सदन Hung तो स्पीकर ही King... वाजपेयी जैसा दबाव मोदी पर भी... संसदीय पावरगेम में कितना अहम है रोल?

एनडीए सरकार में टीडीपी लोकसभा स्पीकर का पद चाह रही है. इससे पहले वाजपेयी सरकार में भी जब टीडीपी शामिल थी, तो उसके पास स्पीकर का पद था. अब मोदी सरकार में भी टीडीपी स्पीकर का पद मांग रही है. ऐसे में जानते हैं कि लोकसभा स्पीकर के पास ऐसी क्या पावर होती है, जो टीडीपी इसकी मांग कर रही है.

Advertisement
जानें लोकसभा स्पीकर का पद इतना अहम क्यों है जानें लोकसभा स्पीकर का पद इतना अहम क्यों है

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 06 जून 2024,
  • अपडेटेड 6:57 PM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अब 'सबका साथ' चाहिए. क्योंकि 2014 और 2019 में तो बीजेपी के पास बहुमत की 272 से ज्यादा सीटें थीं. लेकिन इस बार बीजेपी की गाड़ी 240 पर अटक गई है. हालांकि, ये साफ हो गया है कि नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं और 9 जून को शपथ ले सकते हैं.

लेकिन तीसरी बार एनडीए की सरकार में नरेंद्र मोदी को जिन दो पार्टियों की सबसे ज्यादा जरूरत है, उनमें एक है तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के चंद्रबाबू नायडू और दूसरी है नीतीश कुमार की जेडीयू. इन दोनों पार्टियों के पास 28 सांसद हैं और पांच साल तक एनडीए की सरकार बनाए रखने के लिए इनका साथ जरूरी बन जाता है.

Advertisement

नीतीश कुमार की जेडीयू और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी, एनडीए सरकार में कई अहम पद चाहती हैं. नीतीश कुमार ने जहां चार सांसदों पर एक मंत्री का फॉर्मूला दिया है. तो वहीं टीडीपी ने सड़क परिवहन, स्वास्थ्य और कृषि जैसे बड़े मंत्रालय मांगे हैं. इसके साथ ही टीडीपी की नजर लोकसभा स्पीकर की कुर्सी पर है. बताया जा रहा है कि टीडीपी लोकसभा स्पीकर का पद भी मांग रही है.

इससे पहले वाजपेयी सरकार में भी टीडीपी ने लोकसभा का स्पीकर पद रखा था. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में टीडीपी के दिवंगत नेता जीएमसी बालयोगी लोकसबा के अध्यक्ष थे. अब जब टीडीपी एक बार फिर एनडीए में अहम भूमिका आई है तो उसकी नजरें फिर स्पीकर की कुर्सी पर टिक गई हैं.

पर लोकसभा स्पीकर का पद इतना अहम क्यों है? और टीडीपी इस पद को क्यों चाहती है? ये समझते हैं, लेकिन उसके पहले जानते हैं कि लोकसभा स्पीकर का चुनाव कैसे होता है?

Advertisement

प्रोटेम स्पीकर, फिर स्पीकर

आम चुनाव होने और नई सरकार के गठन के बाद नए सदस्यों को शपथ दिलाने के लिए प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति की जाती है. प्रोटेम स्पीकर आमतौर पर लोकसभा के सबसे सीनियर सांसद को बनाया जाता है. 

प्रोटेम स्पीकर की देखरेख में ही लोकसभा स्पीकर का चुनाव होता है. आम चुनाव के बाद सरकार और विपक्ष मिलकर स्पीकर के लिए उम्मीदवार का नाम घोषित करते हैं. इसके बाद प्रधानमंत्री और संसदीय कार्य मंत्री उम्मीदवार के नाम का प्रस्ताव करते हैं. अगर एक से ज्यादा उम्मीदवार हैं तो फिर बारी-बारी से प्रस्ताव रखा जाता है और जरूरत पड़ने पर वोटिंग भी कराई जाती है. जिसके नाम का प्रस्ताव मंजूरी होता है, उसे स्पीकर चुना जाता है.

स्पीकर का कार्यकाल उनके चुनाव की तारीख से लेकर अगली लोकसभा की पहली बैठक के ठीक पहले तक होता है. यानी, जब तक 18वीं लोकसभा की पहली बैठक नहीं होती, तब तक ओम बिरला ही स्पीकर रहेंगे.

यह भी पढ़ें: एक ने मांगा था इस्तीफा तो दूजे ने छोड़ा था 17 साल पुराना साथ... नायडू-मोदी-नीतीश के रिश्तों की कहानी

लोकसभा स्पीकर की पावर क्या?

लोकसभा स्पीकर का पद संवैधानिक पद होता है. सदन का सबसे प्रमुख व्यक्ति स्पीकर ही होता है. सदन में स्पीकर की मंजूरी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता.

Advertisement

स्पीकर को सदन की मर्यादा और व्यवस्था बनाए रखनी होती है. अगर ऐसा नहीं होता है तो वो सदन को स्थगित कर सकते हैं या फिर निलंबित कर सकते हैं. इतना ही नहीं, मर्यादा का उल्लंघन करने वाले सांसदों को भी स्पीकर निलंबित कर सकते हैं.

