एक पुजारी का धर्मांतरण कराने से इनकार और एक बौद्ध राजकुमार ने इस्लाम अपनाकर कश्मीर के लिए इस्लाम के द्वार खोल दिए. इसके साथ ही रानियों, घेराबंदियों और टूटे सिंहासनों की एक लंबी गाथा शुरू हुई-
बारामूला के जेहानपोरा में हालिया खुदाइयों में प्राचीन सिल्क रूट के किनारे कुषाण काल के स्तूप मिले हैं. इनसे इस बात की पुष्टि होती है कि कश्मीर कभी एक बौद्ध ज्ञान-केंद्र हुआ करता था. लेकिन कश्मीर का हिंदू राज्य से इस्लामी शासन में रूपांतरण उतना ही दिलचस्प अध्याय है और विडंबना यह कि इसे लिखने वाला वही बौद्ध राजकुमार था, जो शरणार्थी बनकर घाटी में आया था. यह उसी गाथा का पहला भाग है.
कश्मीर की कहानी को शुरू से कहना भूविज्ञान से पौराणिकता तक और अंततः 14वीं सदी की क्रूर हकीकत तक ले जाता है. यह एक पवित्र घाटी की कथा है जो जल से जन्मी, देवताओं ने जिस पर शासन किया और अंत में इसे एक ऐसे इंसान ने बदला जिसे यहां आवास देने से भी इनकार कर दिया गया था.
करोड़ों साल पहले कश्मीर घाटी भूमि के रूप में अस्तित्व में नहीं थी. यहां ‘सतिसर’ (सती की झील) नामक एक विशाल अंतर्देशीय सागर था.
नीलमत पुराण और कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार, इस सागर में जलोद्भव नाम का एक दानव रहता था, जो आसपास के पर्वतों में आतंक फैलाता था. ऋषि कश्यप (नागों के पिता) ने घोर तपस्या की. उन्होंने देवताओं का आह्वान किया, और उनके पुत्र अनंत नाग ने त्रिशूल से बारामूला की पहाड़ियों को भेदा, जिससे कि सागर के जाने का रास्ता बना और सागर का सारा जल दूर समंदर में चला गया. सागर के खाली होने के बाद दानव मारा गया और वहां हरी-भरी घाटी प्रकट हुई.
हजार सालों तक कश्मीर इस क्षेत्र की बौद्धिक शक्ति रहा. यह सिर्फ एक राज्य नहीं, बल्कि विचारों का दुर्ग था.
सम्राट अशोक आए, श्रीनगर की स्थापना की और बौद्ध धर्म का प्रसार किया.
राजा कनिष्क के काल में कश्मीर में चौथी बौद्ध संगीति हुई. यहां विद्वानों ने बौद्ध ग्रंथों को तांबे की पट्टिकाओं पर उकेरा और फिर उसे जमीन में गाड़ दिया. इसी समय कश्मीर महायान बौद्ध धर्म के केंद्र के रूप में जाना जाने लगा.
राजा ललितादित्य का उदय हुआ जिन्हें 'कश्मीर का सिकंदर' कहा जाता था. उन्होंने मार्तंड सूर्य मंदिर बनवाया जो इतना विशाल था कि कहा जाता था कि उसे दैत्यों ने बनाया. राजतरंगिणी में लिखा गया कि ललितादित्य की विजयगाथाएं मध्य एशिया, तिब्बत के हिस्सों, पंजाब के मैदानों और पूर्वी भारत तक फैली हुई थीं.
जब कल्हण ने 1148 ईस्वी में अपनी महान कृति 'राजतरंगिणी' लिखी, तब तक 'राजाओं की नदी' रक्त के दलदल में बदल रही थी.
कश्मीर की केंद्रीय सत्ता बिखर चुकी थी. डामर (जमींदार) राजाओं से अधिक शक्तिशाली हो गए. उन्होंने मंदिर लूटे गए, राजकुमारियों का अपहरण किया, और इस लड़ाई में घाटी के संसाधनों को नुकसान हुआ. लोग थक चुके थे. युद्धों के दौरान प्राचीन सिंचाई सिस्टम उपेक्षित रहीं और अकाल का खतरा पहाड़ों पर मंडराने लगा.
1300 के दशक की शुरुआत में कश्मीर में राजा सुहदेव शासन कर रहे थे. सुहदेव के समय शासन बेहद कमजोर था और इसी दौरान तीन व्यक्ति कश्मीर आए. वे विजेता नहीं थे, भगोड़े थे. लेकिन उन्हें कश्मीर की कहानी बदलनी थी.
शाह मीर: स्वात का एक मुस्लिम जो खुद को अर्जुन का वंशज बताता था. शाह मीर कश्मीरी दरबार में अवसर की तलाश में आया था.
