ना सियासी लकीर की चिंता, ना दोस्त-दुश्मन की फिक्र! पॉलिटिकल अखाड़े में मुलायम होने के मायने

1970 में मुलायम सिंह के आदर्श चौधरी चरण सिंह थे, 1986 में चरण सिंह बीमार पड़े तो हेमवती नंदन बहुगुणा मुलायम के आका हो गए. 1887 में चरण सिंह के निधन के बाद पार्टी दो धड़ों में टूट गई. लोक दल (अजीत) और लोकदल (बहुगुणा). मुलायम लोकदल बहुगुणा यूपी के अध्यक्ष हो गए. देवीलाल के बुलावे पर उन्होंने बहुगुणा का साथ छोड़ दिया. 1989 में वह जनता दल के साथ थे.

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मुलायम सिंह यादव मुलायम सिंह यादव

अमित राय

  • नई दिल्ली,
  • 11 अक्टूबर 2022,
  • अपडेटेड 10:12 AM IST

मुलायम सिंह यादव एक छोटे से गांव सैफई में जन्मे, गरीबी विरासत में मिली, इलाके में दूर-दूर तक विकास की 'बूंदें' तक दिखाई नहीं देती थीं, न यातायात के साधन थे और ना ही स्कूल-अस्पताल. पिता पहलवानी कराना चाहते थे, बेटे ने पढ़ाई को चुना, लेकिन अखाड़ा नहीं छोड़ा. मिट्टी की महक को जीवन में रचा बसा लिया. अखाड़े के दांव-पेच को राजनीति में उतार दिया. बस चित करने की चाह पाली, चाहे उसके लिए कोई भी दांव चलना पड़े. बाहर से अक्खड़ लगते लेकिन अंदर से मुलायम, जिससे दोस्ती की, आजीवन निभाई. साथ के जो लोग बागी हो गए उनके खिलाफ कभी भी एक शब्द नहीं कहा चाहे वह अमर सिंह हों या आजम खान. कांशीराम-मायावती से हाथ मिलाया, साथ छोड़ा लेकिन मन में कटुता नहीं पाली. 

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स्कूल में एक दलित छात्र के लिए दबंगों से लड़ाई कर ली तो उन्हें 'दादा भैया' का नाम दिया गया. गांव के आसपास के लोगों ने उनका नाम 'धरतीपुत्र' रखा, बाद में यादव समुदाय ने इसे पक्का कर दिया.  फिर मुलायम 'नेताजी' के नाम से जाने-जाने लगे, कारसेवकों पर गोली चलवाने के बाद विरोधियों ने उन्हें 'मुल्ला मुलायम' कहना शुरू कर दिया. लेकिन उन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की. इरादे स्पष्ट, लक्ष्य साफ, साथ छोड़ने और पकड़ने में उन्होंने कभी कोताही नहीं बरती. ऐसे में उन्हें मतलबी भी कहा जाता था लेकिन उनका अपना कैलकुलेशन था.

समय के साथ चलना और आगे की सोचना मुलायम की फितरत थी. किसके साथ कितने दिन चलना है खुद तय करते. चमक खो चुके लोगों को बाय-बाय कहने में परहेज नहीं करते. लेकिन व्यक्तिगत दुश्मनी किसी से नहीं रखते. कुछ विश्वासपात्र लोग थे, जिनसे डिस्कस करते. उन्हें ध्यान से सुनते. फैसले खुद लेते और उसे लागू करवाने की कूबत रखते, पार्टी की बैठकों में कभी भी किसी का इंतजार नहीं करते. समय तय होता उसके पहले पहुंच जाते. तय वक्त पर बैठक शुरू हो जाती, बाद में आने वाले धीरे से शामिल हो जाते. हां आजम खान के इंतजार में उन्होंने एक दो बार बैठक शुरू होने का इंतजार किया.

