बलराज साहनी को देश के सबसे बेहतरीन एक्टर्स में शुमार किया जाता है लेकिन उनकी पहचान महज एक्टिंग तक ही सीमित नहीं थी. उन्हें अपने दौर का रिबेल आर्टिस्ट और बुद्धिजीवी भी माना जाता था. अमिताभ बच्चन उन्हें अपने से बेहतर एक्टर बता ही चुके थे. आइए जानते हैं बहुमुखी प्रतिभा के धनी बलराज साहनी के बारे में कुछ बातें.
बलराज के पास अंग्रेजी लिटरेचर में मास्टर्स डिग्री थी. इसके अलावा उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से हिंदी लिटरेचर में भी डिग्री हासिल की थी. उन्होंने कुछ समय के लिए रबीन्द्र नाथ टैगोर के शांतिनिकेतन में अपनी पत्नी के साथ पढ़ाया भी था. अपने फिल्मी करियर से पहले बलराज साहनी ने बीबीसी के साथ काम किया और यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध को कवर किया था. इसके चलते वे मशहूर लेखक जॉर्ज ओरवेल और टीएस एलियट की नज़रों में भी आ गए थे.
बलराज साहनी ने देव आनंद की फिल्म बाजी की स्क्रिप्ट लिखी थी और उनके बड़े भाई चेतन आनंद की फिल्म हकीकत में काम किया था. बलराज और देव अच्छे दोस्त थे लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब बलराज ने देव से कहा था कि तुम कभी भी एक्टर नहीं बन पाओगे.
बलराज साहनी कई भाषाओं के जानकार थे. वे हिंदी, उर्दू और इंग्लिश में महारत हासिल करने के चलते ही बीबीसी में रेडियो होस्ट और न्यूज रीडर की भूमिका में नज़र आए थे. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वे भारत के लोगों को विश्व युद्ध की खबरें मुहैया करा रहे थे. इसके अलावा वे संस्कृत भी पढ़ना जानते थे. उन्होंने अपनी ऑटोबायोग्राफी में बताया है कि उन्होंने कालीदास की मशहूर अभिजनना शंकुतलम को संस्कृत में पढ़ा हुआ था.
साहनी ने हिंदुस्तान की कसम, काबुलीवाला, गरम हवा, अमन, वक्त, एक फूल दो माली, घर संसार, अनुराधा जैसी कई फिल्मों में काम किया. अपने करियर के दौरान उन्होंने 93 फिल्मों में काम किया जिनमें से दो फिल्में उनके मरने के बाद रिलीज हुई.
उन्हें हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का पहला मेथड एक्टर कहा जाता था. वो अपने किरदार को नैचुरल दिखाने के लिए काफी मेहनत करते थे. फिल्म दो बीघा जमीन के लिए उन्होंने कलकत्ता के थर्ड क्लास कंपार्टमेंट में यात्रा की थी ताकि वे गरीब लोगों के माइंडसेट को समझ सकें. उन्होंने इसके अलावा शहर के रिक्शा चलाने वाले यूनियन को भी जॉइन किया था और अपने रोल के लिए काफी समय तक रिक्शा भी चलाया था. इस दौरान वे चोटिल भी हो गए थे.
इस फिल्म ने सिल्वर जुबली तक का सफर तय किया और कई अवॉर्ड्स जीते. हालांकि 1955 में मॉस्को में मार्शल स्टालिन ने इस फिल्म को देखा था तो उन्होंने इस फिल्म को सोशलिस्ट डॉक्यूमेंट्री बताया था. स्टालिन की इस बात से बलराज काफी हर्ट हुए थे क्योंकि वे अपने कम्युनिस्ट आइकॉन से बेहतर रिव्यू की उम्मीद कर रहे थे.
उन्होंने कई किताबें लिखी. मेरा पाकिस्तानी सफरनामा और मेरा रुसी सफरनामा उनकी पाकिस्तान और रुस की यात्रा पर आधारित थी. इसके अलावा उन्होंने लाल बत्ती जैसी फिल्म को डायरेक्ट किया था लेकिन फिल्म खास नहीं चली. हालांकि गुरुदत्त की फिल्म बाजी का स्क्रीनप्ले लिखने के साथ ही उन्हें इंडस्ट्री में प्रासंगिकता हासिल हुई थी. बलराज हमेशा से ही फिल्म स्टूडियोज में मजदूरों की हालातों को सुधारने के पक्ष में थे. उन्होंने कई ऐसे मामले उठाए जिनसे सरकार को कोफ्त होती थी और अपने लेफ्ट विचारधारा के चलते उन्हें जेल भी जाना पड़ा था.
साल 1970 में उन्होंने पीके वासुदेवन नायर के साथ काम किया और एक लेफ्टिस्ट यूथ संस्था खड़ी की. ये सीपीआई की यूथ विंग थी और बलराज इसके पहले प्रेसीडेंट थे. 1972 में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अपनी यादगार स्पीच भी दी थी.
बलराज अपनी बेटी शबनम की आकस्मिक मौत से काफी सदमे में थे. उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई थी. बलराज जब अपनी आखिरी सांसे गिन रहे थे तो उन्होंने अपनी पत्नी को दास कैपिटल की कॉपी लाने को कहा था जिसे कम्युनिस्ट मूवमेंट की बाइबल समझा जाता है. बलराज उस किताब को अपने सिरहाने रख कर चल बसे थे.