दिन था 26 नवंबर 1973, और मंच तैयार था एक डिप्लोमैटिक और जियोपॉलिटिकल मास्टरस्ट्रोक के लिए. नई दिल्ली की हवा में एक अजीब सी बिजली थी जिसमें राजनीतिक उत्साह और जनता की जिज्ञासा मिली हुई थी. और इंतजार किया जा रहा था उस नेता का जिसका देश भारत का सबसे अहम रणनीतिक साझेदार था.
पीतल का बैंड अचानक बज उठा. धुंध भरी हवा को चीरते हुए पालम एयरपोर्ट के आसमान में एक विशाल Ilyushin-62 दिखाई दिया. जैसे ही उसके पहियों ने भारत की मिट्टी को छूआ, हर तरफ तालियां गूंज उठीं.
और फिर वो दिखे- लेओनिद आई. ब्रेजनेव (Leonid I. Brezhnev) कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव, सोवियत शक्ति का केंद्र, दुनिया के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक.
उनके साथ खड़ी थीं भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी- संकल्पित, राजसी, और सटीक अंदाज में. उनकी आवाज ने उम्मीदों की गूंज को चीरते हुए कहा- यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है.
दिल्ली ने उनकी इस बात पर प्रतिक्रिया भी दी. एयरपोर्ट से शहर के दिल तक- नौ मील तक इंसानों की समंदर उमड़ पड़ा. दिल्ली झंडों, चेहरों और उत्साह का महासागर बन गई.
न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार 50,000 से 1,50,000 लोग बैलगाड़ियों और बसों की छतों से सोवियत नेता के लिए हाथ हिला रहे थे.
जब सोवियत नेता की भारी सुरक्षा वाली बुलेटप्रूफ मर्सिडीज-बेंज भीड़ को चीरते आगे बढ़ी, तो ठंडी हवा में लोगों की आवाज गूंज गई- Druzhba! यानी (दोस्ती!)
उस शाम, सोवियत नेता ब्रेजनेव राजघाट पहुंचे और महात्मा गांधी की समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित की. बाद में ब्रेजनेव ने इंदिरा गांधी के साथ भारतीय संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित किया.
ब्रेजनेव ने अपने भाषण में उन मुद्दों का जिक्र किया जिसपर रूस भारत के साथ सहयोग करना चाहता था- एशिया में सामूहिक सुरक्षा, आर्थिक सहयोग का विस्तार और वैश्विक स्थिरता की साझा आशा. ब्रेजनेव ने कहा कि सोवियत संघ खुद को केवल सरकारों का नहीं, लोगों का दोस्त बताने आया है.
शोर-गुल के बीच, असली कहानी शांत कमरों में लिखी जा रही थी- संधियां, आर्थिक समझौते हो रहे थे और रणनीतिक समीकरण बन रहे थे.
सोवियत नेता ब्रेजनेव के साथ बहुत बड़ा प्रतिनिधिमंडल आया था जो बता रहा था कि उनका दौरा कितना गंभीर है. ब्रेजनेव के साथ सैकड़ों उच्चाधिकारी आए थे, जिनमें शामिल थे विदेश मंत्री आंद्रेई ग्रोमिको जिन्हें कूटनीतिक जटिलताओं को संभालने के लिए रखा गया था.
ब्रेजनेव के भारत दौरे का मुख्य एजेंडा था- भारत-सोवियत आर्थिक सहयोग का बड़े स्तर पर विस्तार और नई दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था में मॉस्को की भूमिका को स्थायी बनाना. उस समय सोवियत संघ भारत को सबसे अधिक आर्थिक सहायता दे रहा था. द्विपक्षीय मुद्दों पर इंदिरा गांधी और ब्रेजनेव के बीच कम से कम 9 घंटों की लंबी बातचीत हुई.
1973 को समझने के लिए हमें 1971 में जाना होगा जब भारत और सोवियत संघ ने शांति, मित्रता और सहयोग की संधि पर हस्ताक्षर किए. इस संधि ने पहली बार भारत और रूस को औपचारिक रणनीतिक साझेदार बनाया.
उस दौरान शीत युद्ध का तनाव बढ़ रहा था, चीन और अमेरिका के साथ पाकिस्तान की नजदीकियों से भारत की सुरक्षा चिंताएं बढ़ रही थीं और 1962 के चीन-भारत युद्ध की यादें ताजा ही थीं.
सोवियत संघ की नजर में भारत एक रणनीतिक साझेदार था- एक बड़ा, गुटनिरपेक्ष देश, लेकिन पश्चिमी और चीनी दबावों से लगातार घिरा हुआ.
चर्चाओं की नींव 1971 की भारत-सोवियत मैत्री और सहयोग संधि पर टिकी थी. यह समझौता उस समय हुआ था जब भारत पाकिस्तान के साथ युद्ध में उलझा हुआ था. उस दौर में अमेरिका खुलकर पाकिस्तान के समर्थन में था और इसी ने भारत-सोवियत गठबंधन को और अधिक मजबूत कर दिया था.
अब, दो साल बाद 1973 का वक्त... भू-राजनीतिक चालें जारी थीं और चीन भारत के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर रहा था. सोवियत संघ लगातार भारत को एशियाई सामूहिक सुरक्षा समझौते में शामिल होने के लिए मनाता रहा, जो कि चीन के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ एक क्षेत्रीय सुरक्षा दीवार बनाने की कोशिश थी.
लेकिन भारत इस मामले में सतर्क बना रहा. गहरी मित्रता के बावजूद, भारतीय अधिकारियों ने सोवियत सुरक्षा प्रस्ताव को बार-बार विनम्रता से टाल दिया. उनका तर्क था कि ऐसा कोई समझौता हस्ताक्षर करने से भारत को चीन के साथ संबंध सुधारने की कोशिशों को नुकसान पहुंचेगा. यह भारत की संतुलित और गुटनिरपेक्ष नीति का प्रतीक था.
बंद कमरों के भीतर, रूस और भारत के अधिकारियों ने वो समझौते तय किए, जिन्होंने अगले 15 सालों की दिशा तय की.
1973 में भारत कई मुश्किलों से जूझ रहा था- विदेशी मुद्रा की भारी कमी, खाद्य सुरक्षा की चुनौतियां, औद्योगिक ठहराव और बाहरी खतरे भारत के सामने मुंह बाए खड़ी थीं. सोवियत संघ के साथ दीर्घकालिक व्यापार और आर्थिक समझौते भारत के लिए राहत लेकर आए. सोवियत संघ ने भारत को कर्ज दिया, टक्नोलॉजी और ज्वॉइंट वेंचर्स ने भारत के औद्योगिक विकास और आत्म-निर्भरता की गति तेज करने का मौका दिया.
लेकिन अर्थव्यवस्था से बढ़कर, यह दौरा एक भू-राजनीतिक सहारा था. अमेरिका और चीन के बीच बंटी दुनिया में भारत को एक शक्तिशाली समर्थन मिल गया था.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस दौरे के लेकर अमेरिका चिंतित था, चीन चुप लेकिन सतर्क था. भारत के भीतर, चीन-समर्थक और कट्टर गुटनिरपेक्ष समर्थकों ने सवाल उठाए कि क्या यह भारत का रूस के प्रति झुकाव है? क्या भारत ने तत्काल लाभों के लिए अपने पुराने आदर्शों का सौदा कर लिया?
राजनीतिक रूप से भारत ने गुटनिरपेक्षता की छवि बनाए रखी, लेकिन भू-राजनीतिक यथार्थ यही था: रणनीतिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए रूस के साथ संबंध बेहद जरूरी थे.
पीछे मुड़कर देखें तो, नवंबर 1973 में ब्रेजनेव का भारत दौरा एक निर्णायक मोड़ था. इसने भारत को केवल गुटनिरपेक्ष आदर्शवाद से निकालकर व्यावहारिक कूटनीति, औद्योगिक आकांक्षाओं और वैश्विक रणनीति की दिशा में आगे बढ़ाया.
आज, सोवियत संघ के उत्तराधिकारी (राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन) और भारत रक्षा समझौतों, ऊर्जा संबंधों और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति पर साथ खड़े हैं और इनकी जड़े वही हैं- दिल्ली में हुई उस ऐतिहासिक मुलाकात में, उन समझौतों में, ब्रेजनेव के उस पांच-दिवसीय यात्रा में.
वह पल आज भी याद दिलाता है- बदलते शक्ति समीकरणों की दुनिया में कुछ संबंध समय की कसौटी पर खरे उतरते हैं.
संदीपन शर्मा