हमारे देश में धीरे-धीरे लोकतंत्र को हाइजैक कर लिया गया: असग़र वजाहत से बेबाक बतकही

असग़र वजाहत से यह बेबाक गुफ़्तगू यह बताती है कि तरक्की के नाम पर आज भले ही समाज, देश और दुनिया चाहे जो दावा करें, इनसानियत से हमारा नाता धीरे-धीरे कम हुआ है, जो चिंतनीय भी है और विचारणीय भी

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असग़र वजाहतः कथाकार जिनकी कहानियां हमेशा झकझोरती हैं असग़र वजाहतः कथाकार जिनकी कहानियां हमेशा झकझोरती हैं

जय प्रकाश पाण्डेय

  • नई दिल्ली,
  • 29 अक्टूबर 2021,
  • अपडेटेड 1:51 PM IST

विश्व-पर्यटक और अपने विचारों से बड़े-बूढ़ों से लेकर युवाओं तक को झकझोरने वाले जाने-माने लेखक, कथाकार, नाटककार, फिल्मकार, चित्रकार, संपादक, प्राध्यापक प्रोफेसर असग़र वजाहत का कोई एक परिचय नहीं है. वे अपने विचारों को लेकर इतने मस्तमौला और बेबाक हैं कि अकसर चौंकाते हैं, तो उनके चित्र एक अलग दुनिया सरज देते हैं. वह अपनी लघु कथाओं से एक बड़े पाठकवर्ग पर मारक असर रखते हैं और अपने तीखे सवालों से चिंतकों, विचारकों तक को तिलमिला देते हैं. इसीलिए वजाहत साहब से बातचीत करना हमेशा आनंददायक रहता है. अभी पिछले दिनों उनसे जब 'साहित्य तक' के साप्ताहिक कार्यक्रम 'बातें-मुलाकातें' के लिए बात की थी, तो याद आया कि वजाहत साहब से एक बातचीत मैंने उनके जन्मदिन पर की थी, पर कोरोना की उठापटक के बीच इसे लगा नहीं पाया था.

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असग़र वजाहत जन्म 5 जुलाई, 1946 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर में हुआ. उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर और डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च किया. दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अध्यापन किया. आप 5 वर्षों तक हंगरी के बुडापेस्ट में भी अध्यापक रहे. यूरोप, अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिया, और वापस दिल्ली लौट आए और पढ़ाने लिखाने के बीच लेखन का क्रम जारी रखा.

आप पूरी दुनिया घूमने की ललक रखने वाले एक ऐसे यात्री हैं, जिनकी इच्छा पैरों से पूरी धरती को नापने की है. जहां जाते हैं, टिकते हैं. वहां के समाज से मिलते हैं और अकसर सार्वजनिक परिवहन से यात्रा करते हैं. विविध विधाओं में आपके लेखन की बात करें, तो अब तक आपकी चालीस के करीब पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें 5 उपन्यास, 1 उपन्यासिका, 8 पूर्णकालिक नाटक, 4 यात्रा संस्मरण, एक नुक्कड़ नाटकों का संग्रह और 'हिंदी-उर्दू की प्रगतिशील कविता' पर एक आलोचना पुस्तक शामिल है.

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आपकी चर्चित कृतियों में उपन्यास 'सात आसमान', 'पहर-दोपहर', 'कैसी आगी लगाई', 'बरखा रचाई', 'धरा अँकुराई', उपन्यासिका- 'मनमाटी'; कहानी संग्रह- 'दिल्ली पहुंचना है', 'स्विमिंग पूल', 'सब कहाँ कुछ', 'मैं हिन्दू हूं', 'मुश्किल काम' और 'डेमोक्रेसिया' के अलावा लघु कथा संग्रह 'भीड़तंत्र' शामिल है. यही नहीं 'प्रतिनिधि कहानियां', 'प्रिय कहानियां' और 'श्रेष्ठ कहानियां' नाम से भी आपकी कहानियों का संकलन आ चुका है. आपके लिखे नाटकों में 'फिरंगी लौट आई', 'इन्ना का आवाज', 'वीरगति', 'समिधा', 'जिस लाहौर नहीं देख्या ओ जम्याइ नई' और 'अकि', 'गोडसे@गांधी.कॉम', 'पाकिटमार रंगमंडल' ने खूब चर्चा बटोरी.  इन सभी नाटकों का एक संकलन 'असग़र वजाहत के आठ नाटक' और 14 नुक्कड़ नाटकों का संग्रह 'सबसे सस्ता गोश्त' नाम से प्रकाशित हो चुका है. आपके यात्रा वृत्तांत 'चलते तो अच्छा था', 'पाकिस्तान का मतलब क्या', 'रास्ते की तलाश में', 'दो कदम पीछे भी' नाम से प्रकाशित हो चुका है.

