हम ने कांटों को भी नरमी से छुआ है अक्सर,
लोग बेदर्द हैं फूलों को मसल देते हैं.
- बिस्मिल सईदी
आपने फूल तो देखा होगा, फूलों की बाग़ में टहले भी होंगे, इसका असर भी महसूस किया होग, शायद पौधे में लगा फूल तोड़ा भी हो लेकिन क्या आप ‘फूल वालों की सैर’ के बारे में जानते हैं? बिस्मिल सईदी साहब कहते हैं कि फूलों को मसल देने वाले लोग बिल्कुल बेदर्द होते हैं. लेकिन क्या फूल को मसल देने से उसका असर ख़त्म किया जा सकता है? जवाब है- बिल्कुल भी नहीं. इसके उलट फूल की महक फ़िज़ाओं में फैलकर काफ़ी दूर तक जाती है. इसी तरह हिंदुस्तान की आब-ओ-हवा में कुछ फूल जैसे रिश्ते हैं, जिनकी महक बहुत दूर तलक जाती है और इससे जुड़े हर शख़्स को रूहानी ताक़त देती है और इसी तरह के रिश्तों से ही बनता है हिंदुस्तान और यहां की भारतीयता.
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (Delhi) के महरौली में एक ख़ास तरह का फ़ेस्टिवल सेलिब्रेट किया जाता है, जिसे ‘फूल वालों की सैर’ के नाम से जाना जाता है. ख़ास बात यह है कि इस जश्न को हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदाय के लोग मिलकर बड़े ही जोश-ओ-ख़रोश के साथ मनाते हैं. जहां एक तरफ़ ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के शागिर्द, महान सूफ़ी संत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की दरगाह पर फूलों की चादर चढ़ाई जाती है, तो वहीं दूसरी तरफ़ इलाक़े में ही स्थित श्री योग माया मंदिर पर फूलों का पंखा और छत्र चढ़ाया जाता है. ग़ौर करने वाली बात ये है कि दोनों मौक़ों पर हिंदू- मुस्लिम दोनों समुदाय के लोग मौजूद होते हैं. जिस तरह धूम-धाम से ईद और दिवाली मनाई जाती है, बिल्कुल उसी तरह ‘फूल वालों की सैर’ को भी सेलिब्रेट किया जाता है.
महरौली इलाक़े में होने वाला 'फूल वालों की सैर' सदियों पुराना फ़ेस्टिवल है. यह मॉनसून के बाद और सर्दी शुरू होने से ठीक पहले मनाया जाता है. यह मुग़लों के दौर से चला आ रहा एक ऐसा त्योहार है, जो सांप्रदायिक सौहार्द, राष्ट्रीय एकता और हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की गवाही देता है. ‘फूल वालों की सैर’ को आयोजित करने की ज़िम्मेदारी ‘अंजुमन सैर-ए-ग़ुल फ़रोसां’ उठाती है, जो ख़ास इसी के लिए बनाई गई एक कमेटी है. हिंदू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग परंपरा के मुताबिक, मंदिर और दरगाह पर तो जाते ही हैं, साथ ही इस एक हफ़्ते के सेलिब्रेशन में कई और तरह की एक्टिविटीज़ भी शामिल हैं. इस साल 20 से 26 अक्टूबर तक ‘फूल वालों की सैर’ जश्न मनाया गया.
इस साल एक हफ़्ते के जश्न में दरगाह और मंदिर पर जाकर परंपरा निभाने के साथ ही पेंटिंग कॉम्पटीशन, कुश्ती और कबड्डी का खेल आयोजित किया गया. इसके अलावा और भी कई चीज़ें शामिल हैं.
20 अक्टूबर: सर्वोदय को.एड.सीनियर सेकेंडरी विद्यालय क़ुतुब महरौली में बच्चों की का पेंटिंग कॉम्पटीशन
21 अक्टूबर: दिल्ली के एलजी विनय सक्सेना और डिवीजनल कमिश्नर को ‘फूलों का पंखा’ पेश किया गया.
