पितृसत्ता वाले हमारे समाज में परिवार की सत्ता बेटों को ही दी जाती है. बेटी को सत्ता तभी ट्रांसफर होती है, जब बेटा न हो. अन्य राजनीतिक परिवारों की तरह लालू यादव ने भी परंपरा का ही पालन किया. लालू के सात बेटियां हैं और दो बेटे. जिसमें तेजस्वी को उन्होंने उत्तराधिकार सौंपा. रोहिणी आचार्य भले ही सोशल मीडिया पर भाई के हक में आवाज बुलंद करती रही हों. कितनी ही क्षमतावान हों. और तेजस्वी कितने ही नाकाम. लालू परिवार में हुए घटनाक्रम से साबित हो गया कि बेटियों को बेटों से सवाल करने का हक नहीं है. और शादी के बाद तो बिल्कुल नहीं.
आदर्शों का हवाला देते हुए कहा जा सकता है कि बेटी जब जन्म लेती है, तब पूरा घर उसे फूलों की तरह संभालता है. जब वह बच्ची होती है, तब इसी घर को 'आंगन' कहा जाता है. जब वह बड़ी होती है, यही घर उसके सपनों का सबसे सुरक्षित ठिकाना बनता है. लेकिन जैसे ही उसका विवाह होता है, उसी घर की दीवारें बदल जाती हैं, दरवाजे बदल जाते हैं. उसके लिए बने स्थान की परिभाषा बदल जाती है. और यही वह मोड़ है जहां रोहिणी आचार्य का दर्द हर बेटी की सामूहिक पीड़ा बनकर उभरता है. रोहिणी ने अपनी जान दांव पर लगाकर पिता को नई जिंदगी दी. और उसी पिता की सांसें आज भी चल रही हैं.
समाज का सच यही है कि वह उसी बेटी को मायके की राजनीति में 'गैरजरूरी', 'बाहरी', और यहां तक कि 'सीमा लांघने वाली' बताकर अपमानित करेगा. जिस घर के लिए उसने शरीर का एक हिस्सा सौंप दिया, उसी घर ने उसे यह अहसास करा दिया कि शादीशुदा बेटी मायके में सिर्फ महज मेहमान है.
ठीक 20 साल पहले हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के तहत, बेटियों को पैतृक संपत्ति में बेटों के समान अधिकार दिए गए हैं. लेकिन, यह अधिकार एक छलावा है. वे सिर्फ पैतृक संपत्ति में ही हक मांग सकती हैं. पिता की संपत्ति में उन्हें उतना ही मिलेगा, जितना पिता देगा. अब लालू यादव कोई राजा दशरथ तो हैं नहीं. कहा जाता है कि देवासुर संग्राम में जब राजा दशरथ घायल हो गए और उनके रथ का पहिया टूट गया, तो रानी कैकेयी ने अपना हाथ काटकर पहिये को जोड़ा और राजा दशरथ को युद्ध क्षेत्र से सुरक्षित बाहर निकाल लाई. इस पर भावुक होकर राजा ने उन्हें तीन वरदान मांगने का अधिकार दे दिया. इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है. लेकिन, रोहिणी का दर्द ये है कि उसने तो तेजस्वी के लिए कोई वनवास नहीं मांगा, फिर उसे कैकेयी जैसा विलेन क्यों बना दिया गया?
शादी के बाद बेटी के मायके का ‘हक’ सिर्फ दीवारों पर रह जाता है, भीतर नहीं. रोहिणी का दर्द एक व्यक्ति की कहानी नहीं है. यह समाज का सबसे पुराना अत्याचार है, जहां बेटी का मायका उससे छीन लिया जाता है. एक अदृश्य लकीर खींचकर. लड़की को यह सिखाया जाता है कि उसका घर अब सिर्फ ससुराल है, मायका अब उसके लिए केवल भावनात्मक बैकअप है. मायके के फैसलों में उसका बोलना दखल माना जाएगा. और सबसे महत्वपूर्ण, उसकी ‘एक सीमा’ है, जिसे पार करना उसके संस्कारों के खिलाफ माना जाएगा.
यही अदृश्य सीमा रोहिणी के सामने आकर खड़ी हो गई, जैसे हर बेटी के सामने खड़ी होती है. बकौल रोहिणी के, उसे गालियां मिलीं, उसके त्याग पर शक किया गया, यहां तक कहा गया कि उसने 'गंदी किडनी' दी. सोचिए जिस त्याग की कोई कीमत नहीं लग सकती, उसी त्याग को तिरस्कार में बदल दिया गया. अब आइये, इस किडनी के बहाने महिलाओं द्वारा किए जाने वाले अंगदान पर बात कर लेते हैं. भारत में पिछले 20 साल के ऑर्गन डोनेशन के आंकड़े कहते हैं कि दो-तिहाई अंगदान महिलाओं ने किया. ज्यातर मां और पत्नी ने. और करीब 70 फीसदी मामले में ये ऑर्गन घर के पुरुषों को ही डोनेट किए गए. मायने स्पष्ट हैं कि घर की महिलाएं सहर्ष अपने ऑर्गन परिवार के पुरुषों को दे देती हैं. पुरुष इस मामले में पीछे हैं. रोहिणी का दर्द यहां भी छलकता है, कि जो लोग उनके किडनी डोनेशन को ब्लैकमेलिंग कह रहे हैं, वे जरा किसी को ऑर्गन डोनेट करके दिखाएं. देश में बहुत से लोग इसके लिए तरस रहे हैं.
रोहिणी ने हार मानते हुए सोशल मीडिया पर लिखा, 'मेरी जैसी गलती कोई और बेटी न करे.' जिस त्याग को दुनिया आदर्श मानती, उसी त्याग को परिवार की राजनीति में अपमानित कर दिया गया. उसके त्याग पर सवाल उठे, उसकी नीयत पर तंज कसे गए, उसके योगदान को 'दिखावा' कहा गया.
अगर बेटी अपनी ही जन्मभूमि में बराबरी का दर्जा नहीं पा सकती, अगर मायका उसकी भावनाओं का सम्मान तो करता है पर अधिकारों का नहीं, अगर त्याग को तवज्जो दी जाती है लेकिन आवाज को नहीं, तो फिर बेटी आखिर किसकी है?
अब बदले की बातें नहीं होंगी, अब सवाल सीधे होंगे. बेटी पराए घर की नहीं है. उसका मायके पर उतना ही हक है जितना जन्म के दिन था. उसका अस्तित्व विवाह से कम नहीं होता. उसकी राय, उसका सम्मान, उसका अधिकार कोई दहेज की चीज़ नहीं, जिसे ससुराल ले जाया गया हो.
रोहिणी आचार्य ने अपने दर्द से समाज की आंखों पर बंधी पट्टी फाड़ दी है. वह पूछ रही है कि क्या बहू के रिश्ते का जन्म हो जाने के बाद बेटी का रिश्ता मर जाता है? रोहिणी की लड़ाई राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई से ज्यादा समाज में अपनी आवाज को सम्मान दिलाने की है. और ये लड़ाई आसान नहीं है. अकसर इसमें बेटियों की हार बहुत आहत करने वाली होती है. राजद की हार से कहीं ज्यादा. लालू और तेजस्वी हो सकता है कि कोई चुनाव जीत जाएं, लेकिन वे जो हार गए हैं, वह उन्हें कभी हासिल नहीं होगा.
धीरेंद्र राय