आपकी विविध-विधाओं पर लिखी पुस्तकों में धारावाहिक 'बूंद-बूंद', निबंध 'ताकि देश में नमक रहे'; 'बाकरगंज के सैयद', 'सफाई गंदा काम है' शामिल है. अध्यापन और रचनात्मक लेखन के अलावा आपने नियमित रूप से कई अखबारों और पत्रिकाओं के लिए भी लिखा. साल 2007 में आप बीबीसी हिन्दी के अतिथि सम्पादक भी रहे, तो साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के लिए 'भारतीय मुसलमान: वर्तमान और भविष्य' विषय पर आधारित अंक में अतिथि सम्पादक की भूमिका निभाई. आप 'वर्तमान साहित्य' पत्रिका के 'प्रवासी साहित्य' पर केंद्रित विशेषांकों के सम्पादक रहे. आपने कुछ फिल्मों के लिए पटकथा भी लिखी और कई धारावाहिक और डॉक्यूमेंटरी फिल्में भी बनाई हैं. आपकी रचनाओं के कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं और कई भाषाओं में आपके नाटकों का मंचन भी हो चुका है. आप कथा यूके सम्मान और हिन्दी अकादमी दिल्ली के शलाका सम्मान और संगीत नाटक अकादमी सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित हैं. पर आपका असली सम्मान हैं आपके पाठक, जो आपको दिलो जान से चाहते हैं.

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वजाहत साहब से जय प्रकाश पाण्डेय के लंबे साक्षात्कार का नीचे लगा वीडियो और यह बेबाक गुफ़्तगू यह बताती है कि तरक्की के नाम पर भले ही समाज, देश और दुनिया चाहे जो दावा करें, इनसानियत से हमारा नाता धीरे-धीरे कम हुआ है, जो चिंतनीय भी है और विचारणीय भी. साहित्य आजतक पर पढ़िए यह खास बातचीत.

लेखन और साहित्य के क्षेत्र में कैसे आये? कब लगा कि लिखना ही मेरी नियति है?

- लेखन के क्षेत्र में आने का न तो कोई पक्का इरादा था और न कोई ऐसा बहुत बड़ा साहित्यक परिवेश था जिसमें मैं पला-बढ़ा. उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर फतेहपुर में मध्यम स्तर के ज़मींदार परिवार में मेरा जन्म हुआ था. परंपरा के अनुसार उर्दू, फारसी, कुरान शरीफ़ और अरबी की पढ़ाई घर पर ही होती थी जो मेरी पीढ़ी के लड़कों की नहीं हुई थी. हमें सीधे स्कूल भेजा गया था. लेकिन हमारे दादा की पढ़ाई पुराने ढंग से ही हुई थी. वे अरबी, फारसी और धार्मिक पढ़ाई पूरी करने के बाद स्कूल में दाखिल कराये गये थे. उस समय उनकी उम्र 15-16 साल की थी. स्कूल में किसी अध्यापक से कुछ अनबन हो गयी थी और उन्होंने अपने पिताजी यानी हमारे परदादा से ये कहा था कि अब वे अगर पढ़ेगे तो सिर्फ विलायत में ही पढ़ेंगे. परदादा अनुभवी आदमी थे. वे अपने छोटे बेटे की बात सुनकर बहुत खुश हुए थे. उन्होंने कहा था कि फिलहाल मेरे पास पांच हज़ार रुपये हैं इन्हें लेकर तुम लंदन चले जाओ, मैं तुम्हें खर्च के लिए पैसा भेजता रहूंगा. दादा जी की माता जी को जब ये पता चला था कि उनका छोटा बेटा लंदन पढ़ने जा रहा है तो उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया था और कहा था कि अगर वह लंदन चला गया तो वे जान दे देंगी. इस तरह दादा की पढ़ाई न तो देश में हो पायी और न वे लंदन जा पाये. हमारे परदादा को अंगरेज़ी सरकार ने ऑनरेरी स्पेशल कलेक्टर और मजिस्ट्रेट का पद दिया था. परदादा को कचहरी जाकर अदालत में बैठना पसंद न था. इसलिए उन्होंने घर के नज़दीक एक कचहरी बनावा ली थी, जहां बैठकर वे मुक़दमे सुनते थे. बहुत बूढ़े हो जाने पर परदादा ने अपने छोटे बेटे मतलब हमारे दादा को ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बनवा दिया था. दादा पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, रोग-रुतबे के बड़े क़ायल थे. उस ज़माने में इसके लिए अंगरेज़ों से मिलना-जुलना ज़रूरी था और उन्हें अंग्रेज़ी न आती थी. इसलिए धीरे-धीरे कुछ लोगों और डिक्शनरी की मदद से उन्होंने अंगरेज़ी सीखी थी. उस अंगरेज़ी को गोरा शाही इंग्लिश कहा जाता था. उसमें उर्दू और फ़ारसी के मुहावरों का अंगरेज़ी अनुवाद होता था. 'मोस्ट ओबिडियण्ट सर्वेंट' जैसी भाषा लिखी जाती थी.

