सिर चंपी, तेल मालिश, चाट-परांठे और इतर-फुलेल... दिल्ली ने भी देखी है सुकून वाली जिंदगी!

देश की राजधानी दिल्ली पिछले कुछ दशकों में तेजी से आधुनिक हुई है. चमचमाती सड़कें, फ्लाईओवर, भीड़ भरे मार्केट प्लेस, भव्य स्मारक, टूरिस्ट प्लेस, थ्री-डी सिनेमाघर, गगनचुंबी इमारतें और मेट्रो-रैपिड रेल जैसी आधुनिक सुविधाएं ये सब मॉडर्न आज की दिल्ली की पहचान हैं. लेकिन इन सबमें आम इंसान की जिंदगी में भागमभाग और समय की कमी भी शामिल हो गई है. लेकिन दिल्ली शहर की आम जिंदगी हमेशा से ऐसी नहीं थी. कभी ये दिल्ली शांति और सुकून के लिए भी जानी जाती थी.

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संदीप कुमार सिंह

  • नई दिल्ली,
  • 13 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 5:16 PM IST

देश की राजधानी दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 के लिए तैयार है. शहरी प्लानिंग का असर कहें या समय की जरूरत दिल्ली की तस्वीर पिछले कुछ दशकों में तेजी से बदली है. दिल्ली शहर प्राचीन से मध्यकालीन और फिर एकाएक आधुनिक होती चली गई. सड़कों और इमारतों का डिजाइन बदलता चला गया. सड़कों पर कारों की बढ़ती संख्या, मेट्रो और रैपिड रेल जैसी आधुनिक सुविधाओं वाली दिल्ली आज हमारे सामने है. लेकिन इससे पहले वाली दिल्ली एक सुकून वाली दिल्ली भी हुआ करती थी और कुछ प्रोफेशन तो ऐसे थे जो सिर्फ दिल्ली में ही दिखते थे. जो लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे. आइए उस दौर में चलते हैं जब दिल्ली भागमभाग वाली नहीं सुकून वाली दिल्ली हुआ करती थी.

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'चेहरे पे सारे शहर के गर्द-ए-मलाल है,
जो दिल का हाल है वही दिल्ली का हाल है...'

पॉल्यूशन, स्मॉग, ट्रैफिक जाम और रेलमपेल भीड़ वाली आधुनिक दिल्ली के हालातों पर ये शायरी एकदम फिट बैठती है. ये शायरी बयां करती है कि आधुनिक होती दिल्ली ने बहुत कुछ पाया तो बहुत कुछ खो भी दिया. राजधानी की पॉलिटिकल पावर और दबंगई, लग्जरी मॉल्स, चमकता शहर और पैसा पाया तो साफ पानी, साफ हवा, खाली सड़कें और जिंदगी का सुकून इस शहर ने खो भी दिया.

(File Photo- Getty)

देश की राजधानी दिल्ली पिछले कुछ दशकों में तेजी से आधुनिक हुई है. चमचमाती सड़कें, फ्लाईओवर, भीड़ भरे मार्केट प्लेस, भव्य स्मारक, टूरिस्ट प्लेस, थ्री-डी सिनेमाघर, गगनचुंबी इमारतें और मेट्रो-रैपिड रेल जैसी आधुनिक सुविधाएं ये सब मॉडर्न आज की दिल्ली की पहचान हैं. लेकिन इन सबमें आम इंसान की जिंदगी में भागमभाग और समय की कमी भी शामिल हो गई है. लेकिन दिल्ली शहर की आम जिंदगी हमेशा से ऐसी नहीं थी. कभी ये दिल्ली शांति और सुकून के लिए भी जानी जाती थी. जहां के लोग चैन से रामलीला का आनंद लेते थे, पार्कों में चैन से फैमिली टाइम बिताते थे, जब हर तरफ पार्कों में धूप सेंकती भीड़, ताश के पत्ते खेलते लोग, गाने गाते और मदारी दिखाते लोगों को घेरे लोगों की भीड़ दिखती थी. उफ़... क्या थे वे दिन भी...

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असली दिल्ली वाला कौन है? इस सवाल का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया जा सकता. इस दिल्ली ने कई सल्तनतें बनते और मिटते भी देखी है, इस दिल्ली ने आजाद भारत को शक्ल लेते हुए भी देखा है और हर बार खुद को नए रूप में ढालती रही ये दिल्ली. क्योंकि दिल्ली में हर काल में लोग आते रहे और यहां के समाज में समाते रहे. इसकी संस्कृति और सामाजिक जीवन को बदलते रहे. विदेशी हमलावर भी आते रहे और देश के अलग-अलग हिस्सों के लोग भी, विभाजन के समय पाकिस्तान से आए लाखों शरणार्थी भी इसी दिल्ली में समा गए और ये दिल्ली सबकी दिल्ली बनी रही. यहां की संस्कृति भी सबकी संस्कृति बनती रही.

