नवरात्रि की नौवीं देवी के रूप में देवी सिद्धिदात्री की पूजा का विधान है. देवी का ये स्वरूप सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है. देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने इनकी कृपा से ही सिद्धियों को प्राप्त किया था. इनकी अनुकम्पा से ही भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था. इसी कारण वे लोक में 'अर्द्धनारीश्वर' नाम से प्रसिद्ध हुए. सिद्धिदात्री, देवी का संपूर्णता वाला रूप है.
इसी कारण वह इस रूप में लक्ष्मी स्वरूपा हो जाती हैं. यहीं से रामायण की सीता, महाभारत की द्रौपदी, रुक्मिणी, इंद्र की पत्नी शचि, देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा आदि सभी नारियां लक्ष्मी का अवतार मानी जाती हैं. क्योंकि शैलपुत्री से सिद्धिदात्री बनने तक की यात्रा ही नवरात्रि है और नौवीं देवी के रूप में सिद्धियों को देने वाली देवी संपूर्णता का प्रतीक हैं.
सीता कैसे लक्ष्मी स्वरूपा हो जाती हैं, इसका जिक्र रामचरित मानस के सुंदर कांड में मिलता है. जब हनुमान श्रीराम का दूत बनकर अशोक वाटिका में माता सीता से मिलते हैं तब सीताजी का बहुत बड़ा दुख दूर हो जाता है. वह जो विरह की आग में जल रही होती हैं, अपने स्वामी श्रीराम का समाचार सुनकर उन्हें बड़ी तसल्ली मिल जाती है. तब इसी प्रेम में और बहुत खुश होकर वह हनुमान को एक एक-एक कर आठ सिद्धियां दे देती हैं. लक्ष्मी जिस पर अति प्रसन्न हों उसे वह सबकुछ सहज ही मिल जाता है, बड़े-बड़े तपस्वी-मनस्वी जिसके लिए कठोर तप करते हैं.
मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥1॥
भक्ति, प्रताप, तेज और बल मिश्रित हुई हनुमानजी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ. उन्होंने श्री रामजी के प्रिय जानकर हनुमानजी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान हो जाओ.
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥
हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने हो जाओ. श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें. 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए.
हनुमान चालीसा में संत तुलसीदास हनुमान जी को ही आठों सिद्धि और नौ निधि के दाता बता देते हैं और कहते हैं कि यह वरदान जानकी माता ने दिया था.
'अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता, असवर दीन जानकी माता.'
अष्ट सिद्धि का शाब्दिक अर्थ है, 'आठ प्रकार की सिद्धियां'. मार्कण्डेय पुराण में आठ सिद्धियों का वर्णन इस प्रकार आया है-
अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा .
प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः ॥
अर्थ - अणिमा , महिमा, लघिमा, गरिमा तथा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व - ये आठ सिद्धियां हैं.
'सिद्धि' शब्द का अर्थ ऐसी पारलौकिक और आत्मिक शक्तियों से है जो तप और साधना के द्वारा प्राप्त होती हैं. शास्त्रों में अनेक प्रकार की सिद्धियों का वर्णन हैं जिन में आठ सिद्धियां अधिक प्रसिद्ध है जिन्हें 'अष्टसिद्धि' कहा जाता है और जिन का वर्णन श्लोक में किया गया है . गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी गई श्री हनुमान चालीसा वह चौपाई है जिसमें तुलसीदास जी बताते हैं कि हनुमान जी आठ सिद्धियों से संपन्न हैं. अष्ट सिद्धियां वे सिद्धियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति किसी भी रूप और देह में वास करने में सक्षम हो सकता है. वह सूक्ष्मता की सीमा पार कर सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा जितना चाहे विशालकाय हो सकता है.
1. अणिमा : अष्ट सिद्धियों में सबसे पहली सिद्धि अणिमा हैं, जिसका अर्थ! अपने देह को एक अणु के समान सूक्ष्म करने की शक्ति से हैं. जिस तरह हम अपनी नग्न आंखों से एक अणु को नहीं देख सकते, उसी तरह अणिमा सिद्धि प्राप्त करने के बाद दूसरा कोई व्यक्ति सिद्धि प्राप्त करने वाले को नहीं देख सकता हैं. साधक जब चाहे एक अणु के बराबर का सूक्ष्म देह धारण करने में सक्षम होता हैं.
2. महिमा : अणिमा के ठीक विपरीत प्रकार की सिद्धि हैं महिमा, साधक जब चाहे अपने शरीर को असीमित विशालता करने में सक्षम होता है, वह अपने शरीर को किसी भी सीमा तक फैला सकता हैं.
3. गरिमा : इस सिद्धि को प्राप्त करने वाला साधक अपने शरीर के भार को असीमित तरीके से बढ़ा सकता हैं. साधक का आकार तो सीमित ही रहता हैं, लेकिन उसके शरीर का भार इतना बढ़ जाता हैं कि उसे कोई शक्ति हिला नहीं सकती हैं.
4. लघिमा : साधक का शरीर इतना हल्का हो सकता है कि वह पवन से भी तेज गति से उड़ सकता हैं. उसके शरीर का भार न के बराबर हो जाता हैं.
5. प्राप्ति : साधक बिना किसी रोक-टोक के किसी भी स्थान पर, कहीं भी जा सकता हैं. अपनी इच्छानुसार अन्य मनुष्यों के सनमुख अदृश्य होकर, साधक जहां जाना चाहें वही जा सकता हैं तथा उसे कोई देख नहीं सकता हैं.
6. प्रकाम्य : साधक किसी के मन की बात को बहुत सरलता से समझ सकता हैं, फिर सामने वाला व्यक्ति अपने मन की बात की अभिव्यक्ति करें या नहीं.
7. ईशत्व : यह भगवान की उपाधि हैं, यह सिद्धि प्राप्त करने से पश्चात साधक खुद ही ईश्वर स्वरूप हो जाता है, वह संसार पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सकता हैं.
8. वशित्व : वशित्व प्राप्त करने के वाला साधक किसी भी व्यक्ति को अपना दास बनाकर रख सकता हैं. वह जिसे चाहें अपने वश में कर सकता हैं या किसी के भी जय-पराजय का कारण बन सकता हैं.
विकास पोरवाल