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हमारे अब्बा को पढ़ाई-लिखाई में कोई ख़ास रूचि न थी. उन्होंने बड़ी मुश्किल से हाई स्कूल पास करने के बाद अपने पिताजी से कह दिया था कि पढ़ाई का बोझ इतना भारी है कि वे उसे उठा नहीं सकते. हमारी अम्मा को ज़रूर पुराना साहित्य पढ़ने का शौक था. वे पंडित रतननाथ 'सरशार' के महाकाव्यात्मक उपन्यास 'फ़सान-ए-आज़ाद' को बहुत शौक से पढ़ती थीं. उन्हें 'तिलिस्म-ए-होशरुबा' पढ़ने का भी शौक था. इसके अलावा उर्दू के सुधारवादी उपन्यास पढ़ने में भी उनकी रूचि थी. घर में उर्दू की एक पत्रिका आती थी जिसका नाम 'ख़ातूने मशरिक़' अर्थात पूरब की महिला था. इसके अलावा 'जासूसी दुनिया' और 'रूमानी दुनिया' सीरीज़ के नॉवल भी हर महीने आते थे. दरअसल इसी माहौल में साहित्य के प्रति मेरा कुछ लगाव पैदा हुआ. सन् 1963-64 के आसपास 'अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय' में बी.एस.सी. कर रहा था. साइंस में बिल्कुल रूचि न थी पर परिवार के दबाव के कारण साइंस पढ़ रहा था. अलीगढ़ में बहुत बढ़िया साहित्यिक वातावरण था. उससे प्रेरित होकर और उस समय हिन्दी में पी-एच.डी. कर रहे के.पी. सिंह साहब की प्रेरणा से लिखना शुरू किया. पत्रिकाओं में छपने लगा और यही वह समय था जब तय किये बिना कुछ ऐसा हो गया कि अब आगे भी लिखना-ही-लिखना है.

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- आपका बचपन कैसा था, वहां से लेकर अब तक जो जिया, और जो आगे कल आना है, उस पर आपके विचार?

साक्षात्कार में पूछे गये सवालों का जवाब देते हुए कुछ खीज़, उलझन और हताशा इसलिए होती है कि एक से सवालों का कई-कई बार जवाब देना पड़ता है. पूछने वालों को दोष नहीं दे रहा हूं क्योंकि उनका काम तो अपने पाठक तक लेखक के बारे में आवश्यक जानकारियां पहुंचाना ही है. जहां बचपन बीता, उस जगह का हर आदमी पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता था. मेरे कुछ उपन्यासों और कहानियों में उस जगह का थोड़ा-बहुत चित्रण हुआ है. अब मैं विस्तार से उस जगह और अपने बचपन के बारे में लिखने जा रहा हूं.

हम लोगों का घर उत्तर प्रदेश के शहर फतेहपुर के एक मोहल्ले बाक़रगंज के बिल्कुल कोने पर था. एक बड़े से टीले पर तीन घर बने हुए थे. टीले का पूरा रक़बा कोई चार-पांच बीघे होगा. इस टीले को क़िला कहा जाता था. लेकिन यहां एक पुरानी मस्जिद और कुंए को छोड़कर कुछ ऐसा न था जिसे क़िले जैसा कहा जा सके. बताते हैं कि सन् 1857 में अंगरेज़ी सेना ने इस क़िले को मिसमार कर दिया था. पता नहीं क्यों मस्जिद छोड़ दी थी. सन् 1857 के बाद अंगरेजों ने किसी भी तरह के निर्माण कार्य पर पाबंदी लगा दी थी. बहुत साल बाद संभवतः 20वीं शताब्दी के बिल्कुल प्रारंभ में यह पाबंदी उठा ली गयी थी और इसी के आसपास इस टीले पर हमारे परदादा ने एक छोटा हवेलीनुमा दो मंज़िला मकान बनाया था. पुराना मकान इसके पीछे था. पुराने मकान में कच्चे बरामदे और ख़परैल की छतें थीं. परदादा वाले इस मकान को बड़ा घर कहा जाता था. कुछ रिश्तेदारों ने बड़ा घर के पास एक और घर बनवाया था, जिसे छोटा घर कहा जाता था. इसी टीले पर हमारे दादा ने एक अलग घर बनवाया था. जिसका कभी कोई नामकरण नहीं हो पाया.

