जातिवादी राजनीति की सबसे बड़ी खिलाड़ी तो बीजेपी है

बीजेपी जाति जनगणना के पक्ष में कभी नहीं रही है, क्योंकि RSS हिंदुओं को एकजुट रखना चाहता है. लेकिन, अब बीजेपी की ही सरकार ने ये काम कराने जा रही है. कुछ लोग ऐसा भी समझ रहे हैं कि बीजेपी ये काम विपक्ष के दबाव में करने जा रही है, जबकि जातीय राजनीति तो सबसे ज्यादा बीजेपी ही करती है.

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अघोषित कास्ट पॉलिटिक्स करने वाली बीजेपी जाति जनगणना की घोषणा के बाद खुलकर खेलने जा रही है. अघोषित कास्ट पॉलिटिक्स करने वाली बीजेपी जाति जनगणना की घोषणा के बाद खुलकर खेलने जा रही है.

मृगांक शेखर

  • नई दिल्ली,
  • 06 मई 2025,
  • अपडेटेड 3:49 PM IST

बीजेपी के विरोधी भले ही उसे सांप्रदायिक और हिंदू-मुस्लिम करने वाली पार्टी के तौर पर प्रचारित करते रहे हों, लेकिन असल में वो सबसे बड़ी जातिवादी पार्टी है. नेतृत्व से लेकर बूथ लेवल पर मैनेजमेंट तक जातीय नेताओं और कार्यकर्ताओं के जरिये ही बीजेपी पूरा चुनाव मैनेजमेंट करती है. 

प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पद ही नहीं, राज्यों के मुख्यमंत्रियों और यहां तक कि चुनावी गठबंधन करने में भी बीजेपी माइक्रो लेवल पर जातीय समीकरणों के हिसाब से ही करती है. आने वाले बिहार चुनाव में भी ऐसा ही नजारा देखने को मिलने वाला है, और यूपी में भी बीजेपी के सारे गठबंधन साथी अपनी अपनी जातियों के प्रतिनिधि ही तो हैं - हिंदुत्व की राजनीति का एजेंडा तो, असल में, हाथी के दिखाने के दांत हैं, खाने के दांत तो गहराई तक जातियों में जकड़े हुए हैं. 

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1. ओबीसी प्रधानमंत्री, एससी-एसटी से राष्‍ट्रपति

पहले भले ही बीजेपी ब्राह्मणों और बनियों की पार्टी मानी जाती रही हो, लेकिन धीरे धीरे पार्टी ने दलितों और पिछड़ों में घुसपैठ कर ली है - सवर्ण तो बीजेपी के साथ अब टीना फैक्टर के चलते जुड़े हुए लगते हैं, आखिर जायें तो जायें कहां? 

ये लगातार दूसरी बार है जब बीजेपी ने देश के सबसे बड़े पद पर SC/ST समुदाय से राष्ट्रपति बनाया है. राष्ट्रपति द्रौपदी मूर्मू आदिवासी समुदाय से आती हैं, जबकि उनसे पहले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी दलित समुदाय से ही थे.

और, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो बीजेपी के सबसे बड़े ओबीसी चेहरा हैं. सरकार से संगठन तक हर कदम पर करीब करीब ऐसी ही तस्वीर नजर आती है. 

लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी केंद्र सरकार में ओबीसी सचिवों की कम संख्या पर सवाल उठाते हैं, लेकिन नेताओं के मामले में बीजेपी ऐसा करने का बिल्कुल भी मौका नहीं देती है. 

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ये ठीक है कि केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय ने संसद में कहा था कि सरकार का कास्ट सेंसस कराने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन 2023 के विधानसभा चुनाव खत्म होते होते बीजेपी नेता अमित शाह कहने लगे कि बीजेपी को जाति जनगणना से कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन सही समय आने पर फैसला लिया जाएगा - और बीजेपी को लगा कि फैसला लेने के लिए बिहार चुनाव का का मौका सही समय है, तो पहलगाम हमले के बाद जब युद्ध जैसे हालात बन गये थे, अचानक एक कैबिनेट मीटिंग के बाद बता दिया गया कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय जनगणना के साथ जाति जनगणना भी कराएगी. 

2. जातीय समीकरण को साधने के लिए पदस्‍थापनाएं, और नेतृत्‍व परिवर्तन

हरियाणा से लेकर मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ और राजस्थान तक बीजेपी की जातीय राजनीति तो लाउडस्पीकर लगाकर बोल रही है.

आपने देखा ही, कैसे बीजेपी ने हरियाणा चुनाव से पहले मनोहरलाल खट्टर को हटाकर पिछड़े वर्ग से आने वाले नायब सिंह सैनी को कमान सौंप दी. और, ऐसे प्रयोग हर उस जगह देखने को मिलते हैं, जहां बीजेपी को सरकार बनाने का मौका मिला है. 

