बिहार का तीर्थस्थल गयाजी एक बार फिर चर्चा में है. कारण है यहां ई-पिंडदान को लेकर हो रहा गयापालों का विरोध. असल में आगामी 6 सितंबर से 15 दिन तक चलने वाले पितृपक्ष की शुरुआत होने जा रही है. इस दौरान गयाजी में पितृपक्ष मेला लगता है. इस दौरान गया जी में देश-विदेश के तीर्थयात्री अपने पितरों की मोक्ष की कामना को लेकर पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध कर्म करने के लिए आते हैं. यहां आने वाले श्रद्धालु विष्णुपद मंदिर में पितरों का पिंडदान करते हैं और मोक्ष की कामना करते हैं. यह परंपरा रही है.
ऑनलाइन पिंडदान का हो रहा है विरोध
लेकिन, विरोध का वजह बन गया है ऑनलाइन पिंडदान. बिहार सरकार के पर्यटन विभाग की ओर से हाल ही में ऑनलाइन पिंडदान करने की योजना शुरू की गई है, जिसमें इच्छुक लोग विभाग की साइट पर जाकर ऑनलाइन पिंडदान का पैकेज बुक कर घर बैठे ही अपने पितरों का पिंडदान कर सकते हैं. इसे लेकर विष्णुपद मंदिर प्रबंधन समिति के अध्यक्ष शंभू लाल विट्ठल ने कहा कि ऑनलाइन पिंडदान का विरोध हमलोग हमेशा से करते रहे हैं. उन्होंने कहा कि धार्मिक ग्रंथों में कहीं भी ऑनलाइन पिंडदान का प्रमाण नहीं है. बच्चों की तरफ से खुद माता-पिता का पिंडदान करने का विधान है और गया जी में अपने पितरों का पिंडदान अपने हाथों से करने का विधान चला आ रहा है. ऐसे में ऑनलाइन पिंडदान में कोई दूसरा व्यक्ति बैठकर किसी के माता-पिता का पिंडदान करे तो यह धार्मिक ग्रंथों के खिलाफ है.
क्या है पिंडदान से जुड़ी मान्यताएं
ये तो हुई विवाद और विरोध की बात. लेकिन पिंडदान को लेकर जिस तरह की पौराणिक मान्यताएं हैं उसके अनुसार देखा जाए तो गयापालों और पंडों का तर्क एक बारगी सही लग सकता है क्योंकि पौराणिक कथाओं में और पिंडदान की मान्यताओं में किसी अन्य के द्वारा पिंडदान की जिम्मेदारी निभाने का वर्णन नहीं आया है. हालांकि रामायण में इस बात का जिक्र मिलता है कि श्रीराम ने पक्षीराज जटायु का अंतिम संस्कार उनके पुत्र के तौर पर किया था, लेकिन अंतिम संस्कार और पिंडदान या तर्पण में अंतर होता है.
पिंडदान को लेकर हैं कड़े नियम
पिंडदान को लेकर नियम इतने सख्त हैं कि इन्हें न तो किसी अन्य के हाथ से कराया जा सकता है और न ही पिंड को किसी अन्य के हाथ में दिया जा सकता है. क्योंकि तर्पण और पिंड आत्मा के लिए करते हैं और आत्मा शरीर से अलग हो जाने वाली स्वतंत्र ऊर्जा इकाई है. महाभारत के अनुशासन पर्व में इसकी कथा विस्तार से सामने आती है. शरशैय्या पर लेटे भीष्म पितामह और युधिष्ठिर के बीच जब संवाद होता है तब पितामह ने उनके पूछने पर पितृ के प्रति उनके कर्म बताए थे.
जब मृत शांतनु के हाथ ने धरती से निकलकर मांगा पिंड
इसी दौरान भीष्म ने अपनी खुद की कथा सुनाई जो उनके पिता शांतनु के लिए किए जा रहे पिंडदान के दौरान घटित हुई थी. भीष्म बताते हैं कि युधिष्ठिर! पिंडदान को पौराणिक रीति से ही करना चाहिए. इसमें किसी तरह का भ्रम नहीं होना चाहिए. जब मैं अपने पिता का पिंडदान कर रहा था तब एक घटना हुई. मैं गयातीर्थ में उनके आत्मस्वरूप को पिंड प्रदान कर रहा था. इसी दौरान धरती को फाड़ते हुए एक हाथ बाहर निकला. यह मेरे पिता का हाथ था. मैंने उसे पहचान लिया क्योंकि उनकी हथेलियों में वही शुभ चिह्न वाली रेखाएं थीं. वही श्वेत वस्त्र का पटका था जो मेरे पिता पहनते थे और वैसे ही हस्त आभूषण, कड़े, अंगूठियां और बाजू बंद थे, जो मेरे पिता के थे.
मैं उनके हाथ को देखकर आश्चर्य में पड़ गया. वह हाथ इशारे करकरके मुझसे पिंड मांगने लगा, लेकिन मैंने विचार किया कि शास्त्र में, नीति में और नियमों में मैंने कहीं भी ऐसा कोई वर्णन न पढ़ा न ही सुना. इसलिए मैंने अपने विवेक का प्रयोग करते हुए पिंड उस हाथ में नहीं दिया, बल्कि दान की वेदी पर ही रखा जो नियत थी. जहां पिंड तर्पण कर चढ़ाए जा रहे थे.
यह क्रिया संपन्न होते ही मेरे पिता महाराज शांतनु संपूर्ण शरीर के साथ आकाश में प्रकट हुए और मुझे आशीष देकर बोले- हे पुत्र! तुमने शास्त्र की रीति से मेरा सफल पिंडदान किया है. तुम मेरे हाथ के कारण भी भ्रम में नहीं पड़े और सही विधि अपनाई. इस तरह मैं अब अपने ऋण से मुक्त हुआ तुम भी अपनी परीक्षा में सफल हुए. इस तरह पिंडदान के बाद मेरे पिता को उत्तम लोक की प्राप्ति हुई.
कैसे शुरू हुई पिंडदान की प्रक्रिया?
भीष्म पितामह ने यह भी बताया कि प्राचीन समय में सबसे पहले महर्षि निमि को अत्रि मुनि ने श्राद्ध का ज्ञान दिया था. इसके बाद निमि ऋषि ने श्राद्ध किया और उनके बाद अन्य ऋषियों ने भी श्राद्ध कर्म शुरू किए और श्राद्ध कर्म करने की परंपरा प्रचलित हुई. ठीक ऐसी ही कथा श्रीराम की भी है. महाराज दशरथ के पिंडदान के समय दशरथ ने भी हाथ बढ़ाकर उनसे पिंड मांगा था, लेकिन श्रीराम ने वेदी पर ही पिंडदान किया. इससे उनके पिता भी मोक्ष को प्राप्त हुए. इन्हीं कथाओं के आधार पर पिंडदान का महत्व जिम्मेदार जातक के द्वारा खुद ही करने में बताया गया है.
ज्योतिष में पितृदोष और उसका प्रभाव
ज्योतिष में सबसे अधिक परेशान करने वाला अगर कोई दोष है तो वह है पितृ दोष. माना जाता है कि अगर कोई पितृ ऋण से बंधा हुआ है, या किसी वजह पितृ क्रोधित हैं और किसी गलती से पितृ दोष लग गया है तो उस जातक के घर न लक्ष्मी ठहरती हैं और न ही कोई सिद्धि प्राप्ति हो सकती है. यहां तक कि संतान सुख भी नहीं मिलता है. गरुण पुराण में पितृ दोष के कारण और उनके निदान भी बताए गए हैं. इसी पुराण में खुद भगवान विष्णु गरुण जी से कहते हैं कि गयातीर्थ में मैं जल स्वरूप हूं. यह जल आत्मा को सिंचित करके उसे पोषण देता है और तृप्त करता है. फिर अपने पुरुषार्थ और प्रारब्ध में बंधी आत्मा मेरी ही ओर आ जाती है. गरुण पुराण में दर्ज ऐसे ही उदाहरणों के कारण मान्यता है कि गयाजी धाम में पिंडदान करने से 108 कुल और 7 गोत्र तक का उद्धार हो जाता है.
संस्कारों का शृंखला अंत्येष्टि भले ही आखिरी पड़ाव है, लेकिन मानवीय जीवन के संबंध यहीं खत्म नहीं हो जाते हैं. सनातन परंपरा एक ऐसी अकेली है, जिसमें अपनी जड़ को कभी नहीं भुलाया जा सकता है. इसी संस्कृति में मृत आत्मा को श्रद्धांजलि देने और खास तौर पर उन्हें पानी पिलाने की परंपरा कायम है, जिसे तर्पण कहते हैं. यह कार्य गयाजी तीर्थ में होता है और इसी कारण इसकी मान्यता भी अधिक है.