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टीले पर पहुंचने के लिए एक चढ़ाई थी और टीले के चारों तरफ तालाब थे. तालाब और टीले की चढ़ाई पर इतने घने छायादार पेड़ और झाड़ियां थीं कि नीचे से टीले पर बने मकान दिखाई न देते थे. टीले पर रहने वालों को नीचे का भी कुछ नज़र न आता था. चढ़ाई चढ़ कर जब टीले पर पहुंचते थे तब रास्ता दो हिस्सों में बट जाता था. बाईं तरफ़ वाला रास्ता परदादा की हवेली की तरफ़ चला जाता था और दाईं तरफ़ वाला रास्ता हम लोगों के घर की तरफ़ आता था. दो खम्बों वाला एक फाटक था जिसमें पल्ले नहीं लगे थे. मतलब उसके बंद करने और खोलने का कोई इंतज़ाम न था. केवल यह जानकारी मिलती थी कि आप घर के अंदर आ गये. फाटक के अंदर एक बड़ा खुला हुआ मैदान था. जिसकी बाईं तरफ़ अस्तबल और नौकरों के रहने के लिए कोठरियां बनी हुई थी. मैदान में जानवर बांधे जाते थे. मैदान के दाहिनीं तरफ बहुत ऊंची थूहड़ की बाढ़ की जो एक बड़ी दीवार जैसी लगती थी. मैदान के आगे एक ख़परैल थी, जहां हमारे दादा रहा करते थे. इससे पता नहीं क्यों बंग्लिया कहा जाता था. बंग्लिये की बाईं तरफ घर के अंदर जाने का मुख्य दरवाज़ा था. दाहिनी तरफ छोटा-सा बाग़ था जहां मौसमी, फूलों के अलावा पपीते, नींबू वगैरह-वगैरह के कुछ पेड़ थे. उसके बाद झाड़ियां और जंगली पेड़ों का एक लम्बा सिलसिला था. अंदर का घर कच्चे बरामदों और ख़परैल का था. बीच में एक आंगन था और आंगन से एक पतला रास्ता उन पक्के कमरों की तरफ जाता था, जो बड़े घर के बिल्कुल पीछे बनवाये गये थे. तीन कमरों के नीचे तीन तहख़ाने थे. इस घर में कुल मिला-जुलाकर मेहमानों के अलावा 10-12 लोग रहा करते थे. मेहमान भी काफ़ी फुरसत से आते थे. मतलब यह कि दो-तीन महीने की मेहमानदारी तो बहुत आम बात हुआ करती थी. घर के मुख्य दरवाजे़ के सामने एक छोटे से घर में अब्बू साहब रहा करते थे, जो दादा के मुंशी थे. उसके बराबर एक छोटा घर और था जिसमें कुछ रिश्तेदार जैसे लोग रहा करते थे. कुल मिला-जुला कर यहां रहने वालों की संख्या तय थी. बाहर से कोई नया सम्पर्क बहुत दुलर्भ था. हम बच्चों के लिए यही पूरा संसार था. बदलते हुए मौसमों के अनुसार हम लोगों की रुचियां और काम बदल जाते थे. बरसात के मौसम और गर्मियों या जाड़ों के मौसम में अलग-अलग दिलचस्पियां होती थीं. मिसाल के तौर पर बरसात के दिनों में रातभर धुंआधार बारिश होने के बाद ज़मीन के नीचे से लाल रंग की बीरबहूटी निकलती थी, जो बिल्कुल मखमल जैसी होती थी उसको पकड़ कर अपने हाथ में चलाना एक मजे़दार खेल हुआ करता था.

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उस छोटी-सी दुनिया में अभाव क्या है इसका हमें कोई अंदाज़ा न था. ज़रूरी और काम में आने वाली चीज़ों की कोई कमी न थी. किसी को कोई शिकायत न थी. खाने-पीने के सामान और अनाज़ को हम लोग कभी ख़त्म न होने वाला सिलसिला समझते थे. हम दोनों भाई सुबह उठकर अपने दादा को सलाम करने जाया करते थे जो हमें एक-एक आना दिया करते थे. एक-एक आना लेकर हम लोग किसी नौकर के साथ मोहल्ले के बाहर कच्ची सड़क पर बनी भड़भूजे की दुकान तक जाते थे. जहां से लाई और गट्टा खरीद कर घर आ जाते थे. हमें एक आना रोज क्यों दिया जाता था. इसका मतलब बहुत बाद में समझ में आया. इस परिवेश में हम लोग 10वीं क्लास की पढ़ाई तक रहे. हम लोगों को घर पर पढ़ाने के लिए एक मास्टर साहब आते थे जो बड़े निराले क़िस्म के आदमी थे. उनके बारे में अपनी एक कहानी तख़्ती में विस्तार से लिखा है.

बचपन से लेकर अब तक जो जिया वह एक लम्बी दास्तान है. 'अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय' में साहित्य और कला के जो संस्कार पड़े थे उनका असर पूरे जीवन में रहा और आज भी है. विश्वविद्यालय में ही प्रगतिशील और मार्क्सवादी विचारों के सम्पर्क में आये. यहीं उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओं के संगम को समझने की कोशिश की. अलीगढ़ के बाद दिल्ली आया और पत्रकारिता में पैर ज़माने की कोशिश की. यह सन् 1968 की बात है जब हिन्दी पत्रकारिता का क्षेत्र बहुत छोटा था. फ्रीलान्सिंग करते हुए बहुत कुछ सीखने को मिला था लेकिन किसी समाचार-पत्र में नौकरी नहीं मिल सकी थी क्योंकि उस ज़माने में भी अख़बारों और मीडिया में नौकरी पाने के वही आधार थे जो आज हैं. सभी रास्ते बंद देखकर जामिया में पढ़ाने की नौकरी कर ली थी. जामिया की दुनिया एक अलग दुनिया थी और है. जामिया के इतिहास में बहुत प्रभावित किया था. नौकरी करते हुए भी लेखन और मीडिया की दुनिया से जुड़ा रहा था जिस कारण कभी 'बासी' पढ़ जाने का अहसास नहीं हुआ. सन् 1992 में हिन्दी पढ़ाने के लिए हंगरी गया. वह एक अलग दुनिया थी. जहां बहुत कुछ सीखने और जानने का मौका मिला. घुमक्कड़ी में रुचि के कारण देश और विदेश को समझने के अवसर मिले.

जो कल आने वाला है उसके बारे में ठीक-ठीक तो कोई ज्योतिषी ही बता सकता है. लेकिन आज जो हालात हैं, जो ट्रेंड हैं. आज जिस दिशा में देश मुड़ चुका है उससे कुछ अनुमान लगाया जा सकता है. लेकिन निश्चित रूप से वो अनुमान किसी तरह की पक्की भविष्य वाणी नहीं हो सकता. देश में मुक्त व्यापार और कारपोरेटवाद का डंका बजेगा. सरकार और सत्ता द्वारा जनहितकारी समाज बनाने की अवधारणा मिट्टी में मिल जायेगी. सामाजिक सौहार्द ख़तरे में पढ़ जायेगा. देश की एकता और अखण्डता को बचाये रखना बहुत आवश्यक होगा. लोकतंत्र का आधार बहुत कमज़ोर हो जायेगा और इस कारण लोकतंत्र पर आंच आ सकती है.

-आपने अब तक जो रचा वो आपके लिए कितना मायने रखता है? ख़ास कर 'सात आसमान', 'जिस लाहौर नई देख्या...' और 'गोड्से@गांधी.काम' के संदर्भ में कहना हो तो?

- मैंने अब तक जो लिखा है उससे मुझे कोई बहुत बड़ा सन्तोष नहीं है. ये भी लगता है कि इससे अच्छा लिखने की ज़रूरत है और शायद ये भ्रम भी पैदा होता है कि जो कुछ लिखा है उससे अच्छा लिखा जा सकता है. लेखक का लिखा हुआ उसके लिए उस समय महत्त्वपूर्ण हो जाता है, जब दूसरे उसे पढ़ते हैं या देखते हैं और अपनी ईमानदार प्रतिक्रिया देते हैं तब लेखक को लगता है कि उसने कुछ ऐसा किया है जो लोगों को आंदोलित कर सकता है और तब लेखक को अपनी सार्थकता की झलक मिलती है.

आपने जिन रचनाओं का उल्लेख किया है. वे मेरी चर्चित रचनाएं हैं. निश्चित रूप से उन्हें लिखकर मुझे कुछ सन्तोष मिला है. 'सात आसमान' एक अलग तरह का उपन्यास है, जिसे उपन्यास के रवायती ढांचे में नहीं रखा जा सकता. उपन्यास में पात्र स्थितियां और समय मिलकर सांस्कृतिक और भावनात्मक इतिहास की परतें उधेड़ते हैं. अपने समय, जिसमें बीता हुआ समय शामिल है, को इस तरह लिपिबद्ध करना कि उसकी पूरी ऊर्जा बनी रहे, चुनौती भरा काम होता है.

मेरा नाटक 'जिस लाहौर नई देख्या...' मुझसे अधिक ख्याति पा चुका है. किसी लेखक के लिए यह काफी खुशी का विषय होता है कि उसकी रचना उससे बड़ी हो जाए. यह नाटक संसार के कई शहरों में खेला गया है और खेला जा रहा है. मानवीय संबंधों को देश, भाषा, धर्म से श्रेष्ठ बताने वाला यह नाटक उन लोगों को भी पसंद आता है जो इसकी पृष्ठभूमि से पूरी तरह परिचित नहीं हैं. दूसरा नाटक 'गोड्से@गांधी.काम' पुरानी घटनाओं पर आधारित होते हुए भी वर्तमान के कई महत्त्वपूर्ण सवालों को उठाता है. नाटक का मूल स्वर संवाद का महत्त्व स्थापित करना है. राजनीति संवाद को महत्त्व नहीं देती जबकि लोकतंत्र का आधार ही संवाद है. राजनीति का मुख्य काम विपक्ष की आलोचना करना हो गया है. सम-सामयिक सवालों को उठाने के कारण ही नाटक के प्रति निर्देशक आकर्षित हुए हैं. नाटक का अनुवाद और मंचन कई भारतीय भाषाओं में हो चुका है.

-आपकी रचनाएं हमेशा प्रगतिशीलता के पक्ष में, इंसानियत के हक़ में खड़ी रही, अगर आपको अपनी खु़द की सबसे उम्दा रचना को चुनना हो तो किसे चुनेंगे?

रचनाकार सदा मानवता के पक्ष में ही होता है. प्रगतिशीलता मानवता की व्याख्या करती है. भाषा, रंग, नस्ल, धर्म जाति, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर मानव कल्याण की कामना प्रगतिशीलता है. यह किसी प्रकार का आध्यात्मिक विचार नहीं है बल्कि उसके पीछे राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक चिंतन है. लेखक के लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानव समाज है. यदि कोई लेखक मानव समाज से भी अधिक महत्त्व किसी और 'विचार' को देता है तो वह मेरे ख़्याल से बड़ा लेखक या अच्छा लेखक नहीं हो सकता.

लेखक की सबसे उम्दा रचना के बारे में हर प्रश्न करने वाला पूछता है. अलग-अलग लेखक अलग- अलग ढंग से इसका जवाब देते हैं. मुझे लगता है मेरी सबसे अच्छी रचना वही है जिसे सबसे अधिक लोगों को पसंद किया है. जैसे नाटक 'जिस लाहौर नई देख्या...' को कह सकते हैं.

-क्या आपको पता है कि आपके प्रगतिशील लेखन ने हिंदी और उर्दू में एक समूची पीढ़ी को तैयार किया है? फिर भी आप लोग अपने सपनों का देश नहीं बना पाये? आखिर कमी कहां रह गई?

- सवाल बहुत रोचक है. हम लोग अपने सपनों का देश नहीं बना पाये ये सच है और इससे पहले ये भी मानना पड़ेगा कि हमें पिछली पीढ़ी ने जितना अच्छा देश दिया था, हम उतना अच्छा देश आने वाली पीढ़ी को देकर नहीं जा रहे हैं.

देश के वर्तमान को समझने के लिए कम-से-कम राष्ट्रीय आंदोलन से बात शुरू करना चाहिए. कहीं पढ़ा है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी के बीच कुछ बड़े मुद्दों को लेकर असहमतियां थीं. टैगोर गांधी जी से कहते थे कि तुम कच्चे फल तोड़ रहे हो.' उनका मतलब यह था कि देश अभी आज़ादी के लिए तैयार नहीं है. देश को आज़ादी के योग्य बनने के लिए कुछ और समय दरकार है. लेकिन कांग्रेस, महात्मा गांधी और क्रांतिकारियों के दबाव में आज़ादी मिली. उस समय की कम्युनिस्ट पार्टी ने इस आज़ादी को झूठी आज़ादी कहा था. 'ट्रांसफ़र ऑफ पावर' कहा था क्योंकि कानून प्रशासन, व्यवस्था वही थी जो अंगरेजों ने स्थापित की थी. केवल ऊपर बैठे हुए लोगों का रंग बदल गया था. लेकिन आज़ादी के बाद सत्ता प्राप्त करने के लिए लोगों के वोट चाहिए थे. लोगों को आकर्षित करना ज़रूरी था. देश की अधिकतर जनता अनपढ़ थी. उसे विचारों और योजनाओं के आधार पर नहीं बल्कि धर्म और जातियों के आधार पर आकर्षित करना सरल था. कांग्रेस ने सारे काम छोड़कर सत्ता में रहने के लिए एक समीकरण बनाया और इसके लिए हर तरह की पिछड़ी प्रतिक्रियावादी सोच से समझौते किये. इस कारण बड़ी तेज़ी से सामाजिक विघटन शुरू हो गया. पूरा देश जाति, धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर बंट गया जिसका फायदा सभी दलों ने उठाया.

समाज में लेखकों की भूमिका पढ़े-लिखे लोगों तक ही सीमित होती है लेकिन लोकतंत्र केवल पढ़े-लिखे लोग से ही नहीं चलता. हमारे देश में धीरे-धीरे लोकतंत्र को हाइजैक कर लिया गया. लेखक और बुद्धिजीवी एक छोटे दायरे में चीख़ते-चिल्लाते रह गये. लेकिन संसार के सबसे बड़े और शायद सबसे ज़ाहिल लोकतंत्र पर उसका कोई प्रभाव नहीं पढ़ा और यही कारण है कि हम अपने सपनों का देश नहीं बना सके.

-लिचिंग पर आपकी एक कहानी सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई. आपकी इस अद्भुत सृजनात्मकता का स्रोत क्या है?

