Sahitya Aaj Tak 2024 Day2: देश की राजधानी दिल्ली में सुरों और अल्फाजों का महाकुंभ 'साहित्य आजतक 2024' का आज दूसरा दिन है. इस तीन दिवसीय कार्यक्रम में देश के जाने-माने लेखक, साहित्यकार व कलाकार शामिल हो रहे हैं. साहित्य के सबसे बड़े महाकुंभ 'साहित्य आजतक 2024' के मंच पर 'युद्ध के विरुद्ध' सेशन में जाने माने कवि और लेखक शामिल हुए.
इस सत्र में भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित कवि बोधिसत्त्व, रजा पुरस्कार से सम्मानित कवि आशुतोष दुबे और स्पंदन सम्मान से सम्मानित कवि विवेक चतुर्वेदी, कवि जितेंद्र श्रीवास्तव शामिल हुए. इन कवियों ने अपने अनुभवों, दृष्टिकोण और कविताओं के जरिए युद्ध के खतरों और उसके मानवीय प्रभावों पर गंभीर चर्चा की. इन कवियों ने अपनी रचनाओं से श्रोताओं को न केवल विचारशील बनाया, बल्कि संवेदनाओं को भी गहराई से छू लिया.
इस दौरान कवि जितेंद्र श्रीवास्तव ने कविता के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं से परिचय कराया. उन्होंने अपनी कविता सोनचिरई सुनाई...
एक लड़की थी सोनचिरई
वह हंसती थी तो धूप होती थी फूल खिलते थे
वह चलती थी तो बसंती हवा चलती थी
जिधर निकल जाए लोगों की पलकें बिछ जाती थीं
और जैसा कि हर किस्से में होता है
उसका विवाह भी एक राजकुमार से हुआ
राजकुमार उस पर जान लुटाता था
उसके होंठ उसकी तारीफ में खुलते
उसकी जिह्वा उसके प्रेम के सिवा
और सारे स्वाद भूल गई थी
उसकी आंखों में नींद और दिल में करार न था
और ऐसे ही दो-चार वर्ष बीत गए सोनचिरई की गोद न भरी
ननद को भतीजा सास को कुल का दीया
पति को पुरुषत्व का पुरस्कार न मिला
ननद कहने लगी ब्रजवासिन
सास कहने लगी बांझ
और जो रात दिन समाया रहा
उसमें सांसों की तरह
उसने कहा तुम्हारी स्वर्ण देह किस काम की
अच्छा हो तुम यह गृह छोड़ दो
तुम्हारी परछाई ठीक नहीं होगी हमारे कुल के लिए
सोनचिरई बहुत रोई मिन्नतें कीं पर किसी ने न सुनी
आंसुओं बीच एक स्त्री घर के बाद
भटकने लगी ब्रह्मांड में उसे जंगल मिला
जंगल में बाघिन मिली
उसने उसे अपना दुख सुनाया
और निवेदन किया कि वह उसे खा ले
बाघिनी ने कहा वहीं लौट जाओ जहां से आई हो
मैं तुझे न खाऊंगी
वरना मैं भी बांझ हो जाऊंगी
सोनचिरई क्या करती
वहां से सांप की बांबी के पास पहुंची
बांबी से नागिन निकली
नागिन ने उसका दुख सुना
फिर कहा वहीं लौट जाओ जहां से आई हो
जो मैं मुझे काट खाऊंगी
तो बांझ हो जाऊंगी
सोनचिरई बहुत उदास हुई
फिर क्या करती
गिरते पड़ते मां के दरवाजे पहुंची
मां ने धधाकर हालचाल पूछा
कौन सी विपत्ति में दुलारी बिटिया ऐसे आई है
बेटी ने अपना दुख सुनाया
और चिरौरी की कि थोड़ी सी जगह दे दो मां रहने के लिए