22 अक्टूबर: फूलों की शहनाई और ढोल ताशा के साथ चांदनी चौक में सद्भावना यात्रा निकाली गई, जिसमें सभी समुदाय के लोगों ने शिरकत की.
23 अक्टूबर: महरौली के डीडीए आम बाग़ में कुश्ती और कबड्डी का खेल हुआ.
24 अक्टूबर: सूफ़ी संत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की दरगाह पर फूलों की चादर चढ़ाई गई, जिसमें दिल्ली के उपराज्यपाल विनय सक्सेना भी शामिल हुए.
25 अक्टूबर: श्री योग माया मंदिर में फूलों का पंखा और छत्र चढ़ाया गया. इसमें भी उपराज्यपाल की मौजूदगी रही.
26 अक्टूबर: देश के कई राज्यों से जुड़े सांस्कृतिक कार्यकर्म और क़व्वाली
महरौली के ऐतिहासिक जहाज़ महल के अहाते में ‘फूलों वालों की सैर’ जश्न अपने आख़िरी दौर में पहुंचा. इस दौरान देश की विविधता और राष्ट्रीय एकता को प्रजे़ंट करने वाले कई सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए, जिसमें लोक कथा और कव्वाली शामिल हैं. 26-27 अक्टूबर की दरमियानी रात शानदार क़व्वाली हुई. रईस अनीस साबरी (Rasi Anis Sabri), सनम वारसी (Sanam Warsi) और आसिफ़ मलिक साबरी (Asif Malik Sabri) के कलाम सुनकर हज़ारों की तादाद में आई अवाम झूमती नज़र आई.
जश्न के आख़िरी दौर में 26 अक्टूबर की शाम दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी ने शिरकत किया. आतिशी के अलावा महरौली के विधायक नरेश यादव और मालवीयनगर विधायक सोमराथ भारती भी प्रोग्राम में शामिल हुए. मुख्यमंत्री आतिशी ने अवाम को संबोधित करते हुए कहा, "फूलवालों की सैर ने दिल्ली की सदियों पुरानी गंगा-जमुनी तहज़ीब की परंपरा को कायम रखा है. नफ़रत की राह छोड़कर, इंसान को इंसानियत से जोड़ने वाला ये त्यौहार दिल्ली की एकता और विविधता की असली पहचान है."
‘फूल वालों की सैर’ की परंपरा 19वीं सदी के दूसरे दशक में लाल क़िले के अंदर हुई एक घटना से जुड़ी है. वाक़ि’आ सन 1812 में अकबर शाह द्वितीय (Akbar Shah II) के दौरा का है. अंग्रेज़ों के बढ़ते क़दम राजधानी तक पहुंचर लाल क़िले में जम चुके थे. अकबर शाह, नाम मात्र ही बादशाह के रूप में तख़्त-नशीं थे. ब्रितानी हुकूमत के प्रतिनिधि मिस्टर आरकिबाल्ट सीटन रेज़िडेंट हुआ करते थे और उन्होंने राजकाज पर काफ़ी कंट्रोल जमा रखा था.
अकबर शाह द्वितीय के बाद उनके बड़े बेटे शहज़ादे मिर्ज़ा अबू ज़फ़र (बहादुर शाह ज़फ़र) बादशाहियत के हक़दार थे लेकिन बादशाह अपने छोटे बेटे मिर्ज़ा जहांगीर को शाही विरासत सौंपना चाहते थे. अकबर शाह द्वितीय के बेटे मिर्ज़ा जहांगीर को उनके बड़े भाई ज़फ़र की जगह पर उत्तराधिकारी बनने के अधिकार से वंचित कर दिया गया. एक दिन, जब दरबार में ब्रिटिश रेज़िडेंट अकबर शाह से मिलने गया, तो उत्तराधिकार का मुद्दा फिर से उठा, लेकिन रेज़िडेंट ने ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़ैसले को ज़फर के हक़ में बताया. इससे ग़ुस्सा होकर मिर्ज़ा जहांगीर ने सीटन पर गोली चला दी लेकिन वो चूक गए. इसके बाद अंग्रेज़ी हुकूमत ने शहज़ादे को इलाहाबाद (प्रयागराज) भेज दिया और क़िले में नज़रबंद करवा दिया.
जहांगीर को सज़ा मिलने के बाद दिल्ली के लोगों के दिलों में उदासी छा गई. उन्हें दिल्ली से निकाले जाने के ग़म में गली-गली गीत गाए गए. मिर्ज़ा जहांगीर की मां ने बेटे की वापसी के लिए मन्नत मानी कि वापस आने पर वो ख़्वाजा बख़्तियार काकी की मज़ार पर फूलों की चादर और मसहरी चढ़ाएंगी. अंग्रेज़ों के नरम पड़ने के बाद मिर्ज़ा जहांगीर को दिल्ली वापस भेजा गया और इस दौरान धूम-धाम के साथ शहज़ादे का इस्तक़बाल किया गया. जहांगीर के वापस आ जाने के बाद बेग़म ने अपनी मन्नत पूरी की. इसी घटना की याद में आज महरौली के हिंदू और मुसलमान मिलकर ‘फूल वालों की सैर’ फ़ेस्टिवल सेलिब्रेट करते हैं. जहांगीर की वापसी के बाद से यह त्यौहार हर साल मनाया जाता रहा. साल 1856 तक मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने इस फ़ेस्टिवल की अध्यक्षता की.
1857 में ब्रिटिश अधिकारियों ने इस फ़ेस्टिवल को सेलिब्रेट करने की अनुमति देना बंद कर दिया लेकिन दिल्ली वालों ने इस परंपरा को फिर से ज़िंदा किया और यह 1947 में दोबारा बंद हो गया. आज़ादी के बाद साल 1960-61 के आस-पास चांदनी चौक के व्यापारी और ज़मींदार योगेश्वर दयाल ने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संरक्षण में इस फेस्टिवल को फिर से ज़िंदा किया. उन्होंने 1961 में एक रजिस्टर्ड सोसायटी अंजुमन-सैर-ए-गुल फ़रोशां की स्थापना की और भारत के राज्यों को फूल वालों की सैर में भाग लेने का निर्देश दिया. साल 2006 में दयाल के गुज़र जाने के बाद, सोसायटी के मेंबर्स ने उनकी बेटी उषा दयाल कुमार को महासचिव चुना और अब फ़ेस्टिवल उन्हीं की रहनुमाई में होता है.
अंजुमन सैर-ए-ग़ुल फरोशां की जनरल सेक्रेटरी उषा दयाल कुमार, aajtak.in के साथ बातचीत में कहती हैं, “फूल वालों की सैर क़ौमी एकता का प्रोग्राम है क्योंकि ये ऐसा फ़ेस्टिवल है, जिसको हिंदू-मुस्लिम मिलकर मनाते हैं. योगमाया मंदिर में जाते वक़्त मुसलमान आगे होते हैं और दरगाह पर हिंदू आगे-आगे जाते हैं. यहां किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं है. हम सब मिलकर एक साथ बैठकर खाना खाते हैं. हम, दोनों कम्यूनिटी के लोग शुरू से जुड़े हैं और अब रिश्तेदारी भी हो गई है. हमारे बच्चे मुस्लिम फ़ैमिली के लोगों को मामा बोलते हैं और मुस्लिम परिवार के लोग मुझे बुआ बोलते हैं.”
उषा कुमार बताती हैं कि यह सिर्फ एक फंक्शन नहीं है, बल्कि हमारा कल्चर है. पहले ये एक दिन का होता था लेकिन अब हम इसको सात दिनों तक सेलिब्रेट करते हैं.
अंजुमन सैर-ए-ग़ुल फ़रोशां के वाइस प्रेसिडेंट, विनोद शर्मा कहते हैं, “हमारा मक़सद है कि हिंदुस्तान के अंदर अम्न-चैन और भाईचारा बना रहे. महरौली इलाक़े में बहुत भाईचारा है. दरगाह में एक जिलानी होते थे, उनकी मां हमारे पिता को भाई मानती थीं. रक्षाबंधन के मौक़े पर समुदाय के लोग आपस में राखी बांधते हैं. हमारी यही कोशिश है कि हम इस मशाल को लेकर आगे बढ़ें.”
विनोद शर्मा आगे कहते हैं कि हम लोग योग माया मंदिर में फूल चढ़ाने के बाद हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह पर जाते हैं, अमीर ख़ुसरो की मज़ार पर जाते हैं और वहां पर पहुंचने से पहले मुस्लिम समुदाय के लोग हमारे लिए नाश्ता तैयार रखते हैं. हिंदुस्तान के अंदर अम्न, चैन और भाईचारे से बड़ी कोई चीज़ नहीं है. हम भगवान से यही दुआ करते हैं कि ये हमेशा ज़िंदा रहे.
'फूल वालों की सैर' फेस्टिवल के धूम-धाम में एक ज़रूरी चीज़ गायब नज़र आती है, वो यह है कि जिसकी वजह इस फ़ेस्टिवल की शुरुआत हुई, उसे कोई नहीं याद करता. कोई भी शख़्श मिर्ज़ा जहांगीर की क़ब्र पर नहीं जाता है.
दिल्ली के मुअर्रिख़ (इतिहाकार), फ़िल्ममेकर और हेरिटेज वॉक के मशहूर, सोहेल हाशमी (Sohail Hashmi) कहते हैं, "फूल वालों की सैर फ़ेस्टिवल में बहुत एनर्जी होती है, कमाल का मेला लगता है. इसमें शहर को चलाने वाले- अख़बार बांटने वाले, सब्ज़ी बेचने वाले, रिक्शा चलाने वाले सहित तमाम लोग हज़ारों की तादाद में शामिल होते हैं. यह दिल्ली वालों का इंक्लूसिव फ़ेस्टिवल है क्योंकि यह शहज़ादे को रिहा किए जाने के बाद शुरू हुआ. उसके बाद इसको नेशनल इंटीग्रेशन का फ़ेस्टिवल बना दिया गया, फिर कई राज्यों से झंडे आने लगे."
सोहेल हाशमी के मुताबिक, 'फूल वालों की सैर' फ़ेस्टिवल को सेलिब्रेट करने की ज़रूरत है लेकिन उन्हें एक चीज़ अखरती है. वे कहते हैं, “मेरा मसला है कि इस फ़ेस्टिवल का त'अल्लुक़ योगमाया मंदिर और बख़्तियार काकी की मज़ार से था, वो इंक्लूसिव है लेकिन अब एलजी और सीएम के यहां लोग शहनाई बजाने क्यों जाते हैं? अब इस फ़ेस्टिवल को ब्यूरोक्रेट्स ने टेकओवर कर लिया है, तो फिर लोगों का इनिशिएटिव कहां रह गया? आप शहनाई बजाने एलजी के पास क्यों जा रहे हैं? प्रोग्राम के दौरान उपराज्यपाल और सीएम आएं लेकिन उनके घर जाकर शहनाई बजाने की क्या ज़रूरत है? इस प्रोग्राम को राजनीतिक नहीं बनाया जाना चाहिए.
सोहेल हाशमी, सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं, "इस मुल्क की अवाम बिना ब्यूरोक्रेट्स और सरकार को शामिल किए कुछ कर सकती हैं या नहीं? लोगों के पास भी कुछ रीजेंसी होनी चाहिए. हमारे देश में लोकतंत्र है. प्रोग्राम को सरकार के द्वारा सपोर्ट किया जा सकता है, लेकिन एलजी के घर जाकर शहनाई नहीं बजाई जानी चाहिए."
आयोजकों के मुताबिक, ‘फूल वालों की सैर’ के लिए आयोजन समिति, अंजुमन-सैर-ए-ग़ुल फ़रोशां को भारत सरकार राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भावना पुरस्कार से नवाज़ चुकी है. कमेटी को यह पुरस्कार भारत की पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 12 अगस्त 2009 को दिया था.
मोहम्मद साक़िब मज़ीद