मनुष्य के प्रति अन्याय और अत्याचार आंदोलित करते हैं. मेरे लिए हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी और यहूदी सब बराबर हैं. मेरा लेखन धर्म, रंग-नस्ल और राष्ट्रीयता की सीमाओं से निकलकर मनुष्य मात्र से प्रेम और उनके दुःख के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करना है. अन्याय और अत्याचार वाली घटनाएं बहुत गहरे प्रभावित करती हैं. लेकिन ये भी जानना ज़रूरी है कि लेखक और पत्रकार में अंतर है. ख़बर भुला दी जाती है, इतिहास में चली जाती है. लेकिन कहानी वर्तमान में रहती है क्योंकि उसमें मनुष्य की संवेदनाओं को इस तरह व्यक्त किया जाता है कि वह सबका अनुभव बन जाती है. मैंने अपने वर्तमान समाज की बहुत-सी घटनाओं पर कहानियां लिखी हैं. दहेज के लिए लड़कियों को जला दिये जाने की घटनाएं, जातीय और धार्मिक आधार पर प्रताणित किये जाने की घटनाएं, कमज़ोर लोगों के प्रति अन्याय किये जाने की वारदातें, सामाजिक विसंगतियां, आडम्बर और छद्म मेरे प्रिय विषय रहे हैं. समसामायिक विषयों पर ऐसी रचनाओं की सार्थकता तभी मानी जायेगी जब वे समय और स्थान के सीमाओं को पार कर जायेंगी.

- आपकी रचनाशीलता पर किनका और किन-किन लोगों का प्रभाव है. अपने पूर्ववर्तियों में आपके किन्हें और किन रचनाओं को बेहतर मानते हैं?

मेरे ऊपर दो प्रकार के रचनाकारों के प्रभाव हैं. पहला प्रभाव मैं विश्व स्थर के उन महान लेखकों का मानता हूं जिन्होंने गल्प लेखन को क्लासिकी ऊंचाईयों तक पहुंचा दिया था. 19वीं शताब्दी के अन्त और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में और उससे कुछ पहले भी ऐसे रचनाकार हुए हैं जिन्होंने महान कालजयी रचनाएं लिखी हैं. मैंने उनसे प्रभाव ग्रहण किया है. हिन्दी, उर्दू के साहित्यकारों में उर्दू के विख्यात लेखक पंडित रतननाथ 'सरशार' का महाकाव्यात्मक उपन्यास 'फ़साने आज़ाद' का मेरे ऊपर प्रभाव है. इसके अतिरिक्त 20वीं शताब्दी के बहुत से हिन्दी उर्दू लेखक मुझे बहुत पसंद हैं और कई प्रकार से उनसे प्ररेणा मिलती रही है. उदाहरण के लिए भारतेन्दु हरिश्चंद्र, पाण्डे बेचन शर्मा उग्र, मंटो, राजेन्द्र सिंह बेदी, इस्मत चुगताई, फणीश्वर नाथ रेणू, रामवृक्ष बेनीपुरी, नागार्जुन, अमरकांत आदि ने मुझे गहरे प्रभावित किया है.

-आपने उपन्यास, कहानी, नाटक, आख्यान, यात्रा-संस्मरण, पत्र, निबन्ध, आलोचना सभी लिखे, क्या आपको यह नहीं लगता कि आपके प्रशसंक-पाठक आपकी आत्मकथा का इंतज़ार कर रहे हैं?

लेखक अपनी सभी रचनाओं में झलकता है. मेरी बहुत-सी ऐसी रचनाएं हैं जिनमें कहीं-न-कहीं मेरा अपना जीवन और मेरे अपने अनुभव शामिल हो गये हैं. मेरे विचार से लेखक अपनी रचनाओं में अपने जीवन और अपने विचारों को इस तरह बिखेर देता है कि उसे जीवनीकार बहुत सरलता से समेट लेते हैं. मुझे अभी तक नहीं लगता कि मैं कोई आत्मकथा लिखूं. आत्मकथा में जो कुछ लिखना है वह अन्य रचनाओं के माध्यम से सामने आ चुका है. कुछ ऐसी बातें जो नितान्त व्यक्तिगत हो सकती हैं और जिनमें लोगों को मज़ा आ सकता है उन्हें परोसने से कुछ लाभ होगा, यह मैं नहीं समझ पाता.

- आज देश, समाज, सियासत, कला, साहित्य की जो स्थिति है उस पर बतौर लेखक आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

