देश ही क्या दुनिया में जब भी राजनीति की बात की जाती है तो 'चाणक्य' एक ऐसा नाम है जो खुद-ब-खुद जेहन में चला आता है. चाणक्य के साथ नाम आता है चंद्रगुप्त मौर्य का, जिन्होंने मगध से नंदवंश का शासन खत्म कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी. यह भी एक विडंबना ही है कि बहुत से इतिहासकार इतिहास में चंद्रगुप्त की मौजूदगी को तो प्रामाणिक मानते हैं, लेकिन उनके गुरु, मार्गदर्शक और दरबार में प्रमुख सलाहकार मंत्री के रूप में चाणक्य की मौजूदगी को महज कल्पना ही कहते हैं.
क्यों चाणक्य को माना जाता है काल्पनिक पात्र?
हालांकि पहले के इतिहासकारों ने चाणक्य को एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व माना है, लेकिन इतिहास लगातार खोज और शोध का विषय है लिहाजा बाद के या यूं कहें आधुनिक इतिहासकारों ने धीरे-धीरे ऐसा मानना शुरू किया कि चाणक्य की मौजूदगी के प्रामाणिक साक्ष्य नहीं मिलते हैं, क्योंकि चाणक्य के विषय में और उनका जिक्र करने वाले जो भी संदर्भ ग्रंथ सामने आते हैं वह चंद्रगुप्त की मौजूदगी से बहुत काल बाद के हैं. लगभग 200 से 400 साल बाद के.
अर्थशास्त्र ग्रंथ किसने लिखा?
चाणक्य का लिखा ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' माना जाता है, लेकिन उसमें जिन उदाहरणों का जिक्र है उनकी मौजूदगी चंद्रगुप्त के समकालीन नहीं रही है. इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने एक आलेख में लेखक देवदत्त पटनायक भी इसी बात को सामने रखते हैं. वह लिखते हैं कि 'अर्थशास्त्र में जिस चीनी रेशम और रोमन सोने के सिक्कों का उल्लेख है,वह मौर्य शासन के 400 वर्ष बाद भारत पहुंचे थे.'
हालांकि इतिहासकार ऐसा भी मानते हैं कि 'अर्थशास्त्र' किसी एक काल की और एक ही लेखक की रचना नहीं है, बल्कि इसके लेखक एक से अधिक हो सकते हैं और उन्होंने अलग-अलग समय में इसके सूत्रों को लिखा है.
क्या है चाणक्य की इतिहास?
एक सामान्य इतिहास जो आम तौर पर माना जाता है वह यह है कि, विष्णुगुप्त चाणक्य नाम के एक तेजस्वी ब्राह्मण ने सबसे पहले एकसूत्र में बंधे भारत का सपना देखा, विदेशी आक्रमणकारियों की मंशा को समझा और जब इसीके विरुद्ध साम्राज्यों को जोड़ने और एकजुट करने निकला तो नंदवंश के अंतिम शासक घनानंद ने उसका अपमान कर दिया. चाणक्य ने अपनी शिखा खोल ली और संकल्प लिया कि जब तक वह नंदवंश को जड़ से नहीं मिटा देगा और यहां किसी योग्य शासक को नहीं बिठा लेगा, तबतक चैन से नहीं बैठेगा और अपनी शिखा नहीं बांधेगा.
चंद्रगुप्त ही नहीं बिंदुसार के भी प्रधानमंत्री रहे चाणक्य
इस तरह इन 'ऐतिहासिक' कथाओं में चाणक्य एक संकल्पशील ब्राह्मण के तौर पर रेखांकित किए जाते हैं, जहां उनकी छवि पौराणिक ऋषियों जैसे वशिष्ण-विश्वामित्र और परशुराम के समान गढ़ी जाती है. इस तरह इस तेजस्वी ब्राह्मण ने पहले मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त को सत्ता प्राप्त करने और मौर्य साम्राज्य की स्थापना में सहायता की और वहीं, चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य के बाद उनके पुत्र बिंदुसार की भी मुख्य सलाहकार और प्रधानमंत्री के रूप में सेवा की.
किवदंतियों से जीवन पाता किरदार
हालांकि चाणक्य की मौजूदगी जन सामान्य के बीच रची-बसी किवदंतियों के आधार पर उजागर होती है और जिस बड़े पैमाने पर प्राचीन काल लगभग 3000 साल से लगातार चलता चला आ रहा है, इस आधार पर एक झटके में तो चाणक्य की मौजूदगी को खारिज नहीं किया जा सकता है.
क्या कहते हैं इतिहासकार?