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पहली जीत से मिला 'नेताजी' बनने का सूत्र

खांटी समाजवादी नेता नत्थू सिंह की शागिर्दी में मुलायम ने जान लिया था कि अगर साथ में कुछ लोग खड़े होने वाले लोग हों तो बड़ी-बड़ी ताकतों से मुकाबला किया जा सकता है. एक दंगल में नत्थू सिंह ने उन्हें देखा था और मिलने का आमंत्रण देकर निकल गए थे. मुलायम उनसे मिले और उनका जीवन बदल गया. 15 अगस्त 1966 को लोहिया ने भारत बंद बुलाया, इसमें नत्थू सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया. फिर मुलायम सिंह ने मोर्चा खोल दिया. आंदोलन-धरना प्रदर्शन से ऐसा समा बांधा कि नत्थू सिंह की आंखों के तारे हो गए.

तमाम विरोधों के बावजूद 1967 के चुनाव में नत्थू सिंह ने राम मनोहर लोहिया से पैरवी कर मुलायम सिंह यादव को संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से जसवंत नगर से विधायक का टिकट दिला दिया. सामने थे कांग्रेस के लाखन सिंह. नत्थू सिंह के बेटे दर्शन सिंह ने मुलायम का चुनावी प्रचार संभाला. साइकिल पर मुलायम को बैठाकर दर्शन ने साइकिल से गांव-गांव घूमकर प्रचार किया है. एक वोट और एक नोट मांगा. इस तरह 28 साल के नौजवान मुलायम ने लाखन सिंह को हरा दिया, इसके बाद तो मुलायम ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

विधायक बनने के साथ ही राजनैतिक जीवन का सूत्र मुलायम ने हासिल कर लिया था, लेकिन अगला ही चुनाव हार गए. ऐसे में उन्हें कांग्रेसी नेता महेश्वर दत्त सिंह ने सहकारिता की राजनीति में एंट्री कराई. कॉपरेटिव सियासत से मुलायम सिंह ने किसानों के बीच पकड़ बनाई और कार्यकर्ताओं की फौज तैयार की. कार्यकर्ता भी ऐसे कि जो कहा जाए वह करने को तैयार हों. इसके लिए वह उनके सुख दुख में साथी होते. मऊ के समाजवादी नेता रामप्रवेश राय बताते हैं कि कार्यकर्ताओं का खास ख्याल रखते, अदना सा कार्यकर्ता उनसे मिलकर सहज महसूस करता. जिसके माध्यम से मुलाकात हो रही हो, उससे पूछते 'इन लोगों के खाने पीने का इंतजाम क्या है? अगर कहीं इंतजाम न हुआ हो तो लोहिया ट्रस्ट में व्यस्था करा दो' कार्यकर्ता से गांव-तहसील जिले तक का हाल लेते, वहां के किसी बड़े नेता का नाम याद रहता उन्हें. कुछ ऐसा कह जाते कि कार्यकर्ता मस्त होकर लौटता.

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कार्यकर्ताओं को ऐसे साधते कि लोग मुरीद हो जाते 

अगर कोई बड़ा पदाधिकारी पहुंच जाता तो उससे पूछते कि कैसे आए हो. अगर वह बताता कि लखनऊ बस से आया है तो उससे कहते समाजवादी पार्टी का बड़ा पदाधिकारी क्या बस से चलेगा, ऐसे में जन संपर्क का क्या होगा, आदेश देते कि इसके लिए गाड़ी का इंतजाम कराओ. बस से गया पदाधिकारी जब लखनऊ से जीप से लौटता तो वह परिवार, समाज समेत मुलायम का आजीवन के लिए मुरीद हो चुका होता.  

किसी विधायक, किसी कार्यकर्ता के घर मरने जीने में पहुंचने को प्राथमिकता देते. कार्यकर्ता बड़ी सी फोटो लगाकर दशकों तक अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता. राजनैतिक समीकरण बदलते ही कई विधायकों ने पाला बदल लिया लेकिन मुलायम सिंह के खिलाफ कुछ कहने में उन्हें संकोच होता. अगर मजबूरन कोई अनाप शनाप कहने की कोशिश करता तो जनता उसे आइना दिखाने को तैयार रहती. उन्होंने यशभारती पुरस्कार शुरू किया तो हरिवंश राय बच्चन का सम्मान करने उनके घर मुंबई पहुंच गए क्योंकि बच्चन साहब की तबीयत खराब थी और वो लखनऊ नहीं आ सकते थे.