लंकर चक: दार्दिक उत्तर का एक सरदार जो हिंसा और दुश्मनी से बचकर आया था.
रिंचन: लद्दाख का एक बौद्ध राजकुमार जिसके पिता को बाल्टिस्तान के लोगों ने मार दिया था. तब वो भागकर कश्मीर आ गया, सिंहासन की चाह में नहीं बल्कि अपना जीवन बचाने.
1320 में मंगोल सेनापति दुलुचा पर्वतीय दर्रों से कश्मीर आ गया. पुराने वंश का अंतिम वैध हिंदू शासक राजा सुहदेव कायर साबित हुआ. वह किश्तवाड़ भाग गया और अपनी प्रजा को मंगोलों के हवाले कर गया.
द्वितीय राजतरंगिणी में जोनराजा मंगोलों के हमले को लेकर लिखते हैं, 'घाटी जले हुए गांवों के धुएं से भर गई… मंगोलों ने लोगों को मारते वक्त ब्राह्मण और शूद्र में कोई भेद नहीं किया.'
आठ महीनों की तबाही के बाद मंगोल 50,000 दासों को लेकर लौटे, लेकिन हिम-आंधी में फंसकर मारे गए. पीछे जो कश्मीर बचा, वह कब्रिस्तान था.
कश्मीर में मची अराजकता में रिंचन ने मौका देखा. वह कुशल, कठोर और साहसी था. उसने अपने तिब्बती अनुयायियों को जमा किया और लार में प्रधानमंत्री रामचंद्र की हत्या कर दी. फिर उसने खुद को कश्मीर का राजा घोषित किया.
शासन ठीक ढंग से चलता रहे इसके लिए उसने मृत प्रधानमंत्री की बेटी प्रसिद्ध कोटा रानी से विवाह कर लिया. वह पुराने कश्मीर की प्रतिमूर्ति थीं: सुंदर, बुद्धिमान और अपनी विरासत की प्रखर रक्षक.
रिंचन जानता था कि वह बाहरी है. वह सच्चा कश्मीरी राजा बनना चाहता था. इसलिए उसने राज्य के मुख्य पुजारी देवस्वामी से संपर्क किया और कहा कि उसे शैव मत में दीक्षा दी जाए.
देवस्वामी जाति को बहुत अधिक महत्व देते थे और बाहरी होने के नाते उन्होंने रिंचन को दीक्षा देने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि एक म्लेच्छ, एक तिब्बती या बौद्ध को उच्च जाति का दर्जा नहीं दिया जा सकता.
ब्राह्मणों ने जब रिंचन को ठुकरा दिया तब उसकी मुलाकात सूफी संत बुलबुल शाह से हुई. उसने धर्मांतरण किया, सुल्तान सद्रुद्दीन नाम अपनाया और घाटी का पहला मुस्लिम शासक बना.
रिंचन के शासन ने राज्यसत्ता पर ब्राह्मणवादी एकाधिकार तोड़ा. उसने मानसिक रूप से वह रास्ता खोला, जिसने कश्मीरी जनता को दिखाया कि मंगोल आक्रमण के समय पुराने देवता उन्हें बचा नहीं पाए, जबकि नया धर्म एक अलग तरह का आश्रय दे सकता है.
रिंचन का शासन केवल तीन साल (1320–1323) चला लेकिन वो एक तूफानी दौर था. लेकिन पुराने कुलीन लोगों ने उस विदेशी को कभी माफ नहीं किया. उसके ही महल में उसके खिलाफ बड़ा षड्यंत्र रचा गया, उसके सिर पर तलवार का वार हुआ. तलवार लगते ही उसकी मौत नहीं हुई बल्कि घाव की वजह से धीरे-धीरे उसने अपने प्राण त्यागे.
रिंचन ने अपने आखिरी वक्त में एक फैसला किया...सोच-समझकर किया गया फैसला. उसने अपने छोटे बेटे और अपनी पत्नी कोटा रानी को अपने विश्वस्त मंत्री शाह मीर की देखरेख में सौंप दिया.
एक दशक से अधिक समय तक कोटा रानी ने रणनीतिक विवाहों के सहारे कश्मीर पर शासन किया, पहले संरक्षिका के रूप में, फिर संप्रभु शासक के तौर पर. वह लोहरा वंश की अंतिम शासक थीं...अंतिम हिंदू रानी.
जब घाटी पूरी तरह से इस्लामी शासन की तरफ झुक गई थी, तभी उन्होंने शासन संभाला और उनमें कश्मीर की मिली-जुली संस्कृति की सारी धाराएं एक साथ आकर जुड़ गईं.
संदीपन शर्मा