2017 के गुजरात चुनाव से पहले बीजेपी ने पाटीदारों के आंदोलन के चलते मुख्यमंत्री बदल दिया था, लेकिन 2022 आते आते फिर उसी समाज से आने वाले भूपेंद्र पटेल को कमान सौंप दी गई. अब तो वो रिकॉर्ड जीत दर्ज कर मुख्यमंत्री बन चुके हैं.

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मध्य प्रदेश में चुनाव जीतने के बावजूद बीजेपी नेतृत्व शिवराज सिंह चौहान को हटाना तय कर चुका था, इसलिए ओबीसी नेता मोहनलाल यादव को मुख्यमंत्री बनाया - और यादव समुदाय से बीजेपी को जोड़ने के लिए मोहनलाल यादव को यूपी और बिहार तक भेजा जा चुका है. 

योगी आदित्यनाथ को हटा दिये जाने के अरविंद केजरीवाल के दावे भले ही राजनीतिक मकसद लिये हों, लेकिन जिस तरह से लोकसभा चुनाव के बाद डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने लखनऊ से दिल्ली तक चैलेंज किया था, योगी आदित्यनाथ की जगह कोई और होता तो, टिक पाया होता - बीजेपी की जाति जनगणना तो योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनने वाली है. 

3. देशभर में बीजेपी के विभिन्‍न गठबंधन जातीय आधार पर

बिहार में ही जेडीयू नेता नीतीश कुमार के साथ रहते हुए भी बीजेपी ने तमाम तिकड़म अपनाये, अमित शाह ने अपने दो भरोसेमंद नेताओं नित्यानंद राय और भूपेंद्र यादव को बिहार मिशन पर तैनात कर अपनी तरफ से लालू यादव की राजनीति को जितना संभव था, खूब डैमेज करने की कोशिश की. 

तेजस्वी यादव भी बिहार की सियासत में इसलिए डटे रहे, क्योंकि नीतीश कुमार ने भी दोस्त के बेटे को मैदान में बनाये रखा. नीतीश कुमार बीजेपी के साथ हैं, जरूर लेकिन बैलेंस करने के लिए तेजस्वी यादव का बने रहना भी तो जरूरी है. भले ही वो बार बार दोहराते रहे हों कि अब कहीं नहीं जाएंगे. 

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गठबंधन की राजनीति भी तो बीजेपी कास्ट फैक्टर को आगे करके ही करती है. 2015 के बिहार चुनाव में नीतीश कुमार को डैमेज करने के लिए बीजेपी ने अगर जीतनराम मांझी के कंधे पर बंदूक रखकर चलाई, तो पांच साल बाद 2020 में चिराग पासवान को वो जिम्मेदारी दे डाली. मुकेश सहनी भी तो ऐसे ही रोल में देखे जाते हैं - बीजेपी अपने काम के लिए ऐसे नेताओं को कभी सूई तो कभी तलवार बना लेती है. 

यूपी में भी देखिये. अनुप्रिया पटेल, ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद. सभी तो बीजेपी की जातीय राजनीति के ही प्रमुख किरदार है. और, ये सभी अपनी अपनी जातियों के नेता हैं, जो बीजेपी के सत्ता में आने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आ रहे हैं. 

4. आंचलिक जातिवादी पार्टियों के मुकाबले भारी है बीजेपी का राष्‍ट्रीय कैनवास

देश भर में ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां जाति आधारित ही हैं. ऐसे क्षेत्रीय राजनीतिक दल के नेता अपनी जाति के वोटबैंक के बूते ही मार्केट में टिके हुए होते हैं, लेकिन बीच बीच में उनको भी दूसरी जातियों के नेताओं की जरूरत पड़ती रहती है. और ये सभी जगह है. 

अगर अखिलेश यादव को सवर्ण नेताओं की जरूरत पड़ती है, तो मायावती ब्राह्मणों और दलितों की सोशल इंजीनियरिंग से पांच साल सरकार भी चला चुकी हैं. बिहार में कहने को तो लालू यादव मुस्लिम और यादव समीकरण की ही राजनीति करते हैं, लेकिन जरूरत तो उनको भी सवर्ण नेताओं की पड़ती रही है. 

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कभी सिर्फ ब्राह्मण और बनिया की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी आज की तारीख में सभी जातियों के वोट बैंक में घुसपैठ कर चुकी है. ओबीसी की राजनीति करने वाले लालू यादव और अखिलेश यादव अपनी जाति से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, क्योंकि बीजेपी रास्ते का रोड़ा बन जाती है. 

मायावती की तो राजनीति ही दांव पर लगी हुई है, या तो उनके वोटर समाजवादी पार्टी की तरफ चले जाते हैं, या फिर बीजेपी के खाते में. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पार्टी से दूर जा चुके वोटर से फिर से जुड़ने के लिए ही जाति जनगणना की मुहिम चलाई थी, लेकिन बीजेपी तो कांग्रेस क्या आरजेडी और समाजवादी पार्टी दलों को भी किनारे लगाने में जुट गई है - धर्म की राजनीति से केंद्र की सत्ता तक पहुंची बीजेपी, अब जाति की राजनीति से दबदबा बनाये रखने की कोशिश में जुट गई है.

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