आज की तारीख में भारत दुनिया भर में करीब 100 से अधिक देशों को रक्षा सामग्री निर्यात करता है. बिजनेस स्टैंडर्ड की एक खबर के अनुसार इस साल भारत ने रक्षा निर्यात में रिकॉर्ड 23,622 करोड़ रुपये का आंकड़ा छुआ है. सिर्फ निर्यात ही नहीं, भारत दुनिया में सबसे अधिक रक्षा सामग्री का आयात भी करता है. यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब हम दुनिया की चौथी इकोनॉमी बन चुके हैं. और कुछ समय में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी बनने वाले हैं. पर दुर्भाग्य है कि हम अपने लड़ाकू विमान के पॉयलटों की जान की कीमत नहीं समझ रहे हैं. उन्हें 50 से 60 साल पुराने जगुआर और मिग जैसे लड़ाकू विमानों में मरने के लिए छोड़ दे रहे हैं. वो तब जबकि वायुसेना की तरफ से बार-बार इस पर चिंता जताई जा रही हो.
भारत में मिग-21, जगुआर और मिराज-2000 जैसे पुराने विमानों का अभी भी उपयोग हो रहा है. जबकि पांच से छह दशक पुराने ये फाइटर जेट ऐसे हैं जिन्हें उनकी कंपनियों ने बनाना भी बंद कर चुकी हैं. जाहिर है कि सवाल तो उठेंगे ही. हालांकि इसके बाद भी कहीं से अभी तक ये आवाज नहीं आई कि इन विमानों को तुरंत बंद कर दिया जाए. हालांकि इन सभी विमानों को बंद करने की तारीख बहुत पहले घोषित हो चुकी हैं. फिर भी इनको बाहर होते होते करीब पांच साल और लग सकते हैं.
जैसे भारतीय वायुसेना (IAF) ने पुराने लड़ाकू विमानों, विशेष रूप से मिग-21 बाइसन, को 2025 के अंत तक पूरी तरह रिटायर करने की समय सीमा पहले ही तैयार कर रखी है. 2025 में केवल दो स्क्वाड्रन ही अभी सक्रिय हैं. जगुआर और मिराज-2000 को इस दशक के अंत तक चरणबद्ध तरीके से रिटायर कर दिया जाएगा.
आखिर सोचने वाली बात है कि सरकारें इन विमानों को रिटायर करने में जल्दबाजी नहीं दिखाती हैं.अगर इसके पीछे आर्थिक , तकनीकी या राजनीतिक कारण है तो उसे सामने आना चाहिए. ताकि भविष्य में हम अपने उदीयमान लड़ाकू पॉयलटों की जान को इन खटारा विमानों के भरोसे न छोड़ सकें.
दुनिया में रक्षा पर खर्च करने वाला पांचवां देश, मतलब पैसे की कोई कमी नहीं
रक्षा क्षेत्र में नए फाइटर जेट्स की खरीद एक बेहद महंगी और जटिल प्रक्रिया है. उदाहरण के लिए, एक राफेल जेट की लागत लगभग 700-800 करोड़ रुपये है, और F-35 की कीमत 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर (लगभग 715 करोड़ रुपये) से अधिक हो सकती है. आज से 20 साल पहले हम कह सकते थे कि देश में आर्थिक दिक्कत है. पर आज की हालत ऐसी कतई नहीं है कि बजट का रोना रोया जा सके.
भारत की अर्थव्यवस्था 2025 में 4 ट्रिलियन डॉलर के करीब पहुंच चुकी है, और यह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है. रक्षा बजट 2025-26 में 6.81 लाख करोड़ रुपये है, इस तरह पूरी दुनिया में रक्षा पर खर्च करने वाले देशों में भारत का नाम पांचवें स्थान पर है.इसलिए यह कहना कि नए लड़ाकू विमानों की खरीद के लिए पैसे नहीं है पूरी तरह गलत है.
रक्षा सामग्री खरीद पर दुनिया के ताकतवर देशों की मठाधीशी
हां, भू-राजनीतिक दबाव विदेशी रक्षा सौदों में देरी का एक प्रमुख कारण हैं, जो भारत को पुराने फाइटर प्लेन, जैसे मिग-21, जगुआर और मिराज-2000, पर निर्भर रहने के लिए मजबूर करते हैं. दुनिया में आज जिन देशों के उन्नत किस्म के जेट और अन्य रक्षा साजो सामान है वो इसे बेचते हुए तमाम तरीके के टर्म कंडीशन भी रखते हैं. भारत मुख्य रूप से रूस, अमेरिका और फ्रांस रक्षा उपकरण खरीदता है. उदाहरण के लिए पाकिस्तान की मिसाइलों की बाट लगाने वाले एस 400 की खरीद को ही लें. 2023 में रूस से S-400 हवाई रक्षा प्रणाली की खरीद पर अमेरिका ने CAATSA प्रतिबंधों की धमकी दी थी. हालांकि बाद में भारत को छूट मिली.
हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड की अक्षमता
अभी ऑपरेशन सिंदूर के बाद IAF प्रमुख अमरप्रीत सिंह ने रोष जताते हुए HAL पर अविश्वास जताते हुए कहा था कि मुझे HAL पर भरोसा नहीं है. दरअसल हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के काम में देरी भारत के पुराने फाइटर प्लेन, जैसे मिग-21, जगुआर और मिराज-2000, को रिटायर न करने की मजबूरी का एक प्रमुख कारण बन गया है. उदाहरण के लिए, तेजस Mk-1A की डिलीवरी अगर होती तो मिग-21 को अब तक हटा दिया गया होता. 2021 में 83 विमानों के लिए 48,000 करोड़ रुपये का अनुबंध हुआ, लेकिन मार्च 2025 तक केवल 2-3 विमान ही डिलीवर हुएं हैं. हालांकि एचएएल के काम में रुकावट के कई कारण रहे हैं. जैसे GE F404 इंजन की आपूर्ति में रुकावट, EL/M-2052 AESA रडार का एकीकरण और HAL की सीमित उत्पादन क्षमता. कम से कम इसमें सीमित उत्पादन क्षमता का विस्तार तो हम कर ही सकते हैं, पर वो भी नहीं हो सका. AMCA जैसे उन्नत प्रोजेक्ट में भी देरी है; इसका प्रोटोटाइप 2028 तक और उत्पादन 2035 तक शुरू होगा.
आत्मनिर्भर भारत का अड़ंगा
भारत सरकार की नीति आत्मनिर्भर भारत की है. इस नीति के तहत टेक्नॉलजी के हस्तांतरण पर जोर दिया जाता है. ताकि स्वदेशी रक्षा उद्योग को मजबूत किया जा सके. लेकिन ताकतवर देश खासकर अमेरिका, उन्नत तकनीकों जैसे स्टील्थ, जेट इंजन और रडार सिस्टम को साझा करने में हिचकता है. उदाहरण के लिए, 2023 में GE F-414 इंजन सौदे में 80% प्रोद्योगिक हस्तांतरण पर सहमति बनी, जो एक अपवाद था. लेकिन उसमें भी देरी हुई. F-35 जैसे विमानों की खरीद केवल इस कारण ही नहीं हो सकी कि अमेरिका इसका प्रोद्योगिकी हस्तांतरण नहीं चाहता था.
संयम श्रीवास्तव