राजेंद्र लाल हांडा अपनी किताब में आजाद होते भारत, उसके बदलते समाज और 1940 और 1950 के दशक में रूप बदलती दिल्ली को बहुत अच्छे से उकेरते हैं. हांडा लिखते हैं- 'दिल्ली किसी समय अपने हलवाइयों, परांठेवालों, सलमा सितारे वालों, चाट वालों और तांगेवालों के लिए प्रसिद्ध थी. आज दिल्ली में और चाहे सबकुछ हो लेकिन ये लोग दिखाई नहीं देते. हलवाइयों में बहुमत अब बाहर से आए हुए लोगों का है. इसलिए सोहन हलवे के स्थान पर अब सिंधी हलवा ही अधिक बिकता है. परांठेवालों का व्यापार भी अब मंदा पड़ गया है क्योंकि एक परांठे वाले की जगह अब चार शामी कबाब और गोश्त रोटी वाले हैं. और चाट वालों को छोले कुलचे वाले हाथ करके ले गए.

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(File Photo- Getty)

सलमा-सितारे और गोटा-किनारी का वैसे ही फैशन नहीं रहा. फैशन का तो वैसे भी समाज से गहरा कनेक्शन रहा है. जैसे-जैसे समाज बदलता है, वैसे वैसे फैशन भी बदलता चला जाता है. अब रहा तांगे वालों का मामला. कम से कम 80 प्रतिशत पुराने तांगे वाले दिल्ली से चले गए. उनका बात करने का लहजा भी अलग था और खाली वक्त में सवारियों की राह देखते तांगे पर बैठे-बैठे पतंग भी उड़ा लिया करते थे. आज भी राजधानी दिल्ली में नेताओं-मंत्रियों की रइसी कम नहीं हुई है. इस शहर में सेवकों और शाही रइसी के कई किस्से मशहूर रहे हैं. बादशाह शाह आलम ने तो काम से खुश होकर एक नाई को दारोगा बना दिया था. ऐसे ही और भी कई नानबाई, माली, साधारण सिपाही आदि के भाग्य भी यहां जागे. सम्राट आते-जाते रहे और दिल्ली बनी रही और इसका ये जादू भी.

इसके पहले इनका गजब का जलवा था. मैं पुरानी दिल्ली में रहने वाले एक मित्र के घर अक्सर जाया करता था जो काफी रइस परिवार के थे. शाम के समय मैं जब भी कभी इनके यहां गया, हमेशा चाट और दही-बड़े से मेरी खातिर की गई. असल में दिल्ली के लोग शाम में चाय वगैरह कम पीते हैं. प्रायः चाट का ही सेवन करते हैं. मैंने चाट बेचने वालों की दो-चार दुकानें देखीं. उनकी सर्राफों के से ठाठ थे. कई-कई नौकर, ग्राहकों की भीड़, सैंकड़ों रुपये की रोजाना बिक्री. पता लगा कि इम्पीरियल बैंक के पास एक चाट वाला एक छोटे से कमरे का 70 रुपया मासिक किराया देता है. ख्याल कीजिए 1936 में यह किराया कितना अधिक था, जबकि 40 रुपये में अच्छी खासी कोठी किराए पर मिल जाती थी. इससे जान पड़ता है कि चाट वालों का व्यापार कितना चमका हुआ था.'

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तब के मनोरंजन के साधनों पर हांडा लिखते हैं- 'पुरानी दिल्ली में मनोरंजन के साधन इने गिने ही थे. रईस लोग तो दो घोड़े की फिटन में बैठकर चार-पांच मील की हवाखोरी को ही मनोरंजन समझते थे. अधिक से अधिक कुदसिया बाग में आध घंटा बेंच पर बैठ लिए. मध्यम वर्ग के लोग जामा मस्जिद और लाल किले के सामने जो विशाल मैदान है उसमें घूम-फिरकर या बैठकर दिल बहलाते थे. इन मैदानों में शाम के समय दर्जनों टोलियां इधर-उधर बैठी दिखाई देतीं.

कहीं ताश, चौपड़ या शतरंज की बाजी गरम होनी थी और कहीं कविता पाठ और फिल्मों के गीत गाये जाते थे. कहीं-कहीं गंभीर लोग बीड़ी का सेवन करते हुए बाजार भाव और सोने-चांदी की कीमतों पर भी चर्चा किया करते थे. कुछ शौकीन और हिम्मती लोग भोजन के बाद कपड़े पहन कर रेलवे स्टेशन जाकर प्लेटफार्मों पर चहलकदमी को भी मनोरंजन का माध्यम बना लेते थे. हां, सिनेमाघरों में इतनी भीड़ नहीं होती थी. इस कारोबार के लोग दिल्ली को अपने बिजनेस का थर्ड क्लास केंद्र मानते थे.