इतिहासकार सलिल मिश्रा इस बारे में अपनी राय देते हुए कहते हैं कि 'चाणक्य एक ऐसा ऐतिहासिक किरदार है जिनकी मौजूदगी को नहीं नकारा जा सकता है. यह संभव है कि अर्थशास्त्र, जो प्रसिद्ध ग्रंथ उन्हें समर्पित है, वह एक से अधिक लोगों द्वारा लिखा गया हो, लेकिन चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में चाणक्य नामक किसी व्यक्ति ने महत्वपूर्ण पद संभाला था, इस ऐतिहासिक तथ्य पर कोई संदेह नहीं है.'
घनानंद का ऐतिहासिक काल
हालांकि चाणक्य नाम के किरदार का जिक्र अलग-अलग कथाओं और दस्तावेजों में मिलता है. ये दस्तावेज ऐतिहासिक साक्ष्य कम कथा-कहानी अधिक हैं और उनके काल्पनिक होने की संभावना बहुत अधिक है. दूसरी बड़ी वजह यह है कि इनमें से किसी का भी लेखन काल चंद्रगुप्त-चाणक्य के दौर से मेल नहीं खाता, सभी काफी बाद के हैं. घनानंद का साम्राज्य लगभग 323 ईसा पूर्व का बताया जाता है.
अमेरिकी इतिहासकार थॉमस ट्रॉटमैन ऐसे चार संस्करणों और किवदंतियों की पहचान करते हैं जो अलग-अलग समय के हैं लेकिन उनमें चाणक्य की मौजूदगी प्रमुख तौर पर मिलती है.
बौद्ध ग्रंथ महावंश में चाणक्य की मौजूदगी
चाणक्य का जिक्र पांचवीं-छठी शताब्दी से मिलना शुरू होता है. इस दौरान महावंश नाम का एक बौद्ध ग्रंथ रचा गया, जिसमें भारत समेत श्रीलंका के प्रसिद्ध और शक्तिशाली राजाओं का जिक्र आता है. चंद्रगुप्त इनमें से एक है. इसी जगह चंद्रगुप्त और चाणक्य का नाम साथ-साथ आता है. मूलतः यह ग्रंथ पाली भाषा में लिखा गया है.
जैन ग्रंथ में भी प्रमुख किरदार हैं चाणक्य
इसी तरह जैन धर्म की प्रमुख पुस्तक है परिशिष्टपर्वन, जिसे 12वीं सदी में हेमचंद्र ने लिखा था. इस पुस्तक में वर्णन है कि चाणक्य के मार्गदर्शन में चंद्रगुप्त पहले सम्राट बना, फिर आगे चलकर उसने जैन पंथ को अपना लिया. यह पुस्तक पहली से आठवीं सदी तक मिले सोर्स के आधार पर लिखी गई है.
कथासरित्सागर, बृहत्कथा-मंजरी और बड़कथा
लेकिन, सबसे बड़ा उदाहरण मिलता है 10वीं-11वीं शताब्दी में लिखी गई पु्स्तक कथासरित्सागर. इसकी रचना सोमदेव ने की थी. यह ग्रंथ भी एक बार में नहीं लिखा गया इससे पहले क्षेमेंद्र ने बृहत्कथा-मंजरी लिखी थी जिसकी कहानियां भी कथासरित्सागर से मिलती हुई हैं. इन दोनों ग्रंथों की कहानियां इसलिए एक जैसी हैं क्योंकि इनका मूल ग्रंथ बृहत्कथा है, जिसमें कहते हैं कि अनगिनत लोककथाएं और किवदंतियां शामिल थीं. इसे बड़ कथा भी कहा जाता था. हालांकि बृहत्कथा आज लुप्त है. इस ग्रंथ में भी राजाओं-सम्राटों की कई कथाओं के बीच चंद्रगुप्त-चाणक्य की कथाएं मौजूद हैं और जो चाणक्य नाम के व्यक्तित्व की मौजूदगी पर प्रकाश डालती हैं. यह चंद्रगुप्त-चाणक्य की किवदंतियों का कश्मीरी संस्करण है.
मुद्राराक्षस... जो चंद्रगुप्त और चाणक्य को एक साथ ले आती है
सबसे अधिक क्रिस्प और प्रामाणिक संस्करण जिस रचना में मिलता है वह है मुद्राराक्षस. इसे ही सबसे पहली ऐसी रचना माना जाता है, जहां सम्राट चंद्रगुप्त के साथ चाणक्य का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है. विशाखादत्त द्वारा चौथी शताब्दी में रचा गया यह नाटक काल्पनिक माना जाता है, लेकिन इतिहासकार इसे पूरी तरह काल्पनिक मानने से इनकार करते रहे हैं और ऐसा मानते हैं कि ऐसी कल्पना रचने के लिए जरूर कोई न कोई प्रेरणा तो रही ही होगी, क्योंकि बिना प्रेरणा की मौजूदगी के ऐसी कल्पना नही रची जा सकती कि जो इतनी सदियों बाद भी प्रासंगिक बनी रहे.