बिहार में स्थित गयातीर्थ सनतान परंपरा का महत्वपूर्ण और अद्भुत तीर्थ है. तीर्थराज प्रयाग और ऋषिकेश की ही तरह गया को स्थान महत्ता के आधार पर गयाजी कहते हैं. पितृपक्ष के अवसर पर यहां पितरों को तर्पण आदि दिया जाता है. मान्यता है कि सर्वपितृ अमावस्या के दौरान गयाजी में पितरों को पानी देने से वह तृप्त होते हैं और वैकुंठ को जाते हैं.
गया में है भगवान विष्णु का विष्णुपद मंदिर
गया तीर्थ की इस महत्ता का कारण है यहां स्थित श्रीविष्णु पद मंदिर. भगवान विष्णु के चरण कमल की छाप -पदचिह्न वाले इस मंदिर को विष्णुपद मंदिर कहा जाता है. इसे धर्मशिला के नाम से भी जाना जाता है. ऐसी भी मान्यता है कि पितरों के तर्पण के बाद इस मंदिर में भगवान विष्णु के चरणों के दर्शन करने से दुखों का नाश होता है और पूर्वज पुण्यलोक को प्राप्त करते हैं. फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित यह मंदिर श्रद्धालुओं के अलावा पर्यटकों के बीच भी काफी लोकप्रिय है.
श्रद्धालु इन पदचिह्नों पर लाल चंदन से लेप करते हैं. इस पर गदा, चक्र, शंख आदि अंकित किए जाते हैं. जिस गया तीर्थ को सभी तीर्थों में उत्तम माना गया है, वह तीर्थ एक असुर के नाम पर पड़ा है. वायुपुराण में बड़े ही विस्तार से इसकी कहानी दर्ज है. यह रहस्य देवर्षि नारद ने ब्रह्माजी के चार बाल मानसपुत्रों सनकादि ऋषियों से पूछा था. उन्होंने पूछा कि गयाजी तीर्थ का क्या महत्व है और इसका नामकरण कैसे हुआ? तब सनत्कुमार ऋषि ने एक कहानी के जरिए इस रहस्य को बताया था. वायु पुराण के गयामहात्म्य खंड में इसका विस्तार से वर्णन है.
गयासुरः कथं जातः, प्रभावः किं-किमात्मकः।
तपस्तप्तं कर्त्तवेन, कथं तेन अपवित्रता॥
सनत्कुमार उवाच —
विष्णोर्नाभिं समुत्पन्नं, पद्मं तस्मात् पितामहः।
प्रजाः सृजेत्यसंप्रोक्तं, पवित्रं तेन विष्णुना॥
आसुरेण भावेन अद्य, सुरान् असृजत जल्परः।
सो मनस्य भावेन देवान्, सुमनसः सृजत् पुनः॥
गयासुरः सुराणां च, मदाभवपराक्रमः।
योजनानां सपादं च, अङ्गुलिस्तस्योर्जितः स्मृतः॥
स्थूलः षष्टि-योजनानां, धृष्टः स वेदवेदितः।
कोकाद्रि गिरिवरे, तपस्तप्तं सुदारुणम्॥
बहुवर्षसहस्राणि, नैराश्येन स्थितो भुवि।
तत्तपस्तापिताः देवा, संक्षोभं परमं गताः॥
बहुत विशालकाय था गयासुर दैत्य
यह कथा श्वेत वाराह कल्प की है. इस दौरान धरती पर पाप सिर्फ अंश भर था और धर्म अपने पूर्ण रूप में मौजूद था. इसी दौरान असुर कुल में एक दैत्य गयासुर हुआ. बड़ा होने पर वह भी अन्य दैत्यों की भांति विशालकाय और पर्वताकार हो गया. उसकी विशालता का अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं कि उसकी उंगली की मोटाई ही डेढ़ योजन थी और उसका सारा शरीर साठ योजन लंबा था.