(File Photo- Getty)

दिल्ली के हर गली-कूचे में एक चीज हर जगह दिख जाती थी- पालकी. दिल्ली की पर्दानशीन औरतों के लिए शहर के भीतर आने-जाने का यही एकमात्र साधन था. प्रातः काल बहुत सी हिंदू महिलाएं पालकी में यमुना स्नान के लिए जब जाती थीं तब वहां पालकियों की ऐसे भीड़ होती थी जैसे रेलवे स्टेशनों पर तांगों को होती है.

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पार्कों में बैठीं टोलियों के बीच गाहे-बगाहे शर्तें लग जाया करती थीं, कभी हिटलर और हुकूमतें बर्तानियां की जंग के नतीजों को लेकर तो कभी तीतर और बटेर की जंग को लेकर. इस बाजी में विजेता के चुनाव के लिए रास्ते से गुजरते लोगों को भी निमंत्रण देकर बुला लिया जाता था और कई बार लंबे समय तक महफिलें जमा रह जाया करती थीं. 

नई दिल्ली बसी तो बाबू लोगों की जिंदगी सबसे संतोष और सुख का जीवन था. लेकिन उनको सामान बेचने वालों की ठाठ भी कम नहीं थी. बाबुओं की साख बहुत अच्छी थी. दुकानवाले भी नगद से ज्यादा उधार देना पसंद करते थे. इससे उनका ग्राहक बंध जाता था. खरीदने वाले भी पूरी रइसी का जीवन जीने में यकीन रखते थे और उधार को वे आमदनी में जोड़कर देखते थे. एक छोटा सा किस्सा याद आता है. मेरे गांव के एक सज्जन श्री जमालुद्दीन किसी दफ्तर में असिस्टेंट थे. ठाठ से रहते थे. बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते थे. खानसामा, आया, माली आदि रखे हुए थे. उन्होंने एक मोटरकार भी रख छोड़ी थी. एक दिन मेरे यहां खाने पर आए.

मैंने पूछा- हजरत, आपका बहुत खर्च है, वेतन भी काफी होगा?

बोले- हां, अच्छी गुजर हो रही है. वेतन 250 रुपये है, खर्च तो इससे अधिक ही है. मगर कोई दिक्कत नहीं होती. 100 रुपया मासिक तक आसानी से उधार मिल जाता है. नई दिल्ली में ऐसे उदार लोगों की संख्या बहुत ज्यादा थी.'

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जब साल 1931 में राजधानी नई दिल्ली का उद्घाटन हुआ तो चारों ओर मकान और सड़कें तेजी से बनने लगीं. बाबुओं को लाकर बसाया गया और उनकी सेवा के लिए दुकानदार, तांगे वाले और बाकी कारीगर भी बड़ी संख्या में इन इलाकों में आए. नई-नई बस्तियां बस गईं. शहर का फोकस बदला तो पुरानी दिल्ली के इलाकों से भी पुरानी रवायतें बदलने लगीं.

हांडा अपने एक दोस्त का किस्सा लिखते हैं- 'हमारे मित्र कैलाश ठहरे एक खानदानी रईस. भूरा उनके सामने बल्लीमारान में रहता था. वह भी खानदानी नाई था. सिर चम्पी की कला में उसकी जोड़ का नाई शायद ही दिल्ली में कोई और हो. कई बार तो मुझे भी भूरे से मालिश कराने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. क्या चुटकियां और तालियां बजाकर मालिश किया करता था. कभी-कभी तो उंगलियों से माथे को ऐसा दबाता जैसे ट्यूब को टायर के अंदर डालने के समय दबाना पड़ता है. पर इसकी भी एक विधि थी, एक कला थी. दूर से देखने वाले को भले ही यह धींगामुश्ती लगे, पर सिर के मालिक को इसमें अपूर्व आनंद आता. कैलाश तो प्राय सिर की चम्पी कराते हुए सो जाया करते थे.

(Photo: AI Generated)

सिर चम्पी, तेल की मालिश... ये मीठे शब्द शाम के समय दिल्ली के हर पार्क या बाग में सुनाई दिया करते थे. कन्धे पर तौलियां डाले, हाथ में तेलदान लटकाए, जिसमें दो या तीन रंग-विरंगी शीशियां होती थीं, भूरे खां के दर्जनों भाई दिल्ली के पार्कों में फिरा करते थे. उन लोगों को सिर की चम्पी की कला पर पूर्ण अधिकार था. जिसने एक बार चम्पी करा ली वह फिर कुछ दिनों बाद कराने को बाध्य हो जाया करता था. हर पार्क में दो-चार लोग सिर की चम्पी कराते दिख जाया करते थे. ये कला मुसलमान बादशाहों के काल में उन्नति के चरम पर थी लेकिन इस दौर तक उसका जलवा कायम था. चम्पी करने वाले दिन भर घर पर आराम करते और सूर्यास्त के समय घर से बाहर निकलते थे और रात के दस बजे तक एक से तीन रुपये तक जेब में डालकर वापस लौटते थे.

