होता है कि अनेक मुश्किलों से जूझना ही है. उन मुश्किलों से निजात पाने के तरीके भी ऐन मौके पर ही खोजने होते हैं. फील्ड में उतरने पर किताबी ज्ञान हमेशा काम नहीं आते. पहले से मिली जानकारी चुनौतियों से निपटने में मददगार जरूर होती है.
एक दिन ऑफिस में लंच कर रहा था. सामने बैठे मेरे सहकर्मी ने जब अपना टिफिन खोला तो बड़ी ही अच्छी सुगंध आई. कोई हरी सब्जी थी. टेस्ट करने के लिए बोले, तो मैंने ये कहते हुए मना कर दिया कि अपना खा लूं वही बहुत है. मेरे पास खाना ज्यादा था और उस दिन शेयर करने के लिए कोई और था भी नहीं.
‘ये जो सब्जी आप देख रहे हैं, मेरे छत पर उगी हुई है.’
वो तोरई की सब्जी थी. बड़ी ही स्वादिष्ट. सिर्फ हल्दी और तेल में बनी थी, लेकिन जबरदस्त. स्वाद में गजब की मिठास थी. किसी नमकीन चीज में मिठास! बताने की नहीं, ये तो सिर्फ महसूस करने की चीज होती है.
अब मेरी दिलचस्पी ये जानने में रही कि क्या छत पर इतनी सब्जी उगाई जा सकती है कि बाजार से नहीं खरीदनी पड़े. वो बोले, ऐसा हो सकता है लेकिन बहुत मेहनत का काम है.
दो-तीन दिन बाद ही वीकेंड पर हम किसी के घर डिनर पर गए थे. वहां भी कुछ ऐसा ही वाकया हुआ. मेरे मित्र ने बताया कि जो भुजिया परोसी गई है, वो करेले घर पर ही उगे हुए हैं.
जब आप किसी चीज के बारे में सोचते हैं, तो आपके आस-पास वैसी ही चीजें नजर आने लगती हैं. ऐसे वाकये होते हैं जिनसे आपका सीधा कोई वास्ता नहीं होता, बल्कि कोई और ही प्रायोजित कर रहा होता है. खासतौर पर आपके लिए ही. अभी खाना खत्म भी नहीं हुआ था कि किसी ने व्हाट्सऐप पर होम फार्मिंग से जुड़ा एक वीडियो शेयर कर दिया. अब इसे लॉ-ऑफ-अट्रैक्शन वाली थ्योरी से न जोड़ें तो क्या करें!
दिलचस्प है जिमीकंद को जमीन के भीतर से निकालकर गमले तक पहुंचाने की ये कहानी
हैरानी तो तब हुई जब करेले की कहानी सुनने को मिली. मालूम हुआ कि करेले तो किसी ने बोए ही नहीं थे, बल्कि सब्जी बनाते वक्त पके हुए बीजों को बाहर फेंक दिया था. वे अपनेआप उग आये थे. गांव में मेरे घर के बाहर एक अमरूद का पेड़ था, वो भी किसी ने बोया नहीं था. किसी ने पड़ताल की तो पाया कि कोई कौआ बीट कर दिया था और पौधा उग आया, बच गया इसलिए पेड़ बन गया. गांवों में तो ऐसे बहुत सारे किस्से सुनने को मिलते हैं.
तोरई और करेले उगाये जाने के तरीके में एक बुनियादी फर्क था. तोरई छत पर गमले में पैदा हुई थी, जबकि करेले घर के बाहर की जमीन के छोटे से टुकड़े पर.
गमले और जमीन में कितना बड़ा फर्क होता है, मुझे तब पता चला एक माली से मुलाकात हुई. माली ने जब देखा कि सब्जियां उगाने के लिए जमीन तो है ही नहीं, तो फौरन ही हथियार डाल दिये. बोला, बाबूजी जमीन पर चाहे जितनी सब्जियां कहो उगा देंगे, लेकिन गमले में मेरे बस की बात नहीं है.
जब मैंने अर्बन खेती करना शुरू किया
मैंने भी अर्बन खेती करेले से ही शुरू करने का फैसला किया. बीज के रूप में घर पर पड़े वे करेले लिए जो खराब हो रहे थे. बीज निकाल कर धोये और गमले में लगा दिये.
एक-दो गमले तो घरों में होते ही हैं. नर्सरी से हम लाते हैं, फूल और पत्तियां सूख जाती हैं, गमले पड़े रहते हैं. मिट्टी सूख कर काफी कड़ी हो गई थी. हाथ से तोड़ना मुश्किल हो रहा था. मेरे में इतना धैर्य तो था नहीं की पानी डालकर मिट्टी के गीले होने का इंतजार करें. इसलिए मिक्सी में डालकर पीस दी. मिट्टी में कंकड़ भी थे. पुरानी मिक्सी कम वॉट की थी. सिर्फ उसे ही इस्तेमाल करने की घर में अनुमति भी मिली थी. शोर ज्यादा होने लगा तो जल्दी से बंद भी कर दिया. तब तक टुकड़े काम भर के हो गए थे.
जब भी कोई नया काम शुरू करता है तो हर बातचीत में चर्चा भी होने लगती है. चर्चा होगी… तो सुझाव भी मिलेंगे… और हमारे देश में सुझाव तो थोक भाव में मिलते हैं, और अक्सर मुफ्त में.
