पहले ठाकरे, अब पवार... महाराष्ट्र में चुनाव से पहले क्यों एक हो रहे बिखरे सियासी परिवार

महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनाव से पहले सियासी मजबूरियों ने दो बड़े राजनीतिक परिवारों को फिर से एक कर दिया है. लंबे समय बाद उद्धव और राज ठाकरे साथ आए हैं. दूसरी तरफ शरद पवार और अजित पवार ने भी समझौता कर लिया है. दोनों ही सुलह भावनाओं से नहीं, बल्कि चुनावी गणित से प्रेरित हैं.

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यह गठबंधन दोनों परिवारों की राजनीतिक ताकत को बढ़ाने और आगामी चुनावों में बेहतर प्रदर्शन के लिए किया गया है. (File Photo: ITG) यह गठबंधन दोनों परिवारों की राजनीतिक ताकत को बढ़ाने और आगामी चुनावों में बेहतर प्रदर्शन के लिए किया गया है. (File Photo: ITG)

aajtak.in

  • मुंबई,
  • 29 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 5:40 PM IST

महाराष्ट्र की राजनीति हमेशा किसी थ्रिलर फिल्म जैसी रही है. जब लगता है कि कहानी खत्म होने वाली है, तभी कोई नया ट्विस्ट सब कुछ पलट देता है. चुनाव का मौसम इस सियासी ड्रामे को और तेज कर देता है. स्थानीय निकाय चुनाव, खासकर बेहद अहम बृहन्मुंबई महानगरपालिका यानी बीएमसी इलेक्शन से पहले चुनावी दबाव ने वह कर दिखाया है, जो भावनाएं और पारिवारिक रिश्ते भी नहीं कर पाए. राज्य के दो सबसे ताकतवर राजनीतिक परिवार फिर से एक हो गए हैं.

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पहले ठाकरे परिवार में करीब दो दशक पुरानी दरार खत्म हुई. उद्धव ठाकरे और उनके चचेरे भाई राज ठाकरे साथ आए. इसके बाद पवार परिवार में भी सुलह हो गई. शरद पवार और उनके भतीजे अजित पवार ने सालों की कड़वाहट के बाद समझौते का ऐलान किया. दोनों ही मामलों में कोई इमोश्नल स्पीच नहीं हुई, बल्कि यह साफ मैसेज दिया गया कि यह फैसला सिर्फ और सिर्फ चुनाव को ध्यान में रखकर लिया गया है.

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ठाकरे परिवार की सुलह के पीछे क्या वजह?

24 दिसंबर को राज ठाकरे ने औपचारिक तौर पर ऐलान किया कि शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना यानी मनसे अब गठबंधन के साथी हैं. यह घोषणा अचानक नहीं थी, बल्कि महीनों की तैयारियों का नतीजा थी. सामाजिक कार्यक्रमों में आपसी मेलजोल, मीडिया को दिए गए संकेत और 13 साल बाद उद्धव ठाकरे के जन्मदिन पर राज ठाकरे का उनके घर मातोश्री पहुंचना, यह सब एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था.

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सार्वजनिक तौर पर दोनों नेताओं ने इसे महाराष्ट्र और मराठी लोगों के हित में बताया. लेकिन अंदरूनी सियासी गणित कहीं ज्यादा सख्त और व्यावहारिक था. उद्धव ठाकरे का यह बयान कि 'मुंबई हर हाल में उनके साथ रहेगी', असल मंशा साफ कर देता है. महाराष्ट्र की सत्ता गंवाने के बाद अब ठाकरे परिवार की लड़ाई मुंबई को बचाने की है, जो संयुक्त शिवसेना की आखिरी मजबूत विरासत मानी जाती है.

समय का चुनाव भी राजनीतिक मजबूरी को दिखाता है. एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद उद्धव ठाकरे को पार्टी का नाम, चुनाव चिन्ह, संगठन और बड़ा वोट बैंक गंवाना पड़ा. शिंदे गुट ने भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया, जबकि उद्धव ठाकरे की शिवसेना हाशिये पर जाती दिखी.