धर्म के प्रभाव से गयासुर कोकाद्रि नाम के पर्वत पर कठोर तप करने लगा. कई सौ वर्षों तक बिना विचलित हुए तप करने से त्रिलोक में हाहाकार मच गया. बिना किसी आहार के और स्थिर होकर उसकी तपस्या करने से देवता, ऋषि सभी घबराए और ब्रह्मा जी के नेतृत्व में भगवान विष्णु के पास पहुंचे. उन्होंने उनसे विनती की और कहा- "हे विष्णुजी! गयासुर अत्यंत बलवान हो गया है, उसके द्वारा समस्त पृथ्वी पर पवित्रता फैल रही है, जिससे यज्ञ-कर्म और धर्मकृत्य निष्फल हो सकते हैं. कृपया उसे कोई ऐसा वर दें जिससे धर्म की रक्षा भी हो जाए और गयासुर की तपस्या भी सफल हो जाए."
भगवान विष्णु ने दिया था गयासुर को पवित्रता का वरदान
जब भगवान विष्णु गयासुर के सामने आए तो उसने कहा, आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी देह को ऐसा पवित्र कर दीजिए कि जो उसे देखे, स्पर्श करे वह सीधे मोक्ष का अधिकारी हो जाए और उसे वैकुंठ या शिवलोक से कम कुछ न मिले. तब भगवान विष्णु मुस्कराए और बोले - "तथास्तु, ऐसा ही होगा. अब गयासुर पृथ्वी पर सबसे पवित्र व्यक्ति हो गया और उसके प्रभाव से यमलोक, स्वर्गलोक सब कुछ सूना होने लगा. सृष्टि के संचालन में बाधा आने लगी.
तब देवताओं ने इस बारे ब्रह्माजी से बात की. यह सुनकर ब्रह्नमाजी भी चिंता में आ गए. तब विष्णु जी ने सुझाव दिया कि हे ब्रह्मा, आप धरती पर स्थित किसी सबसे पवित्र तीर्थ पर यज्ञ का आयोजन कीजिए. महाविष्णु की आज्ञा से ब्रह्ना जी पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे लेकिन उन्हें धरती पर एक भी पवित्र स्थान नहीं मिला. तब वह महाविष्णु का संकेत समझकर गयासुर के पास पहुंचे और अपना प्रयोजन बताया. ब्रह्माजी ने कहा, क्योंकि तुमने वरदान में सभी तीर्थों से अधिक पवित्रता मांग ली है, इसलिए तुमसे अधिक पवित्र कोई है नहीं, लेकिन मुझे महाविष्णु की आज्ञा से एक पावन यज्ञ करना है तो वह कहां करूं.
ब्रह्माजी के इस प्रश्न को सुनकर गयासुर सोच में पड़ गया और फिर बोला कि आपकी बात तो ठीक है, मुझसे पवित्र तो कुछ भी नहीं. बस इसी एक वाक्य से गयासुर के भीतर अहंकार समा गया, क्योंकि अनजाने ही अहं का प्रयोग कर लिया. फिर उसने अपना शरीर ब्रह्माजी के यज्ञ के लिए दान कर दिया. ब्रह्मा जी ने उससे लेट जाने को कहा. गयासुर ने उत्तर की ओर सिर किया और दक्षिण की ओर पैर. अब उसके शरीर पर समतल स्थल बनाने के लिए उसे शिला से स्थित किया, ताकि उस पर यज्ञ हो सके. वायुपुराण के अनुसार राक्षस गयासुर को नियंत्रित करने के लिए भगवान विष्णु ने शिला रखकर उसे दबाया था. इसीसे शिला पर उनके चरण छप गए.
ऐसे पड़े भगवान विष्णु के चरण चिह्न
विष्णुपद मंदिर में भगवान विष्णु का चरण चिह्न ऋषि मरीची की पत्नी माता धर्मवत्ता की शिला पर है. राक्षस गयासुर को स्थिर करने के लिए धर्मपुरी से माता धर्मवत्ता शिला को लाया गया था, जिसे गयासुर पर रख भगवान विष्णु ने अपने पैरों से दबाया. इसके बाद शिला पर भगवान के चरण चिह्न है. विश्व में विष्णुपद ही एक ऐसा स्थान है, जहां भगवान विष्णु के चरण का साक्षात दर्शन कर सकते हैं. मंदिर के पास ही सीता कुंड है. मान्यता है कि माता सीता ने सैकत (बालू) पिंड महाराज दशरथ का पिंडदान किया था. यह सभी आख्यान गयाजी के महत्व को बढ़ाते हैं.
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