श्रीराम चरित मानस कथाः कौन थी लंकिनी जो बन गई राक्षसी, कैसे हनुमानजी के हाथों हुआ उद्धार

रावण के किले की रक्षा करने वाली प्रहरी एक राक्षसी थी. उसका नाम लंकिनी था. लंकिनी से बचकर कोई भी लंका में प्रवेश नहीं कर सकता था. हनुमानजी ने रात्रि में मच्छर के बराबर अपना आकार कर लिया और लंका में प्रवेश करने लगे, तब भी वह लंकिनी से नहीं बच सके. उस राक्षसी ने उन्हें देख लिया और लंका में प्रवेश करने से रोक दिया.

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श्रीराम कथा श्रीराम कथा

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 20 जनवरी 2024,
  • अपडेटेड 7:12 AM IST

श्रीराम चरित मानस लिखते हुए, गोस्वामी तुलसीदास ने जिस तरह से किरदारों को गढ़ा है, वह अतुलनीय है. रामकथा में आने वाले हर एक छोटे से छोटे किरदार का अपना महत्व है और उसकी उपस्थिति कथा में रोमांच और रहस्य को बनाए रखती है. यह तुलसीदास की लेखनी का कमाल ही है कि आप रामकथा सुनते हुए अगर बीच में किसी अन्य किरदार का प्रसंग आ जाए तो बिना उसकी कथा सुने आगे नहीं बढ़ सकते. ऐसा ही एक प्रसंग मानस के सुंदरकांड की शुरुआत में है.  

लंकिनी करती थी रावण के किले की रक्षा
रावण के किले की रक्षा करने वाली प्रहरी एक राक्षसी थी. उसका नाम लंकिनी था. लंकिनी से बचकर कोई भी लंका में प्रवेश नहीं कर सकता था. हनुमानजी ने रात्रि में मच्छर के बराबर अपना आकार कर लिया और लंका में प्रवेश करने लगे, तब भी वह लंकिनी से नहीं बच सके. उस राक्षसी ने उन्हें देख लिया और लंका में प्रवेश करने से रोक दिया.
तुलसीदास लिखते हैं कि
मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥

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भाव: हनुमानजी मच्छर के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर अवतारी भगवान श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका में प्रवेश करने लगे. लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी, जिसने उन्हें रोक दिया. उसने हनुमानजी को ललकार कर कहा कि लंका में मुझसे बचकर कोई प्रवेश नहीं कर सकता और चोरों को तो मैं खा जाती हूं.

हनुमानजी ने लंकिनी पर किया प्रहार
लंकिनी के इतने बढ़-चढ़ के अपना बखान करने पर हनुमानजी ने उसे एक मुक्का जड़ दिया. उस प्रहार से लंकिनी खून की उल्टी करके गिर पड़ी. जब वह उठी तो कांपते हुए हनुमान जी को प्रणाम किया और अपनी पुरानी बात और रहस्य बताने लगी. फिर उसने ब्रह्माजी के रावण को दिए वरदान का जिक्र किया और कहा, उसी समय उन्होंने मुझे रावण और राक्षसों के विनाश की पहचान बता दी थी. ब्रह्माजी ने कहा था कि जब किसी वानर के प्रहार से विकल होना तो समझ लेना कि रावण का अंत समय निकट है और उसी समय तुम्हारी भी मुक्ति होगी. फिर उसने कहा कि, इस तरह आपने मुझे मारकर मेरा उद्धार कर दिया है और यह मेरे पुण्य हैं कि मैं अपने नेत्रों से श्रीराम के दूत को देख रही हूं.
इस प्रसंग के लिए तुलसीदास जी लिखते हैं कि
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥
पुनि संभारि उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउ नयन राम कर दूता॥

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इस तरह हनुमान जी को अपना सब रहस्य बताकर लंकिनी स्वर्ग की ओर चली गई. यहां संत तुलसीदास ने फिर एक रहस्य रच दिया है. लंकिनी कहती है कि जब ब्रह्माजी रावण को वरदान दे रहे थे, तब मुझे राक्षसों के विनाश के समय शुरू होने की भी पहचान बताई थी. सवाल उठता है कि, रावण को वरदान देते समय ब्रह्माजी ने लंकिनी को ही ऐसा रहस्य क्यों बताया था. इसका जवाब एक पौराणिक कथा और किंवदंती से मिलता है. 