सलाह मिलती गई और मैं व्यावहारिक सुझावों पर अमल भी करता गया. किसी ने बताया कि प्याज की जड़ काट कर लगा दूं. किसी ने करेले की ही तरह घर पर पड़े टमाटर के बीज लगाने का सुझाव दिया. धनिया, लहसुन से लेकर पुदीना और मिर्ची तक के सुझाव मिले. कुछ नर्सरी से लाए तो कुछ गिफ्ट में भी मिलने लगे.
गांव के मित्र उड़ाते थे मेरे होम फार्मिंग का मजाक
गांव के मित्र शुरू में मेरी होम फार्मिंग को खिलवाड़ मानते थे. साफ-साफ कहें तो मजाक ही उड़ाते थे. बाद में उनका नजरिया जरूर बदल गया. अक्सर ऐसे ही ताने सुनने को मिलते कि मैं हमेशा कोई न कोई उटपटांग शौक पाल लेता हूं. घर में भी और बाहर भी.
गुजरते वक्त के साथ खट्टे-मीठे अनुभव भी खूब हुए. फसल अच्छी होती तो खुशी का ठिकाना नहीं रहता. खराब हुई तो मन बहुत भारी हो जाता. मैं मित्रों को ये भी नहीं समझा पाता कि इंसान का मन एक जैसा ही होता है. चाहे वो गांव का किसान या फिर अर्बन फार्मर, बहुत फर्क नहीं है. अपनी फसलों से, पौधों से, फूल-पौधों से दोनों को एक जैसा ही लगाव होता है.
टमाटर और करेले की कहानी भी कहीं खुशी कहीं गम वाली ही रही. टमाटर में इतने फल लगे कि पूरे चार महीने तक हमें टमाटर खरीदने की जरूरत नहीं पड़ी लेकिन करेले के साथ बहुत बड़ी ट्रेजेडी हो गई. दुखांत.
करेले का पौधा काफी तेजी से बढ़ रहा था. मैंने उसके लिए सपोर्ट सिस्टम भी बना दिया था. ताकि जितना चाहे फैल जाए. खूब सारे फूल आए. फूल कुछ ही दिन में फल में भी तब्दील हो गए. देखते ही देखते ढेर सारे करेले हो गए थे लेकिन बड़े नहीं छोटे छोटे. एक इंच से तीन इंच तक के.
घर में तय हुआ कि एक बार छोटे करेले फ्राई करते हैं. बगैर काटे. देखते हैं स्वाद कैसा होता है. वीकेंड पर बनाने का फैसला हुआ, और ये भी कि उन दोनों लोगों को भी बुला लिया जाएगा, जिनकी प्रेरणा से ये प्रयोजन शुरू हुआ था.
एक गमले में अरवी के पत्ते भी लगा रखे थे. पहली बार तो इतने पत्ते निकले कि तीन-चार लोगों के लिए पर्याप्त थे. कुछ दिन बाद फिर से खाने का मन हुआ तो कम पड़ रहे थे.
मैंने सोचा बीच के लेयर में तोरई के पत्ते मिला देते हैं. पत्ते तोड़ने गये तो एक दीवार पर करेले के चमकते पत्ते नजर आये. तोरई के साथ मैंने थोड़े करेले के पत्ते भी मिला दिये. तब ये भी ध्यान नहीं रहा कि करेले के पत्ते भी फल की तरह कड़वे हो सकते हैं.
अरवी और तोरई के साथ करेले के पत्ते मिलाकर गिरवंछ तैयार किया गया. स्टीमर से निकल कर फ्राई हुए तो इतने क्रिस्पी और सुंदर लग रहे थे कि मुंह में पानी आ गया.
कहां पत्ते कम पड़ रहे थे,और कहां इतने सारे बन गये थे कि पकौड़े की तरह चाय के साथ खाने का फैसला हुआ. अमूमन गिरवंछ रोटी या चावल के साथ खाते हैं, किसी भी सब्जी की तरह ही.
पहली बार मुंह में पड़ा तो कुछ समझ में नहीं आया. लगा मुंह का स्वाद ही कड़वा होगा, क्योंकि पकौड़े तो सही बने थे. एक बार और कोशिश हुई, लेकिन तीसरी बार की हिम्मत नहीं बची थी - और इस तरह पता चला करेले के पत्ते तो फल से भी ज्यादा कड़वे होते हैं.
आखिरकार वीकेंड भी आ ही गया. शाम तक सब कुछ ठीक था, लेकिन वो सुबह बड़ी भयावह थी. सिर्फ करेलों की कौन कहे एक पत्ता तक नहीं बचा था - पूरी फसल पर काली परत चढ़ गई थी.
स्वाद के सपनों का टूट जाना कैसा होता है, ये पहली बार समझ में आया. कैसा महसूस हो रहा था, सिर्फ वही समझ सकता है, जिसने फसल उगाई हो. ये वाकया उस दिन भी याद आ गया जब प्रभाकर मिश्र की किताब किसान बनाम सरकार पढ़ रहा था…पहली ही लाइन थी - ‘किसान भी इंसान होता है.’
मृगांक शेखर