सफाई से हाथ पकड़ा और निर्ममता से छोड़ दिया

1970 में मुलायम के आदर्श चौधरी चरण सिंह थे, 1986 में चरण सिंह बीमार पड़े तो हेमवती नंदन बहुगुणा मुलायम के आका हो गए. 1887 में चरण सिंह के निधन के बाद पार्टी दो धड़ों में टूट गई. लोक दल (अजीत) और लोकदल (बहुगुणा). मुलायम लोकदल बहुगुणा यूपी के अध्यक्ष हो गए. देवीलाल के बुलावे पर उन्होंने बहुगुणा का साथ छोड़ दिया और उनके बुलाए सम्मेलन में शामिल हो गए. 1989 में वह जनता दल के साथ थे. 1989 में पहली बार मुख्यमंत्री बने. फिर बीपी सिंह के कमजोर पड़ते ही चंद्रशेखर के साथ हो लिए और मुख्यमंत्री की कुर्सी बचा ली. सोनिया को पीएम नहीं बनने दिया लेकिन मनमोहन की सरकार बचा ली.

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मुलायम का 'अमर' अध्याय

90 के दशक से अमर सिंह सियासी गलियारों में अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रहे थे. कॉरपोरेट के लिए लॉबिंग करते, नेताओं से मजबूत संबंध बनाने में यकीन रखते. जिसे जो चाहिए वह उपलब्ध कराने का जज्बा रखते. बड़े नेताओं के साथ उठने-बैठने की कोशिश करते लेकिन बहुत भाव नहीं मिलता. क्योंकि कोई मजबूत बैकअप नहीं था. जो हासिल करते अपने हुनर से.

इधर मुलायम सिंह अपनी पार्टी खड़ी कर चुके थे. सरकार बना और चला चुके थे. राजनीतिक महत्वाकांक्षा उफान पर थी. पीएम बनने की तमन्ना हिलोरें मार रही थीं लेकिन साथ के नेता खांटी समाजवादी थे जो दिल्ली में कोई जमीन नहीं तैयार कर पा रहे थे. वहीं, पूर्वांचल के दिग्गज नेता और पूर्व सीएम वीर बहादुर सिंह की उंगली पकड़कर ठाकुर अमर सिंह ने सियासत में कदम रखा. अमर सिंह माधव राव सिंधिया के चुनाव मैनेजर रहकर जान चुके थे कि कांग्रेस में ऊपर आने की लड़ाई बहुत कठिन है. ऐसे में उन्हें मुलायम मिले और मुलायम को अमर सिंह. 1996 में मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह को सपा का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया.

अमर सिंह मुलायम के खास बनते गए. साधना गुप्ता से मुलायम का क्या संबंध है? यह दो ही लोग बेहतर जानते थे अमर सिंह और शिवपाल सिंह यादव. लेकिन बात कहीं बाहर नहीं आने दी गई. अखिलेश की पढ़ाई से लेकर उनकी शादी तक और परिवार के दूसरे फैसलों में अमर सिंह का सीधा दखल बढ़ता गया. रक्षा मंत्री रहने के दौरान भी अगर कोई मुलायम से किसी काम के लिए कहता तो वो बोलते कि अमर सिंह से बोल दूंगा, हो जाएगा. कब कांग्रेस को समर्थन देना है, कब नहीं देना है. कब मार्क्सवादियों के साथ रहना है, कब अलग लाइन ले लेनी है यह मुलायम और अमर सिंह तय करने लगे. 

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कहा जाता है कि अमर सिंह मुलायम को समझाने में सफल रहे थे कि दो बार आप अपने लोगों की वजह से पीएम बनने से चूक गए. एक बड़ी पार्टी का साथ कभी भी किस्मत बदल देगा. उधर, 2005 में सुप्रीम कोर्ट में विश्वनाथ चतुर्वेदी ने आय से अधिक संपत्ति को लेकर याचिका दायर की और कहा कि 79000 वाला आदमी करोड़ों का मालिक कैसे बन गया.

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दे दिया कि सीबीआई जांच करके बताए कि इसमें कितनी सच्चाई है. इसके बाद फाइलें तैयार होने लगीं. राजनीति के अलग-अलग पदों पर आसीन नेताओं का हिसाब-किताब भी रखा जाने लगा और इसी समय भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर हो गए. 2008 में जब इसे संसद से पास कराने की बारी आई तो मार्क्सवादियों ने यूपीए का साथ छोड़ दिया. ऐसे में सरकार के संकटमोचक बने अमर सिंह. मजबूरियां थीं या महात्वाकांक्षा सपा ने इस मुद्दे का समर्थन कर सरकार को बचा लिया. मुलायम ने कई बार कहा कि अगर अमर सिंह न होते तो उन्हें जेल में डाल दिया गया होता. लेकिन ऐसे हालात क्यों बने यह कभी खुलकर बाहर नहीं आ पाया.

 

अमर सिंह के सौजन्य से मुलायम को सितारे सार आने लगे, अब मुलायम सिंह झक कपड़े पहनते, हाथ में रोलैक्स की घड़ी होती. जैसे-जैसे अमर सिंह मुलायम की नाक का बाल होते गए वैसे वैसे खांटी समाजवादी नेता मुलायम से दूर होते गए. रामपुर के चुनाव में जया प्रदा की हार को अमर सिंह ने आजम खान के ऊपर मढ़ दिया, आजम को पार्टी छोड़नी पड़ी. ऐसे ही अमर के चलते बेनी प्रसाद वर्मा बियावान में चले गए. फिर उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया. हालात बदले और 2010 में खुद अमर सिंह को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. उन्होंने खुद की पार्टी बनाई लेकिन कोई कमाल नहीं कर सके. इधर मुलायम ने आजम को फोन कर पार्टी में बुला लिया और उनकी नंबर 2 की हैसियत बनी रही. बेनी प्रसाद वर्मा की मुलायम ने घर वापसी कराकर राज्यसभा भेजा. 

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हालात बदले और अमर सिंह की फिर सपा में वापसी हुई. उन्हें राज्यसभा भी भेज दिया गया, अमर सिंह पीएम मोदी की शान में कसीदे पढ़ते, लेकिन मुलायम ने कभी इसका बुरा नहीं माना. साथ छोड़ चुके नेताओं की कभी सार्वजनिक मंच पर चर्चा तक नहीं की. किसी ने एक बार उनसे पूछा था कि आजम कहीं और चले जाएंगे तो मुलायम ने विश्वास के साथ कहा था कि वह कहीं नहीं जाएंगे और हुआ भी ऐसा.

अखिलेश को सत्ता का ताज और प्रतीक को संपत्ति की विरासत

यूपी में 2012 का चुनाव नेताजी के नाम पर लड़ा गया, अखिलेश ने अमर सिंह की सिपहसालारी में साइकिल यात्रा कर चुके थे. उनका नाम होने लगा था, सांसद वह पहले ही बन गए थे. लेकिन लोग मानकर चल रहे थे कि सीएम मुलायम सिंह ही बनेंगे लेकिन मुलायम के मन में कुछ और चल रहा था, उन्होंने अखिलेश को सीएम बनवा दिया. कुनबे में विद्रोह हो गया. शिवपाल ने अलग रास्ता ले लिया लेकिन मुलायम के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं कर पाए. अखिलेश को मुलायम ने मंच से कई बार फटकारा, नसीहत दी, समझाया लेकिन अपने जीते जी विरासत सौंप दी. किसी के मन में कोई कन्फ्यूजन नहीं रहा. उधर साधना गुप्ता चाहती थीं कि प्रतीक को भी राजनीति में जगह मिले लेकिन प्रतीक खुद इसमें ज्यादा इंट्रेस्टेड नहीं थे. ऐसे में मुलायम ने अपने जीते जी साफ बंटवारा कर दिया. अखिलेश राजनीतिक विरासत संभालेंगे और प्रतीक बिजनेस पर ध्यान देंगे.