राज ठाकरे की स्थिति भी कमजोर रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के ज्यादातर उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए. पार्टी को राज्यभर में महज एक फीसदी से थोड़ा ही ज्यादा वोट पड़ा. चुनावी सफलता से ज्यादा उसकी पहचान आक्रामक स्ट्रीट पॉलिटिक्स और गैर मराठी भाषियों पर हमलों जैसी घटनाओं से बनी रही है.

ऐसे में ठाकरे परिवार की एकता उभार से ज्यादा अस्तित्व बचाने की कोशिश है. उद्धव ठाकरे के पास बाल ठाकरे की विरासत और पुराने समर्थकों की सहानुभूति है, जबकि राज ठाकरे के पास आक्रामक तेवर और मराठी युवाओं में पकड़. दोनों मिलकर बिखरे हुए मराठी वोट को फिर से जोड़ना चाहते हैं, ताकि एकनाथ शिंदे की शिवसेना को कमजोर किया जा सके.

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शरद और अजित पवार कैसे आए साथ?

ठाकरे परिवार की सुलह के तुरंत बाद पवार परिवार में भी बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिला. अजित पवार ने ऐलान किया कि उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गुट 15 जनवरी को होने वाले पिंपरी चिंचवड़ नगर निगम चुनाव में शरद पवार की पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगा. यह फैसला दो साल पहले हुए तीखे बंटवारे के बाद आया है, जिसमें एक-दूसरे पर खुलकर आरोप लगाए गए थे.

अजित पवार ने 2023 में नागपुर में हुई पार्टी बैठक में अपने विद्रोह को यह कहकर सही ठहराया था कि उन्होंने सत्ता के लिए नहीं, बल्कि स्थिरता और विकास के लिए भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना का साथ दिया. बाद में मामला निजी हमलों तक पहुंच गया और अजित पवार ने सार्वजनिक रूप से यह सवाल भी उठाया कि '83 साल के शरद पवार को अब राजनीति से हट जाना चाहिए.'

लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों ने तस्वीर बदल दी. अजित पवार गुट का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा और यह साफ हो गया कि संगठन और जमीनी पकड़ के बिना सत्ता सीमित होती है. बाद में अजित पवार ने माना कि परिवार से दूरी बनाना एक गलती थी.

2025 तक व्यावहारिक राजनीति हावी हो गई. सुलह का ऐलान करते हुए अजित पवार ने कहा कि परिवार फिर से एक हो रहा है, जैसा कई लोग चाहते थे. इस बयान के पीछे भावनाओं के साथ-साथ सियासी गणित भी साफ नजर आ रहा है.

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शरद पवार के लिए अजित पवार से समझौता करने का मतलब पार्टी की जमीनी ताकत को फिर से मजबूत करना और चुनावी संभावनाएं बढ़ाना है. वहीं अजित पवार, जो फिलहाल भारतीय जनता पार्टी के साथ सरकार में हैं, उनके लिए मूल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का नाम, कार्यकर्ता और स्थानीय नेटवर्क एक तरह की राजनीतिक सुरक्षा कवच है.

हालांकि यह गठबंधन विरोधाभासों से भरा है. शरद पवार खुद को लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी की राजनीति के मुकाबले एक सेक्युलर विकल्प के रूप में पेश करते रहे हैं, जबकि अजित पवार अब उसी सरकार का हिस्सा हैं. ऐसे में इस सुलह के स्थायित्व पर विचारधारा और अवसरवाद के सवाल जरूर उठेंगे.

दांव बड़े हैं. पिंपरी चिंचवड़ नगर निगम, बृहन्मुंबई महानगरपालिका के बाद देश के सबसे अमीर नगर निकायों में गिना जाता है. साल 1999 से 2017 तक इस पर संयुक्त राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का कब्जा रहा. 2017 में भारतीय जनता पार्टी का यहां सत्ता में आना पवार परिवार के बड़ा झटका था.

(रिपोर्ट: प्रिया पारीक)

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