आज देश में कला और साहित्य की बहुत दयनीय स्थिति है. राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान कला और साहित्य ने जिस प्रकार की आक्रामकता और सक्रिय भूमिका निभाई थी, वह आज कहीं नहीं दिखाई देती. इसके कई कारण हैं. पहला और सबसे बड़ा कारण यह है कि ब्रिटिश राज में बहुत बड़ी सीमा तक संस्कृति और साहित्य का विकास सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं थी. समाज और लोग मिलकर अपनी भाषा और साहित्य की उन्नति कर रहे थे और उसे प्रासंगिक बना रहे थे. आज़ादी के बाद सरकार ने संस्कृति और साहित्य की ज़िम्मेदारी ले ली. उसका पूरी तरह सरकारीकरण कर दिया और इस तरह उसे नष्ट कर दिया. सरकार ने लोगों को इस भ्रम में रखा कि अब देश आज़ाद है और देश की संस्कृति और साहित्य के विकास की ज़िम्मेदारी सरकार निभायेगी. परंतु ये धोखा था. इस बहाने साहित्य और संस्कृति को लोगों से काट दिया गया. इसे केवल संभ्रात वर्ग तक सीमित कर दिया गया. साहित्य का दायरा सिमटता चला गया. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज की साहित्यिक पत्रिकाओं का सकुलेशन उतना भी नहीं है जितना राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान निकलने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं का था. जबकि देश के आबादी बेहिसाब बढ़ गयी है.

आज़ादी के बाद देश में जो सत्ता समीकरण बने थे उन्होंने जनता की सबसे बड़ी ताक़त संस्कृति साहित्य और कलाओं को कुंठित कर दिया.

जैसा कि मैं बता चुका हूं. यह लोकतंत्र से भीड़तंत्र बन जाने के युग है. अब भीड़तंत्र से लोकतंत्र कब बनेगा इसके बारे में क्या कहा जा सकता है. मेरा विश्वास है कि मनुष्य के भीतर मानवता का शाश्वत भाव है. इसलिए भीड़तंत्र को लोकतंत्र में बदलना होगा. लेकिन इस बीच, इस प्रक्रिया में क्या हो जायेगा, इसकी कल्पना भी कठिन है. आज़ादी के बाद हमने जो समाज बनाया है वह आत्मघाती है. इस समाज में केवल उन लोगों का लाभ है जो शीर्ष स्थानों पर बैठे हैं. जो सत्ता की बागडोर संभाले हुए हैं. जो चाहते हैं कि यथास्थिति बनी रहे. मेरे विचार से हमारा भारतीय समाज या कहना चाहिए उत्तर भारतीय समाज पतन की जिस सीमा तक पहुंच गया है. वह अकल्पनीय है.

- एक साहित्यकार के लिए उसका दौर कितना मायने रखता है? नये लोगों को क्या लिखना चाहिए. नयी पीढ़ी के लेखकों के लिए कोई संदेश?

लेखक के लिए उसका दौर बहुत महत्त्वपूर्ण होता है. जब तक लेखक अपने दौर को पूरी तरह नहीं समझेगा तब तक वह सामाजिक जटिलताओं और अंतर संबंधों को नहीं समझ पायेगा. यहां तक कि वह पारिवारिक संबंधों और रिश्तों को भी नहीं समझ पायेगा क्योंकि इन सबके ऊपर युग की छाया या युग का प्रभाव होता है. अपने युग को समझने के लिए अपने इतिहास को जानना भी बहुत ज़रूरी है. प्रख्यात इतिहासकार प्रो. इरफ़ान हबीब का कहना है कि इतिहास हमारे घर के पते जैसा है, वह हमारा 'एड्रेस' है. यदि हम घर का पता भूल जाएं तो कभी अपने घर नहीं पहुंच सकते. इसी तरह यदि हम अपने देश के इतिहास को न समझ पाएं, न जानते हों तो हम अपने वर्तमान को भी नहीं समझ सकते. इतिहास से छेड़छाड़ करना दरअसल वर्तमान के लिए बहुत खतरनाक साबित होता है. इस तरह कहा जा सकता है कि लेखक के लिए उसका दौर बहुत मायने रखता है.

नयी पीढ़ी लेखकों को वही लिखना चाहिए जो वे पूरी तरह अनुभव करते हों. जिस पर उनका विश्वास हों. जो उन्हें दिल से निकली हुई बात लगती हो. नये लेखकों को किसी तरह का विशेष आग्रह लेकर नहीं चलना चाहिए. विचार के स्तर पर विभिन्न विचार धाराओं से परिचित होना चाहिए पर किसी विचारधारा का प्रचारक नहीं बनना चाहिए. इसी के साथ-साथ उन्हें ये भी जानना चाहिए कि वे मनुष्य के लिए मनुष्य के पक्ष में रचना कर रहे हैं. साहित्य या कलाएं मानव विरोधी नहीं हो सकतीं.

नयी पीढ़ी के लेखकों के लिए संदेश यही है कि वे अधिक-से-अधिक क्लासिकी साहित्य पढ़ें. किसी प्रकार के चलताऊ फै़शन के अंतर्गत रचना न करें. पाठक को अनावश्यक रूप से प्रभावित करने की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोशिश न करें. रचना को अपनी विद्वता से बोझिल न बनाएं. लिखते समय उनके सामने हिन्दी का पाठक हो. वे विदेशी पाठकों के लिए न लिखें. क्योंकि विदेशी पाठकों के लिए विदेशी लेखक लिख रहे हैं.

 

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