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दल अलग हो गए लेकिन दिल से जुड़े रहे

एसपी सिंह बघेल कभी उनकी सुरक्षा में तैनात एक दरोगा हुआ करते थे. लेकिन राजनीतिक महात्वाकांक्षा रखते थे. उन्होंने मुलायम सिंह यादव से इच्छा जाहिर की तो उन्हें विधायक का टिकट दे दिया. बाद राजनैतिक समीकरण बदले तो वह बीएसपी से होते हुए बीजेपी में पहुंच गए और सांसद बन गए. फिलहाल केंद्र सरकार में मंत्री हैं. 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी का आदेश हुआ कि वह करहल से अखिलेश के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे. बघेल के साथ पार्टी ने ताकत झोंक दी लेकिन जीत अखिलेश की हुई. इसके कुछ दिन बाद मुलायम सिंह संसद पहुंचे, बघेल को आता देख उन्होंने गाड़ी रुकवा दी. बघेल ने हाथ जोड़े तो मुलायम ने भरपूर आशीर्वाद दिया. यह भी कहा अच्छा चुनाव लड़े. चेहरे पर कोई मलाल नहीं. कोई शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं. उनके मरने के बाद बघेल ने मुलायम सिंह को अभिभावक और पिता तुल्य बताया.

नेताजी का आशीर्वाद लेने जाते रहे राजा भैया

राजा भैया अखिलेश को आंखों नहीं सुहाते लेकिन नेताजी का हाल चाल लेने जाते रहे. राजा भैया ने कई बार कहा है कि हर बर्थडे को नेताजी उन्हें फोन करते हैं. और मैं भी उनका आशीर्वाद लेने जाता हूं. क्या हुआ हम एक दल में नहीं हैं लेकिन इससे व्यक्तिगत संबंध खत्म नहीं हो जाते. दूसरी और मुलायस सिंह की इमेज ही ऐसी थी कि दूसरे दल का कोई उनसे मिलने पहुंचे तो यह सवाल ही बेमानी रहता था कि ये क्यों आए.

नीरज शेखर को सांसद बनाया, चंद्रशेखर के खिलाफ नहीं उतारा उम्मीदवार

जब बीपी सिंह को देश का पीएम बनना था तब मुलायम ने उनका साथ दिया था, चंद्रशेखर इस बात को लेकर नाराज रहते थे. लेकिन मुलायम को पता था कि अगर बीपी का समर्थन नहीं किया तो यूपी में सीएम नहीं बन पाएंगे. हालात बदले और वीपी सिंह को पद छोड़ना पड़ा तो मुलायम ने चंद्रशेखर को साधकर अपनी सीएम की कुर्सी बचा ले गए. रातोंरात उन्होंने पाला बदल लिया जनता दल (एस) हो गए. इसके बाद सियासी नब्ज की थाह लेते हुए मुलायम सिंह ने चंद्रशेखर से नाता तोड़कर अपनी पार्टी खड़ी की तो कभी भी चंद्रशेखर के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारा. उनके मरने के बाद उनके बेटे चंद्रशेखर को टिकट देकर सांसद बनाया.  

पीएम मोदी ने भी मुलायम सिंह की कई बार तारीफ की है. उनके निधन के बाद तस्वीरों को ट्वीट किया जिसमें दोनों की बॉन्डिंग देखी जा सकती है. स्वर्गीय सुषमा स्वराज से लेकर जेटली, गुलाम नबी आजाद से लेकर शरद पवार तक. ममता बनर्जी से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक कोई ऐसा नहीं है जो मुलायम का मुरीद न हो. इतना ही नहीं वैचारिक रूप से विरोधी रहे कल्याण सिंह को गले लगाया और सपा के टिकट पर चुनाव लड़ाया और साक्षी महाराज जैसे नेता को राज्यसभा भेजा. योगी आदित्यनाथ के साथ भी अपनी बॉडिंग बनाए रखी. 

नेताजी के विरासत अखिलेश कितना संभाल पाते हैं यह तो आने वाला वक्त बताएगा, लेकिन इतना तय है कि भारतीय राजनीति में फिर तीसरा नेताजी बनना नामुमकिन सा है. दोस्तों के दोस्त मुलायम सिंह ने अगर बाहुबलियों और कुनबे से थोड़ी दूरी बनाई होती तो और बड़े बने होते. लेकिन मजबूरी कहें या कोई कोई सोच इन दोनों से अतिशय प्रश्रय ने उन्हें वो न बनने दिया जिसके वो हकदार थे.

 

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