सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में ये साफ कर दिया है कि किसी भी कोर्ट ने आरोपी को जब एक बार दोषी ठहरा दिया, तब उसके निर्दोष होने की पूर्व धारणा का सिद्धांत समाप्त हो जाता है. कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि आरोपी के निर्दोष होने का सिद्धांत केवल तब तक ही लागू होता है, जब तक मुकदमा नहीं चलता और उसे दोषी नहीं ठहराया जाता. एक बार निचली अदालत ने दोषी पाए जाने का फैसला सुना दिया, तो इसके बाद यह सिद्धांत लागू नहीं रह जाता.
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलीय कोर्ट को सजा निलंबित करने के चरण में मामलों की सुनवाई फिर से शुरू नहीं करने की चेतावनी भी दी. कोर्ट ने कहा कि जब कोई दोषी व्यक्ति अपील लंबित रहने के दौरान जमानत मांगता है, तो सबूतों का फिर से मूल्यांकन करना या अभियोजन के मामले में खामियां निकालना स्वीकार नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मनमोहन और जस्टिस एनवी अंजारिया की पीठ ने पटना हाईकोर्ट का आदेश रद्द करते हुए निर्णायक सिद्धांत निर्धारित किए.
पटना हाईकोर्ट ने अपने आदेश में बिहार के रोहतास जिले में स्थित एक मंदिर में हुए हत्याकांड में दोषी ठहराए गए पिता और पुत्र की आजीवन कारावास की सजा निलंबित कर दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने दोनों दोषियों को दस दिनों के भीतर आत्मसमर्पण करने के निर्देश दिए हैं. जस्टिस मनमोहन और जस्टिस एनवी अंजारिया की बेंच ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि हाईकोर्ट ने जमानत पर रिहाई का यह आदेश देने में स्पष्ट त्रुटि की है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि आरोपी के निर्दोष होने का अनुमान आपराधिक न्यायशास्त्र में है, लेकिन ये सिद्धांत केवल तब तक मान्य रहता है, जब तक आरोपी पर मुकदमा नहीं चलता. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक बार मुकदमे के अंत में आरोपी दोषी साबित हो जाता है, तो निर्दोषता के अनुमान का कोई मतलब नहीं रह जाता. कोर्ट के कई फैसलों और तर्कों का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि सीआरपीसी की धारा 389 के तहत सजा का निलंबन किसी विचाराधीन कैदी को जमानत पर रिहाई का आदेश देने से मौलिक रूप से भिन्न है.
कोर्ट ने कहा कि जघन्य अपराध के आरोपी को दोषी ठहराए जाने के निर्णय के बाद अदालतों को अपील सुनते समय अत्यधिक संयम बरतना चाहिए. पीठ ने कहा कि सजा स्थगित करने और जमानत पर रिहाई का आदेश नियमित रूप से पारित नहीं किए जाने चाहिए. आजीवन कारावास से जुड़े मामलों में सजा को स्थगित करना केवल दुर्लभ और असाधारण परिस्थितियों में ही दिया जा सकता है. यह मामला 2021 में मंदिर के अंदर एक पुजारी की हत्या से संबंधित है. यह मामला 11 दिसंबर, 2021 को महावीर मंदिर के अंदर ग्राम पुजारी कृष्ण बिहारी उपाध्याय की हत्या से संबंधित है.
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अभियोजन पक्ष के अनुसार, उपाध्याय और उनके बेटे मंदिर में दीपक जलाने और आरती करने गए थे, तभी कुछ हथियारबंद लोग मंदिर में घुस आए और पुजारी को गालियां देने लगे. पुजारी पर राजनीति में लिप्त होने का आरोप लगाया. अभियोजन पक्ष का आरोप है कि एक आरोपी ने गोली चलाई, जबकि शिव नारायण महतो और उनके बेटे राजेश महतो, दोनों देसी पिस्तौल से लैस थे और पुजारी को गोली मारने के लिए चिल्लाकर उकसा रहे थे. सत्र न्यायालय ने पिता और पुत्र दोनों को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 और धारा 149 के तहत दोषी करार दिया था.
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सेशन कोर्ट ने दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, जिसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. हाईकोर्ट के फैसले में स्पष्ट त्रुटि की ओर ध्यान दिलाते हुए पीठ ने कहा कि अपीलीय अदालतों को अपराध की गंभीरता, उसे अंजाम देने का तरीका और आरोपी की भूमिका जैसे फैक्टर्स पर भी विचार करना चाहिए, न कि सबूतों का फिर से मूल्यांकन करना चाहिए.
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह फैसला इस बात की पुष्टि के रूप में महत्वपूर्ण है कि मुकदमे के बाद एक बार दोष सिद्ध हो जाने पर, अपील लंबित रहने तक स्वतंत्रता सामान्य बात नहीं है. खासकर हिंसक और गंभीर अपराध से जुड़े मामलों में. यह फैसला मौजूदा मामले से परे भी असर डाल सकता है.
संजय शर्मा