क्या है लंकिनी की कथा?
पौराणिक कथा ये है कि, लंका पहले भगवान शिव के नगर के तौर पर बनाई गई थी. इसलिए उसकी सुरक्षा के लिए 64 योगिनियों में से ही एक शक्ति के अंश को स्थापित किया था. यह योगिनी शक्ति ही लंका की रक्षिका थी और प्रहरी के तौर लंका के मुख्य द्वार में समाहित थी. जब रावण ने लंका को कुबेर से छीन लिया तो व्याकुल योगिनी शक्ति ने ब्रह्माजी से पूछा कि क्या मुझे अब भी लंका की सुरक्षा करनी होगी. तब ब्रह्माजी ने कहा कि अब केवल कुछ ही समय के लिए तुम्हें लंका की प्रहरी रहना पड़ेगा.

ब्रह्मदेव ने दिया था लंका की रक्षा का आदेश
तुम्हें इस कार्य से मुक्ति का आदेश खुद रुद्र ही देंगे. तब योगिनी शक्ति ने ब्रह्म देव से उनकी पहचान पूछी तो ब्रह्माजी ने पूरा भविष्य न बताते हुए यही बात कह दी कि, जब तुम किसी वानर के प्रहार से विचलित हो जाना, तो समझ लेना कि अब राक्षसों का अंत निकट है और तब तुम भी लंका की प्रहरी सेवा से मुक्त हो जाओगी. हनुमानजी ही रुद्रावतार हैं, इसीलिए उनका प्रहार लंकिनी के उद्धार का कारण बना. 
इसी तरह एक किंवदंती भी काफी प्रचलित है.

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पूर्व जन्म में अप्सरा थी लंकिनी
कहते हैं कि रावण की तपस्या देखकर देवराज इंद्र को बहुत समस्या होने लगी. जब ब्रह्माजी प्रकट हुए और रावण को वरदान देने लगे तो देवराज इंद्र ने अपनी एक वाचाल अप्सरा को चुगली के लिए भेजा कि वह चुपके से सुनकर आए कि ब्रह्माजी रावण को क्या वरदान दे रहे हैं. इंद्र के कहने पर अप्सरा गई और कान लगाकर चुपके से बात सुनने लगी. ब्रह्माजी से रावण ने हिरण्यकश्यप जैसा वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्मदेव ने मना कर दिया. फिर उसने अमरता मांगी, ब्रह्मदेव ने यह भी मना कर दिया, तब रावण ने देव-दानव, यक्ष, गंधर्व, नाग-सर्प, पशु-पक्षी आदि सभी से न मरने का वरदान मांगा और अहंकार वश कहने लगा कि नरों और वानरों को तो मैं चुटकी से मसल दूंगा. रावण के इस वरदान पर ब्रह्माजी ने उसे तथास्तु कह दिया.

अप्सरा को चुगली करने के कारण मिला श्राप
इसी दौरान उन्होंने अप्सरा को कान लगाकर यह सब सुनते हुए देख लिया. तब उन्होंने उसे भी क्रोध में भरकर श्राप दिया कि दूसरों की बातें सुनने का तुझे बड़ा शौक है न, तो जा बड़े कानों वाली राक्षसी हो जा. अब से तुझे हर आहट सुनाई दे जाएगी. अप्सरा बहुत दुखी हुई और क्षमा मांगने लगी. तब ब्रह्माजी ने उसकी करुण पुकार सुनकर कहा, दुख न करो, तुम देवताओं के बहुत काम आने वाली हो. मैं तुम्हें लंका की प्रहरी नियुक्त करता हूं. तुम्हें कोई नहीं हरा सकेगा, सिवाय एक वानर के. जिस दिन वह लंका में प्रवेश कर जाएगा, लंका की रक्षा का वही तुम्हारा अंतिम दिन होगा. वही अप्सरा लंकिनी बनकर लंका की रक्षा करती रही. फिर जब लंका रावण के अधिकार में आ गई तब भी वही लंका की प्रहरी थी. हनुमान जी के मुक्का मारने से वह फिर स्वर्ग की अप्सरा बनकर स्वर्ग चली गई.

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