रेट्रो रिव्यू की सीरीज में इस हफ्ते पढ़ें- धर्मेंद्र-आशा पारेख स्टारर राज खोसला की- मेरा गांव मेरा देश (1971) का रिव्यू.
कलाकार: धर्मेंद्र, विनोद खन्ना, आशा पारेख, जयंत
निर्देशक: राज खोसला
संगीत: लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल
कहां देखें: यूट्यूब
कहानी का संदेश: बदला लेने से नहीं, दूसरों को समझने से इंसान सुधरता है.
हिंदी सिनेमा के महान निर्देशकों की बात होते ही गुरु दत्त, राज कपूर और बिमल रॉय के नाम जरूर लिए जाते हैं. लेकिन उन्हीं के बराबर खड़े एक ऐसे निर्देशक हैं, जिनकी चर्चा कम हुई- राज खोसला. वे ऐसे फिल्मकार थे जिनमें नॉयर, सस्पेंस, रोमांस, मेलोड्रामा और एक्शन- सब पर बराबर पकड़ थी.
बहुमुखी फिल्मकार: राज खोसला
1925 में जन्मे राज खोसला को संगीत से खास लगाव था. गुरु दत्त के सान्निध्य में उन्होंने सिनेमा सीखा और उनकी दृश्यात्मक अनुशासन को अपनाया, लेकिन अपनी अलग पहचान बनाई.
1950–60 के दशक में उन्होंने C.I.D. (1956) जैसी फिल्म से भारतीय नॉयर की नींव रखी. इसके बाद आई उनकी मशहूर साधना ट्रिलॉजी- वो कौन थी?(1964), मेरा साया (1966), अनिता (1967). इन फिल्मों में रहस्य, गॉथिक रोमांस और संगीत का अनोखा मेल था. ‘लग जा गले’ जैसे गीत सिर्फ गाने नहीं, बल्कि भावनात्मक बेचैनी की पहचान बन गए.
इसके बीच उनकी एक ऐसी साहसी फिल्म भी आई, जो आज भी सुनने में चौंकाने वाली लगती है- बंबई का बाबू. देव आनंद और सुचित्रा सेन स्टारर इस फिल्म ने रिश्तों से जुड़े एक वर्जित विषय (इंसैस्ट जैसे टैबू) को छुआ, लेकिन राज खोसला ने इसे इतनी समझदारी और संवेदनशीलता से संभाला कि फिल्म बेहद असरदार बन गई.
1960 के दशक के आखिर तक आते-आते खोसला ने सामाजिक विषयों पर फिल्में बनानी शुरू कीं. दो रास्ते (1969) में उन्होंने संयुक्त परिवार के टकराव और भावनात्मक उलझनों को राजेश खन्ना की दमदार अदाकारी के जरिये दिखाया. यह फिल्म बदलते हुए मिडिल क्लास भारत की साफ तस्वीर पेश करती है.
लेकिन राज खोसला खुद को किसी एक ढांचे में बंधने नहीं देते थे. दो साल बाद ही उन्होंने सबको चौंकाते हुए वेस्टर्न स्टाइल एक्शन की ओर रुख किया और मेरा गांव मेरा देश बनाई. इस फिल्म के जरिये उन्होंने शोले की सिनेमाई बुनियाद तैयार कर दी- चार साल पहले, जब शोले ने हिंदी सिनेमा की दिशा ही बदल दी.
संगीत और माहौल
राज खोसला की सोच के बिल्कुल मुताबिक था लक्ष्मीकांत- प्यारेलाल का संगीत. धुनें मधुर भी हैं और रफ्तार से भरी भी- रोमांस और बगावत, दोनों का संतुलन बनाए हुए. ‘मार दिया जाए’ में बगावती जोश है, जबकि ‘कुछ कहता है ये सावन’ धर्मेंद्र और आशा पारेख के बीच की नर्मी और अपनापन खूबसूरती से दिखाता है. उस दौर की कई फिल्मों के उलट, जहां गाने कहानी को रोक देते थे, खोसला ने गानों को कहानी की भावनाओं में इस तरह पिरोया कि वे उसका हिस्सा बन गए.
खोसला खुद गायक बनना चाहते थे. संगीत उनका पहला प्यार था. इसलिए उनकी फिल्मों के गाने सिर्फ सजावट नहीं थे, बल्कि माहौल बनाने वाले जरूरी औजार थे. ये किरदारों की मनोदशा को गहराई देते थे और कहानी का मूड बदलते थे- कुछ वैसे ही, जैसे सस्पेंस फिल्मों में 'हिचकॉक' बैकग्राउंड स्कोर का इस्तेमाल करते थे.
दोस्ताना (1980) तक उनकी लगभग हर फिल्म में ऐसे गाने हैं जो आज भी उतने ही ताजा लगते हैं. कई गीत तो जॉनर और पीढ़ियों की सीमाएं पार कर क्लासिक बन गए. जैसे- ‘तू जहां जहां चलेगा’, ‘नैनों में बदरा’, ‘आपके पहलू में आकर’ (मेरा साया), ‘लग जा गले’ और ‘नैना बरसे’ (वो कौन थी?).
क्यों राज खोसला और मेरा गाँव मेरा देश भुला दिए गए?