मां ने कहा विवाह के बाद बेटी को
नैहर में नहीं रहना चाहिए
लोग बाग क्या कहेंगे
वहीं लौट जाओ जहां से आई हो
और सुनो, बुरा न मानना बेटी
जो तुम्हारी परछांई पड़ेगी
तो मेरी बहू बांझ हो जाएगी
यह कहकर मां ने अपना दरवाजा बंद कर दिया
अब सोनचिरई क्या करती
उसने धरती से निवेदन किया
अब तुम्हीं शरण दो मां
दुख सहा नहीं जाता
इन कदमों से चला नहीं जाता
जो लोग पलकों पर लिए चलते थे मुझे
उनके ओसारे में भी जगह न बची मेरे लिए
अब कहां जाऊं तुम्हारी गोद के सिवा
धरती ने कहा तुम्हारा दुख बड़ा है
लेकिन मैं क्या करूं
जहां से आई हो वहीं लौट जाओ
जो मैं तुमको अपनी गोद में रख लूंगी
तो ऊसर हो जाऊंगी
और मित्रों इसके आगे जो हुआ
वह किसी किस्से में नहीं है
हुआ यह कि सब ओर से निराश
सोनचिरई बैठ गई
एक नदी के किनारे एक दिन गुजरा
दो दिन गुजरा तीसरे दिन तीसरे पहर एक सजीला युवक
प्यास से बेहाल नदी पर आ मिला उसने सोनचिरई को देखा
सोनचिरई को देख पलभर के लिए वह सब कुछ भूल गया
उसने विह्वल हो नरम स्वर में सोनचिरई से दुख का कारण पूछा
और सब कुछ जान लेने पर
अपने साथ चलने का निवेदन किया
सोनचिरई पल छिन हिचकी
फिर उसके साथ साथ हो ली
जब वह मरी तो आंसुओं से जार-जार उसके आठ बेटों ने
उसकी अर्थी को कंधा दिया
सोनचिरई आठ बेटों की मां थी
वह स्त्री थी और स्त्रियां कभी बांझ नहीं होतीं
वे रचती हैं, वे रचती हैं तभी हम आप होते हैं
तभी दुनिया होती है, रचने का साहस पुरुष में नहीं होता
वे होती हैं तभी पुरुष
पुरुष होते हैं....
वहीं कवि आशुतोष दुबे ने कहा कि महाभारत का युद्ध एक तरह से न्याय और नीति का ही युद्ध था, लेकिन इसके बाद जो शोक था, उसे धर्मवीर भारती ने अपने शब्दों में व्यक्त किया. युद्ध के कारणों से कोई सबसे ज्यादा अकेला हुआ है. युद्ध के दुष्परिणाम हैं. कविता के मूल में करुणा होती है.
इस दौरान आशुतोष दुबे ने 'एक अनजान सिपाही की कब्र पर' शीर्षक से कविता सुनाई. उन्होंने कहा कि उन्माद हमेशा रचा जाता है. उसे बनाया जाता है, उसमें लोगों को बहा लिया जाता है. हमारे सामने बहुत सारा विध्वंस है. हम बहुत सारी लड़ाइयां देख रहे हैं. आशुतोष ने कविता के माध्यम से जंग के बाद हुई बर्बादी को शब्दों में माध्यम से व्यक्ति किया. युद्ध का विरोध केवल प्रेम से ही संभव है, लेकिन ये भी उतना आसान नहीं है.
इस दौरान आशुतोष दुबे ने कविता सुनाई, जिसे काफी पसंद किया गया. इसका शीर्षक था- जाने दो...
जो जा रहा है, उसे जाने दो
अगर उसे रोकोगे तो शायद वह रुक भी जाए
पर रुक जाना रह जाना नहीं है
उसे जाने दो जो जा रहा है
अपने मन में वो पहले ही जा चुका है
अब सिर्फ दरवाजे से बाहर जा रहा है.
