पौराणिक कथाओं में शुक्राचार्य की पहचान असुरों के गुरु के रूप में है. इसके बावजूद शुक्राचार्य सिर्फ नकारात्मक छवि वाले व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि उनका स्थान ज्योतिष, नक्षत्र विद्या और कुछ जगहों पर आयुर्वेद में भी है. असल में शुक्राचार्य मृत संजीवनी विद्या के जानकार थे. महर्षि भृगु के पुत्र के रूप में जन्म लेने वाले शुक्राचार्य को भार्गव कहा जाता है. उनके बचपन का नाम उषना था. इसके अलावा काव्य शास्त्र में रुचि के कारण ही वह कवि भी कहलाए. शुक्राचार्य को एकाक्ष भी कहा जाता है, क्योंकि उनकी एक आंख फूट गई थी. एक आंख के कारण भी शुक्राचार्य की छवि नकारात्मक रही है.
त्रिदेव भी रहे हैं शुक्राचार्य की महानता के कायल
शुक्राचार्य को सिर्फ असुर गुरु समझकर किसी असुर जैसा नहीं समझना चाहिए, बल्कि उनकी महानता के कायल त्रिदेव भी रहे हैं. वह परम शिवभक्त थे और ब्राह्नण होने के कारण ब्रह्नविद्या के भी उपासक थे. सिर्फ विष्णुजी से उनका द्वेष था और वह शिवत्व के अनुयायी थे. शुक्राचार्य ने शुक्र नीति की रचना की थी. वह रसायनों के भी ज्ञाता थे और औषधियों के ज्ञानी भी थे. शुक्राचार्य ने ही यह तय किया था कि मनुष्यों को कैसा आचरण करना चाहिए. राजा के किस तरह के कर्तव्य होने चाहिए. उनका मानना था कि सही अवसर मिले तो असुर भी देव हो सकते हैं, लेकिन असल में हर तरह का अवसर सिर्फ एक संघर्ष में बदल जाता था जो देव-दानवों के एक बड़े युद्ध के तौर पर सामने आता था.
शुक्रनीति के प्रणेता हैं शुक्राचार्य
शुक्रनीति या शुक्रनीतिसार एक प्रसिद्ध नीतिग्रन्थ है. शुक्रनीति में पांच अध्याय और 2000 श्लोक माने जाते हैं, लेकिन आज यह ग्रंथ अपने मूल स्वरूप में लुप्त है. इसके चार अध्यायों में से प्रथम अध्याय में राजा, उसके महत्व और कर्तव्य, सामाजिक व्यवस्था, मंत्री और युवराज संबंधी विषयों का विवेचन किया गया है. कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र‘ एवं मैकियावली के ‘द प्रिंस‘ के बराबर ही शुक्र की शुक्रनीति में भी राजा को शासन करना सिखाया गया है. इस प्रकार इसमें राजनीति का सैद्धांतिक नहीं बल्कि व्यावहारिक पक्ष अधिक महत्वपूर्ण है. शुक्रचार्य के अनुसार, ‘‘सभी आशंकाओं को त्यागकर राजा को ऐसी नीति का पालन करना चाहिए, जिससे शत्रु को मारा जा सके अर्थात् विजय प्राप्त हो".
राज्य व्यवस्था और दंडविधान बनाने वाले महर्षि
शुक्रनीति में राज्य व्यवस्था, दंड और न्याय विधान, सामाजिक दायित्व का विस्तार से वर्णन है. इसलिए शुक्राचार्य को किसी राक्षसी प्रवृत्ति का व्यक्ति समझने से पहले उनके चरित्र के आयाम को समझना जरूरी है. वह एक महर्षि, वैज्ञानिक, समाज सुधारक भी रहे हैं, जिन्हें पौराणिक व्याख्यानों में वह सम्मान नहीं मिल पाता है जिसके वह हकदार हैं.
ऐसे मिला था शुक्राचार्य नाम
शुक्राचार्य को उनका शुक्राचार्य नाम कैसे मिला इसकी भी एक अलग कथा है. एक बार असुरों और भगवान शिव के गणों के बीच युद्ध हुआ. नंदी शिवसेना के सेनापति थे. वह भगवान शिव के पास सहायता के लिए गए. जब भगवान शिव को संजीवनी मंत्र के दुरुपयोग का पता चला, तो उन्होंने शुक्राचार्य को निगल लिया और उन्हें अपने पेट के अंदर रख लिया. असुर गुरु भगवान शिव के पेट में हजारों वर्षों तक रहे और बाहर निकलने का रास्ता खोजते रहे, लेकिन वह विफल रहा. तब उन्होंने पेट के भीतर ही समाधि लगा ली और शिवजी की तपस्या करने लगे.
भगवान शिव ने ऋषि की भक्ति देखकर उन्हें क्षमा किया और उन्हें वीर्य (शुक्र) के रूप में बाहर निकाल दिया. इसी कारण, महर्षि का नाम शुक्राचार्य पड़ा. चूंकि ऋषि शिव के जननांगों से बाहर आए, इसलिए वे भगवान शिव के औरस पुत्र भी कहलाए. यहां यह बता देना जरूरी है कि भृगु के पुत्र का नाम उषना ही था, जिन्हें शिवजी से संबंधित इस घटना के बाद ही शुक्राचार्य का नाम मिला.