अलग-अलग रचनाओं में चाणक्य
गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास के शोधार्थी अंकित जायसवाल कहते हैं कि 'चाणक्य का वाकई एतिहासिक जिक्र नहीं मिलता है और यह किरदार कल्पना ही है. चाणक्य का जिक्र अलग-अलग कालखंड में हुई रचनाओं में ही सामने आता है, लेकिन चंद्रगुप्त के समकालीन साक्ष्यों में चाणक्य का उल्लेख नहीं मिलता है.'
'चाणक्य थे या नहीं यह सवाल ही गैरजरूरी'
ऐतिहासिक और पौराणिक किरदारों को अपने लेखन का विषय बनाने वाले लेखक अनुरोध शर्मा इस पर कहते हैं कि यह सवाल ही गैरजरूरी है कि चाणक्य नाम का कोई था या नहीं... आपको ये देखना चाहिए कि उनका नाम लेकर जो बातें, जो नीतियां कही जा रही हैं वह कितनी सही और सटीक हैं. हमारी तो परंपरा रही है कि 'जाति न पूछे साधु कि पूछ लीजिए ज्ञान'. अगर वह सही हैं, जीवन में फिट बैठती हैं या किसी भी फील्ड में या समय में काम आती हैं तो उन्होंने अपनाना चाहिए. काल्पनिक कथाएं भी तो हमें नैतिकता ही सिखाती हैं. हम उनके नैतिक मूल्यों को याद रखते हैं और कथा क्या थी क्या नहीं, इस पर ध्यान नहीं रखते. अंतिम सत्य सही बात-सही ज्ञान को सीखना है.
इतालवी राजनयिक निकोलो मैकियावली ने साल 1513 में अपनी एक छोटी किताब 'द प्रिंस' लिखी थी. जिसमें मैकियावली लिखते हैं कि राजा को दयालु होना चाहिए, लेकिन सिर्फ इतना जितना की जरूरी हो. इतना नहीं कि प्रजा या उसके अधीनस्थों को लगने लगे कि राजा की अवहेलना भी की जा सकती है. दानवान और भला होना अच्छा है, लेकिन इतना नहीं कि राजकोष खाली हो जाए.
मैकियावेली ने इस बात को एक और अध्याय ''राजा की विशेषता क्रूरता बनाम दयालुता में (Cruelty v/s Mercy) में और ठीक से समझाने की कोशिश की है, पहले वह सवाल उठाता है कि राजा के प्रति जनता के दिल में प्यार होना चाहिए या डर? फिर इसका जवाब भी देता है. मैकियावली कहते हैं कि एक व्यक्ति सैद्धांतिक रुप से चाहेगा कि लोग उससे प्यार भी करें और डरें भी, लेकिन चूंकि इन दोनों को एक साथ करना मुश्किल है, इसके लिए मानव का असल स्वभाव जिम्मेदार है. अगर आप दोनों हासिल नहीं कर सकते हैं तो ये फिर अच्छा ही है कि लोग आपसे डरें, बजाय प्यार करने के.
चाणक्य और चाणक्य नीति की प्रासंगिकता
यह बात मैकियावली की 'द प्रिंस' लिखे जाने के सदियों पहले भारत में कही, लिखी और यहां तक की जी भी जा चुकी थी. अर्थशास्त्र में चाणक्य भी इसी तरह की बातों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि राजा ऐसा हो जिससे प्रजा प्रेम करे और उस पर भरोसा करे, इसके लिए जरूरी है कि राजा हमेशा जागृत अवस्था में रहे, उसके कान खड़े रहे हैं और उसकी नाक किसी भी तीक्ष्ण गंध को सूंघने के काबिल बनी रही.
कोई भी राजदंड और राज्य के हित से ऊपर नहीं है, खुद राजा भी नहीं. राजा को बहुत दान भी नहीं देना चाहिए और इस विषय में बहुत क्रूर और कंजूस भी नहीं होना चाहिए. 'प्रजा-सुखे सुखम् राज्ञः प्रजानाम् तु हिते हितम्, न आत्मप्रियम् हितम् राज्ञः प्रजानाम् तु प्रियम् हितम्' प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में उसका हित दिखना चाहिए.
कुल मिलाकर बात ये है कि आप राजनीति की बात करें, सत्ता की बात करें, अर्थव्यवस्था अथवा सामाजिक व्यवस्था की बात करें, चाणक्य हर जगह निर्विवाद रूप से मौजूं और प्रासंगिक नजर आते हैं. उनकी प्रामाणिकता और मौजूदगी बहस का विषय हो सकती है, लेकिन चाणक्य इग्नोर नहीं किए जा सकते हैं. न कल, न आज और न आगे कभी भी.
विकास पोरवाल