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दिल्ली में आज सिर मालिश करने वाले तो बहुतेरे हैं लेकिन मालिश कराने का शौक रखने वाले कम होते चले जा रहे हैं. पार्कों में आजकल गंडेरी वाले, कुलफी वाले और चना-मूंगफली बेचने वाले ही अधिक दिखाई पड़ते हैं.

एक और पुराना पेशा है जिस पर इन दिनों गहरा प्रहार हुआ है. वह है इतर-फुलेल का काम. दिल्ली के पुराने लोग चाहे कितने ही अच्छे कपड़े पहन लें, जब तक कान में इतर की फुरहरी नहीं डालते थे, अपनी पोशाक को अधूरा ही मानते थे. अमीर लोग ही इतर के शौकीन हों ऐसी बात नहीं थी. पहले इतर-फुलेल लगाने वाले घूमते रहते थे लेकिन अब ये शौक भी खत्म होता जा रहा है. दिल्ली का परंपरागत इतर कारोबार समाप्त प्राय हो गया है.

एक और परंपरागत व्यापार दिल्ली वालों का हुआ करता था आचार-मुरब्बा का कारोबार. आम-नींबू और गलगल से आगे दिल्ली प्रसिद्ध थी बांस, आक के पत्तों, बबूल की फलियों, किरोंदो, केले के पत्तों, कद्दू के बीजों आदि से बने आचारों के लिए भी. शादी-ब्याह में दिल्ली के आचारों को होना एक अलग ही अनिवार्यता हुआ करती थी. यह व्यापार भी रसातल में जा चुका है. शलगम, गाजर, मूली, जैसे पौष्टिक पदार्थों के आगे बांस और बीजों की क्या चलेगी.

दिल्ली का एक और पेशा है जो लुप्त हो रहा है. अब कान की मैल निकालने वाले कहीं दिखाई नहीं देते. एक समय था जब ये लोग अपनी विशिष्ट वेशभूषा में दिल्ली में सभी जगह घूमा करते थे. खाली बैठे आदमियों के लिए जिनके लिए समय काटना तक समस्या हो उनके लिए ये लोग वरदान हुआ करते थे.

अदालतों में तो 10 में से 9 आदमी बेकार ही रहते हैं, वहां इनका व्यापार खूब चलता था. इसके अलावा रेलवे के मुसाफिरखानों में जहां यात्रियों की ट्रेनों का लंबा इंतजार करना पड़ता था, वहां कान के मैल निकालकर ये यात्रियों का वक्त कटा दिया करते थे. साल 1945-46 में जब सचिवालयों में कर्मचारियों की बाढ़ आ गई तो वहां भी इनका कारोबार खूब बन गया था. इनकी वेशभूषा भी खास हुआ करती थी- बंद गले का सफेद पारसी सूट, चूड़ीदार बंद पजामा और सिर पर लाल रंग की गोल बंधी हुई पगड़ी, जिसमें दोनों तरफ व्यापार के अस्त्र-शस्त्र सुसज्जित होते थे.'

आज जिस आधुनिक दिल्ली को हम देख रहे हैं ऐसा नहीं है कि ये सारे कारोबार पूरी तरह खत्म हो गए हैं. इंडिया गेट के आसपास के मैदानों में बाहर से आए सैलानियों के अलावा कई लोकल परिवार भी आपको फुर्सत के क्षण बिताते मिल जाएंगे तो पुरानी दिल्ली के या बाहरी इलाकों में आज भी छुट्टियों के दिन पार्कों में पूरा परिवार आपको धूप सेंकता मिल जाएगा, या कॉलोनियों की गलियों में फुर्सत में ताश खेलते लोग आपको मिल जाएंगे लेकिन यदा-कदा ही. अब ये शहर की रवायत नहीं रही. बल्कि, हर इलाके में छुट्टियों के दिन क्रिकेट के मैदान में अपना जौहर दिखाते लोग आपको अधिकांश जगह अब मिलेंगे या मॉल्स में चहलकदमी करती युवाओं की टोलियां आपको दिख जाएंगी.  क्योंकि कॉरपोरेट संस्कृति में रची-बची दिल्ली में किसी के अब इतना फुर्सत है नहीं लेकिन हर वक्त का अपना मजा है तो ये नई तरह की साड्डी दिल्ली है और दिल्ली है तो जैसी है दिल से है...

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