अगर आप घूमने-फिरने के शौकीन हैं और त्योहारों के दौरान एक बिलकुल अनोखी जगह देखना चाहते हैं, तो मध्य प्रदेश का मंडला ज़िले में स्थित धनगांव आपके लिए किसी अजूबे से कम नहीं. यह एक ऐसा गांव है जहां लोग पूरे देश से एक दिन पहले ही दिवाली, होली और दशहरा जैसे बड़े त्योहार मना लेते हैं. यानी जब पूरा देश अगले दिन की तैयारी कर रहा होता है, तब यह गांव अपना उत्सव मना चुका होता है. इस अनोखी परंपरा के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है, बल्कि एक सदी पुरानी मान्यता और प्राकृतिक आपदाओं से बचने की कहानी जुड़ी है, जो इसे और भी ख़ास बनाती है.
यह अनोखी परंपरा लगभग सवा सौ वर्ष पहले बैगा आदिवासी बहुल इस गांव में शुरू हुई थी. ऐसी मान्यता है कि पहले जब ग्रामीण तय कैलेंडर की तारीख पर त्योहार मनाते थे, तो कोई न कोई अनहोनी हो जाती थी. या तो गांव पर कोई प्राकृतिक आपदा आ जाती, या फिर त्योहार के दिन पूजा करने वाला कोई सदस्य गंभीर रूप से बीमार होकर मर जाता. लगातार हो रही इन घटनाओं से ग्रामीण बहुत डर गए थे.
इसी बीच, यह मान्यता बनी कि किसी शुद्ध मन वाले ग्रामीण को सपने में देवता ने दर्शन दिए. देवता ने गांव को आपदाओं से बचाने के लिए कहा कि त्योहार को तय तारीख से एक दिन पहले मना लिया जाए. उन्होंने 'कुकरापाट' नामक स्थल पर मौजूद एक विशाल पत्थर को देवता का स्थान बताया. गांव वालों ने ऐसा ही किया, और आश्चर्यजनक रूप से आपदाएं आनी और लोगों के बीमार होने का सिलसिला कम हो गया. बस, तभी से यह परंपरा यहां की पहचान बन गई.
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एक पर्यटक के लिए धनगांव का दौरा एक रोमांचक सांस्कृतिक अनुभव है. आप यहां आकर पूरे देश से एक दिन पहले ही दिवाली की जगमगाहट का साक्षी बन सकते हैं. यह अनोखा सफ़र आपको न सिर्फ़ एक अलग कैलेंडर पर त्यौहार देखने का मौका देता है, बल्कि आप बैगा आदिवासियों की सदियों पुरानी संस्कृति, उनके रहन-सहन और अटूट विश्वास को बहुत करीब से जान पाते हैं. यह स्थान उन यात्रियों के लिए एकदम सही है जो भीड़ से बचकर, भारतीय त्योहारों के दौरान एक गहरा और प्रामाणिक सांस्कृतिक अनुभव तलाश रहे हैं.
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यह परंपरा हमें सिखाती है कि कभी-कभी सदियों पुराना जनविश्वास वैज्ञानिक तर्क से ऊपर होता है. धनगांव के लोगों का मानना है कि इस परंपरा को निभाने से उनके गांव पर भगवान की कृपा बनी रहती है. दिवाली हो या कोई और बड़ा पर्व, ग्रामीण तय तिथि का इंतज़ार नहीं करते, बल्कि एक दिन पहले अपने रीति-रिवाजों के साथ त्यौहार मना लेते हैं. भले ही इसका कोई 'वैज्ञानिक कारण' ज्ञात न हो, लेकिन इस परंपरा का सबसे बड़ा हासिल यही है कि ग्रामीण इससे खुश हैं, उनका विश्वास अटूट है, और यह रिवाज़ उनकी सामुदायिक पहचान बन चुका है.
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