इनके बाद बोधिसत्व उर्फ अखिलेश कुमार मिश्र ने कहा कि अगर युद्ध नहीं होता तो युद्ध के विरुद्ध कुछ भी नहीं होता. आप एक छुपी हुई आंतरिक लड़ाई लड़ रहे होते हैं, लेकिन आपको पता नहीं होता. द्रोपदी दांव पर लगाई जा रही है, उसे पता नहीं होता कि वह दांव पर लग चुकी है. उसके साथ क्या हो रहा है, उसे पता नहीं होता. हमारे समाज में अघोषित युद्ध चल रहे हैं. लोकतंत्र में भी युद्ध चल रहे हैं. जो अधिकारी के लिए लड़ेंगे, उन्हें लड़ना ही पड़ेगा.
उन्होंने कहा कि आप युद्ध नहीं करें तो युद्ध की कविता भी है, जिसमें वीर रस आता है. युद्ध के विरुद्ध होना अपने युग का बलराम होना है, युद्ध के पक्ष में होना अपने युग का कृष्ण होना है. अगर आप दुष्ट और वचन तोड़ने वाले दुर्योधन से लड़ रहे हैं तो आपको नियम तोड़ना पड़ेगा.
इस दौरान बोधिसत्व ने कविता सुनाई, इसका शीर्षक था- सुख सूचक शिलालेख...
ये शिलालेख बताता है कि सब ठीक है
राज्य द्वारा सूचित है कि प्रजा हर प्रकार से सुखी है
जितना राजा के पास है
अफसर के पास है संतरी के पास है
सूचित है कि राज्य में कोई निर्धन नहीं है
कोई शोक नहीं है अंधकार नहीं है
सूचित है कि शोभ और दुख दंडनीय अपराध है
सूचित है कि अब न रोग है न शोक न व्यथा है.
सोचिये जब हाथी को मगरमच्छ ने पानी में घसीटना शुरू किया
तब करुण पुकार सुनकर भी विष्णु कपड़े बदलते रहते हैं
सहायता की करुण पुकार पर नंगे पैर असज भागना ही
उन विष्णु को व्यापक विष्णु बनाता है.
कवि विवेक चतुर्वेदी ने भी अपनी कविताएं पढ़ीं.
बहुत सी खूबसूरत बातें मिटती जा रही हैं दुनिया से
जैसे गौरैया, जैसै कुनकुनी धूप, जैसे बचपन जैसे तारे...
इसके अलावा और कविता देखिये...
चाबियों को याद करते हैं ताले
दरवाजों पर लटके हुए
चाबियां घूम आती हैं
मोहल्ला, शहर या कभी कभी पूरा देश
बीतता है दिन हफ्ता महीना या बरस
और ताले रास्ता देखते हैं
कभी नहीं भी लौट पाती कोई चाबी
वो जेब या बटुए के चोर रास्तों से
निकल भागती है रास्ते में गिर
धूल में खो जाती है या बस जाती है
अनजान जगहों पर तब कोई दूसरी चाबी
भेजी जाती है ताले के पास उसी रूप की
पर ताले अपनी चाबी की अस्ति को पहचानते हैं
वे दूसरी चाबी से नहीं खुलते
ताले धमकाए जाते हैं झिंझोड़े जाते हैं
हुमसाए जाते हैं औजारों से
वे मंज़ूर करते हैं मार खाना
दरकना फिर टूट जाना
लटके हुए तालों को कभी
बीत जाते हैं बरसों बरस
और वे पथरा जाते हैं जब उनकी चाबी
आती है लौटकर पहचान जाते हैं वे
खुलने के लिए भीतर से कसमसाते हैं
पर नहीं खुल पाते फिर भीगते हैं बहुत देर
स्नेह की बूंदों में और सहसा खुलते जाते हैं
उनके भीतरी किवाड़ चाबी रेंगती है उनकी देह में
और ताले खिलखिला उठते हैं
ताले चाबियों के साथ रहना चाहते हैं
वो हाथों से दरवाजे की कुंडी पकड़ लटके नहीं रहना चाहते
वे अकेलेपन और ऊब की दुनिया के बाहर खुलना चाहते हैं
चाबियों को याद करते हैं ताले
वे रास्ता देखते हैं.