जब कैलेंडर समय को अंकों में नहीं बांटते थे, तब मानव जाति दुनिया के बदलते रूप को देखकर पता करती थी कि नया साल आ गया है. नया साल किसी तय तारीख या आदेश से नहीं, प्रमाण से आता था. नया साल तब शुरू होता था जब बीज फिर से बोए जा सकते थे, जब बाढ़ का पानी हट जाता था और वहां उपजाऊ मिट्टी दिखती थी, जब सूर्य अपनी सबसे नीची कक्षा तक पहुंचकर धीरे-धीरे लौटने लगता था.
सिंधु घाटी में, नील नदी के किनारे, मेसोपोटामिया के मैदानों में, लोग प्रकृति की लिपि में समय पढ़ते थे. मानसून की पहली बूंदें, जौ के पककर सुनहरा होने का समय, विषुव (साल के दो मौके जब दिन और रात, दोनों बराबर होते हैं) पर छाया और प्रकाश का सटीक संतुलन- यही असली संकेत थे कि नया साल आ गया है.
नए साल के शुरू होने का अर्थ था कि धरती अब तैयार है, जीवन दोबारा गति पकड़ रहा है. समय अमूर्त नहीं था, खेतों में देखा-परखा जाता था.
प्रारंभिक रोमनों के लिए साल दस महीनों का था और इसकी शुरुआत मार्च से होती थी- जब मार्स जागता था, सर्दी कम हो जाती थी और खेती और युद्ध दोनों की शुरुआत संभव होती थी. वसंत का अर्थ था बोवाई, निर्माण और साम्राज्य विस्तार की प्लानिंग. प्रकृति और राज्य की शक्ति एक ही ताल में धड़कती थीं.
आज भी उनकी यह गणना हमारे कैलेंडर में दिखती है. सितंबर, अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर- ये सातवां, आठवां, नौवां और दसवां महीना थे और उन दिनों से चलन में हैं जब मार्च पहला महीना था.
लगभग 700 ईसा पूर्व, दार्शनिक-राजा नूमा पॉम्पिलियस ने समय को नया रूप दिया. उन्होंने सर्दियों की रिक्तता को जनवरी और फरवरी से भर दिया और इस तरह साल की शुरुआत को वसंत से हटा दिया. जानुस के नाम पर रखा गया जनवरी नए साल का नया द्वार बना.
यह रोम का पहला बड़ा काल-निर्णय था: समय को प्रकृति के हाथों से लेकर साम्राज्य के आदेश में बदल दिया गया.
रोमन प्रार्थनाओं में जानुस को सबसे पहले याद किया जाता है यहां तक कि जुपिटर से भी पहले. कोई अनुष्ठान, कोई बड़ा काम, कोई यात्रा उसे याद किए बिना शुरू नहीं होती थी.
वह मार्ग खोलता था. वह जानुस पाटर था-पिता जानुस-वह देवता जिसे पहले सम्मान देना जरूरी था, क्योंकि आरंभ के बिना आगे कुछ भी नहीं. (यह भारतीय आस्था से काफी मेल खाता है जिसमें किसी भी शुभ काम या आपदा के समय ईश्वर को याद किया जाता है, उनसे मदद मांगी जाती है और माना जाता है कि वही आरंभ के रक्षक हैं.
जानुस के दो चेहरे थे- एक जो पीछे की ओर देखता था और दूसरा जो भविष्य की संभावनाओं की ओर. वह आरंभ के देवथा था, शुरुआत के रक्षक- वह इस सच्चाई का प्रतीक था कि हर नया आरंभ किसी अंत के साथ जुड़ा है, हर एंट्री का एक एग्जिट भी है.
नए साल को जानुस का प्रतीक बताना सुंदर था: नया साल यानी स्मृति और संभावना के बीच मानवता का द्वार. लेकिन यहां एक निर्णायक बदलाव हुआ- रूपक आदेश बन गया, प्रतीक संरचना में ढल गया.
1 जनवरी खगोलीय नहीं, आकांक्षात्मक थी, प्राकृतिक नहीं, वैचारिक थी.
153 ईसा पूर्व तक व्यवहारिकता ने काव्य और श्रद्धा को पीछे छोड़ दिया. रोम ने 1 जनवरी को नागरिक वर्ष की शुरुआत तय किया ताकि काउंसिल जल्दी पद संभालें, सैन्य तैनाती प्रशासनिक चक्रों से मेल खाए, टैक्स व्यवस्था सुव्यवस्थित हो.
फिर 45 ईसा पूर्व में जूलियस सीजर के जूलियन कैलेंडर ने इसे स्टैंडर्ड रूप दिया और 1582 में पोप ग्रेगरी तेरहवें के इसे गणितीय रूप से दुरुस्त किया.
जब यूरोपीय साम्राज्य महाद्वीपों में फैले, वे यह विरासत भी साथ ले गए जिसके बाद एक सभ्यता की प्रशासनिक सुविधा मानवता का कथित सार्वभौमिक सत्य बन गई. 1 जनवरी की खोज नहीं हुई. उसे निर्यात किया गया.
रोम के इस निर्यात से पहले, सभ्यताएं सूर्य की चाल पर आधारित अपनी-अपनी कैलकुलेशन करती थीं. यह पुरानी समझ आज भी पारंपरिक कैलेंडरों में जीवित है. भारत में तो एक साल में कई नए साल होते हैं जैसे-
- बैसाखी पंजाब में फसल कटाई के साथ आती है जब किसान फसलों की कटाई के बाद आराम करते हैं और नई फसल का जश्न मनाते हैं.
-उगादी और गुड़ी पड़वा वसंत के पुनर्जन्म का संकेत देते हैं, जब धरती खुद नई लगती है.
-पुथांडु सूर्य के मेष में प्रवेश के अवसर पर मनाया जाता है जो खगोलीय सटीकता का उत्सव है.
-चैत्र प्रतिपदा चंद्रमा की लय और सौर निश्चितता का संतुलन साधती है.
-ओणम केरल के कृषि चक्र का सम्मान करता है, जिसमें लोग धरती के प्रति कृतज्ञता जताते हुए उत्सव मनाते हैं.
ये सब एक पुराने विचार को दिखाते हैं: समय तब बदलता है जब जीवन करवट लेता है, प्रशासनिक सुविधा से वक्त नहीं बदलता. साल तब मुड़ता है जब दुनिया मुड़ती है.
1 जनवरी न तो सार्वभौमिक सत्य है, न ही मनमानी कल्पना. यह रोम का टिकाऊ उपहार है- जानुस का बनाया गया एक द्वार, जिससे आज पूरी मानवता साथ गुजरती है. यह वित्तीय रीसेट और राजनीतिक उत्तराधिकार को चिह्नित करता है. यह अलग-अलग तरह के समाजों के लिए एकसाथ आने का मौका भी देता है.
फिर भी पारंपरिक संस्कृतियां कायम हैं- ऐसे कैलेंडरों को संभाले हुए हैं जहां नए साल मौसमी, देहधारी और स्थान-आधारित हैं. पुराने तंत्र के उत्तराधिकारी वह बात याद रखते हैं जिसे नूमा, रोम और ग्रेगोरियन कैलेंडर भूल गए: असली नया साल पन्ने पलटने से नहीं, दुनिया की अपनी लय और ताल से आता है.
संदीपन शर्मा