1971 में बॉक्स ऑफिस पर सफल होने के बावजूद, मेरा गांव मेरा देश 1975 के बाद धीरे-धीरे लोगों की यादों से बाहर होती चली गई. वजह बनी शोले की जबरदस्त और ऐतिहासिक सफलता. शोले ने भारतीय लोकप्रिय सिनेमा का इतिहास ही बदल दिया, और उससे पहले बनी हर वेस्टर्न स्टाइल या डकैत फिल्म बस उसकी भूमिका जैसी लगने लगी. नतीजा यह हुआ कि राज खोसला की यह फिल्म, चाहे कितनी ही नई सोच वाली क्यों न हो, हाशिये पर चली गई. उसे बस “शोले से पहले वाली फिल्म” कहकर याद किया जाने लगा.
लेकिन सिर्फ टाइमिंग ही इसकी दुश्मन नहीं थी. खुद राज खोसला की छवि भी उनके आड़े आई. क्रिटिक्स उन्हें उनकी सधी हुई सस्पेंस फिल्मों की वजह से “महिलाओं के निर्देशक” के तौर पर जानते थे. ऐसे में उनका एक्शन की तरफ जाना लोगों की उस बनी-बनाई सोच से मेल नहीं खाता था.
इसके अलावा, उनके पास वो मजबूत सिस्टम भी नहीं था- जैसे अपना स्टूडियो, बड़ा बैनर या खुद को लगातार प्रमोट करने वाली कहानी, जो राज कपूर या यश चोपड़ा जैसे फिल्मकारों को अपनी विरासत जिंदा रखने में मदद करता है.
उनकी फिल्मों को ज्यादातर उनके सितारों- देव आनंद, साधना, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र- के नाम से याद किया गया, न कि उनके निर्देशक के तौर पर. इसी वजह से राज खोसला की कला, जो दिखने में लोकप्रिय थी लेकिन भीतर से गहरी भावनाओं और नैतिक तनाव से भरी हुई थी, दशकों तक नजरअंदाज होती रही.
दोबारा खोजे जाने का वक्त
अब वक्त है कि राज खोसला की विरासत को फिर से देखा जाए, उसकी सही कीमत समझी जाए और उसे सम्मान मिले. सिनेमा की भाषा पर उनका असर साफ दिखता है- धुंध में चेहरों को फ्रेम करना, सस्पेंस पैदा करने के लिए खामोशी का इस्तेमाल, भावनाओं को किसी संगीत की तरह धीरे-धीरे रचना, कहानी को आगे बढ़ाने वाले सदाबहार गाने गढ़ना और मुश्किल विषयों को बेहद समझदारी से संभालना. इन सब पर गंभीरता से बात होनी चाहिए. (व्यक्तिगत तौर पर मुझे ‘बंबई का बाबू’ में देव आनंद और सुचित्रा सेन के रिश्ते को उन्होंने जिस तरह संभाला, वह सबसे ज्यादा पसंद है.)
ठीक इसी तरह, मेरा गांव मेरा देश को भी अब हिंदी एक्शन सिनेमा की कड़ी के रूप में नए सिरे से सराहा जा रहा है. गंगा जमुना (1961), मुझे जीने दो (1963) जैसी सामाजिक- डकैत फिल्मों और बाद में आई पूरी तरह एक्शन-वेस्टर्न शोले के बीच राज खोसला की यह फिल्म एक पुल की तरह खड़ी है. यह दिखाती है कि भारतीय फिल्मकारों ने विदेशी जॉनर को कैसे अपनाया और उन्हें अपनी संस्कृति की नैतिकता और भावनाओं के ढांचे में ढाल दिया.
विरासत और सोच
राज खोसला की खूबी भी यही थी और उनकी त्रासदी भी- उनकी बहुमुखी प्रतिभा. उन्होंने कई तरह की फिल्में कीं, कई शैलियों में माहिर थे, लेकिन किसी एक की पहचान बनकर नहीं रह गए. जहां उनके समकालीन फिल्मकार अपनी अलग-अलग पहचान के लिए जाने गए- गुरु दत्त की कविताई उदासी, राज कपूर का समाजवादी तमाशा, यश चोपड़ा का भव्य रोमांस. वहीं राज खोसला की पहचान बिखरी हुई थी. लेकिन यही लचीलापन उन्हें हिंदी सिनेमा के सबसे सधे और समझदार कारीगरों में से एक बनाता है.
मेरा गांव मेरा देश उनकी सबसे बड़ी ताकत को दिखाती है- बिना दिखावे के, मनोरंजन को अर्थपूर्ण बना देना. मोचन, सामूहिकता और हिम्मत से भरी इसकी दुनिया आज भी उतनी ही सच्ची और जिंदा लगती है. अगर इतिहास थोड़ा और मेहरबान होता, तो शायद राज खोसला का नाम भी सबसे बड़े भारतीय निर्देशकों के साथ गूंजता. लेकिन शायद सच्चे फिल्म मेकर अपनी फिल्मों की तरह, कभी रोशनी नहीं मांगते- वे बस चुपचाप दोबारा खोजे जाने का इंतजार करते हैं.
जरूर देखने लायक राज खोसला की फिल्में-
वो कौन थी? (1964): सस्पेंस की क्लासिक मिसाल
C.I.D. (1956): पहली इंडियन नॉयर फिल्म
बंबई का बाबू (1960): जटिल और चौंकाने वाले विषय पर बनी फिल्म
मेरा साया (1966): 'हिचकॉक' से प्रेरित गॉथिक रोमांस
दो रास्ते (1969): पारिवारिक ड्रामा की बेहतरीन मिसाल
मैं तुलसी तेरे आंगन की (1978): नूतन की दमदार और यादगार आखिरी बड़ी भूमिका.
संदीपन शर्मा