पाला बदलने वाले सदस्यों की अयोग्यता पर भी स्पीकर दल-बदल कानून के तहत फैसला करते हैं. हालांकि, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में साफ कर दिया था कि स्पीकर के फैसले को अदालत में चुनौती दी जा सकती है.

हालांकि, इसके बावजूद दल-बदल के मामले में स्पीकर के पास अहम पावर होती हैं. पिछले साल महाराष्ट्र के स्पीकर राहुल नार्वेकर पर विधायकों की अयोग्यता के मामले पर सुनवाई करने के दौरान पक्षपाती रवैया अपनाने का आरोप लगा था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ठाकरे गुट से अलग होकर आए एकनाथ शिंदे और उनके विधायकों के खिलाफ दल-बदल विरोधी कार्यवाही को सुनने और अंतिम फैसला लेने का मौका दिया था.

आजादी के बाद से अब तक लोकसभा स्पीकर का पद सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के पास ही जाता है, जबकि डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष को मिलता है. हालांकि, डिप्टी स्पीकर के पद की बाध्यता नहीं है. पिछली लोकसभा में डिप्टी स्पीकर का पद खाली रहा था.

Advertisement

यह भी पढ़ें: पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण... BJP को कहां कितना नफा-नुकसान? कैसे 240 पर अटक गई गाड़ी

नीतीश कुमार, पीएम मोदी, चंद्रबाबू नायडू और पवन कल्याण. (फोटो-PTI)

स्पीकर की कुर्सी पर नजरें क्यों?

टीडीपी अब तक कई गठबंधन का हिस्सा रह चुकी है. वाजपेयी सरकार में टीडीपी, एनडीए की सहयोगी थी और उस वक्त भी स्पीकर का पद उसने ही रखा था.

लोकसभा स्पीकर का पद काफी अहम होता है. जब सदन में बहुमत साबित करने की बात आती है या फिर दल-बदल कानून लागू होता है तो स्पीकर की भूमिका काफी अहम हो जाती है. मान लीजिए कि अगर भविष्य में एनडीए की कोई भी पार्टी टूटती है या उसके कुछ सांसद पाला बदलते हैं तो फिर उनकी अयोग्यता पर फैसला स्पीकर ही लेंगे.

इसके अलावा जब भी सदन में कोई भी विवाद की स्थिति बनती है तो स्पीकर का फैसला ही अंतिम होता है.

लोकसभा स्पीकर से जुड़ी कुछ रोचक बातें

- पहले स्पीकरः 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव के बाद जब पहली लोकसभा का गठन हुआ तो इसमें कांग्रेस के गणेश वासुदेव मावलंकर को स्पीकर नियुक्त किया गया था. 1956 में उनके निधन के बाद कांग्रेस के ही अनंतशयनम अयंगार ने स्पीकर का पद संभाला था.

- पहले दलित स्पीकरः अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में टीडीपी के जीएमसी बालयोगी लोकसभा स्पीकर थे. वो इस पद पर लगभग चार साल रहे. बालयोगी लोकसभा के पहले दलित स्पीकर थे.

Advertisement

- जब राष्ट्रपति बने स्पीकरः 1977 में छठी लोकसभा के गठन के बाद नीलम संजीव रेड्डी स्पीकर बने. रेड्डी पहले गैर-कांग्रेसी स्पीकर थे. वो 109 दिन ही इस पद पर रहे और जुलाई 1977 में राष्ट्रपति बन गए.

- पहली महिला स्पीकरः 2009 के चुनाव के बाद यूपीए-2 की सरकार में कांग्रेस की मीरा कुमार लोकसभा की अध्यक्ष बनीं. मीरा कुमार लोकसभा की पहली महिला स्पीकर थीं. उनके बाद 2014 में एनडीए की सरकार में सुमित्रा महाजन स्पीकर बनीं.

यह भी पढ़ें: आगाज और अंजाम, INDIA गठबंधन के नाम... वो दो तारीखें जो NDA को भारी पड़ गईं

जब स्पीकर को ही पार्टी से निकाल दिया

2004 से 2009 की यूपीए-1 की सरकार में लोकसभा स्पीकर का पद सीपीएम के पास था. सीपीएम के सोमनाथ चटर्जी लोकसभा स्पीकर थे. कांग्रेस की अगुवाई वाली इस सरकार को सीपीएम ने भी समर्थन दिया था.

2008 में भारत-अमेरिका के बीच न्यूक्लियर डील होने से नाराज सीपीएम ने यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. सीपीएम ने सोमनाथ चटर्जी पर भी इस्तीफा देने का दबाव बनाया, लेकिन उन्होंने गैर-पक्षपाती होने का हवाला देते हुए इससे इनकार कर दिया. इसके बाद चटर्जी को सीपीएम से निकाल दिया गया.

अगस्त 2018 में सोमनाथ चटर्जी के निधन के बाद उनके परिजनों ने सीपीएम नेताओं को उनके अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं होने दिया. साथ ही परिजनों ने उनके शव को सीपीएम के झंडे से लपेटने से भी इनकार कर दिया था.

---- समाप्त ----

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement