scorecardresearch
 

जन्मदिन विशेष: सर्जना का नया संवत्सर है ओम निश्चल का 'तुम्हें मीर के एक मिसरे से छू लूँ'

गीत हो या कविता, कथा हो या कथेतर, अनामिका जब लिखती हैं तो उस विधा में डूब कर लिखती हैं. हिंदी के सुधी समीक्षक, कवि ओम निश्चल के जन्मदिन पर उन्होंने उनके गीत संग्रह 'तुम्हें मीर के एक मिसरे से छू लूँ' पर यह भावभीनी समीक्षा लिखी है

Advertisement
X

गीत हो या कविता, कथा हो या कथेतर, अनामिका जब लिखती हैं तो उस विधा में डूब कर लिखती हैं. उन्होंने बचपन में आंखें खोलीं तो अपने को एक साहित्यकार पिता और मांकी गोद में पाया. कविता और गीत के सघन परिवेश में उनकी परवरिश हुई. हाल ही में हिंदी अकादमी से आए ओम निश्चल के गीत संग्रह 'तुम्हें मीर के एक मिसरे से छू लूँ' पर अनामिका की भावभीनी समीक्षा उनके जन्मदिन पर एक सरस भेंट है. 
                                                 ***   
हर व्यक्ति अपने भीतर एक अधूरा गीत लेकर पैदा होता है. वह  तब तक चैन से नहीं बैठता जब तक वह गीत पूरा न हो जाए. एक ख़ास अफ्रीकी कबीले में यह अनूठा रिवाज है: जब स्त्री  आश्वस्त  हो जाती है कि उसके पुरुष ने उसे पूरे मन से प्यार किया है और उसके गर्भ में ओस की बूंद-सा कुछ दबे पांव उतर भी गया है, वह जंगल के हृदय में कोई शांत कोना ढूँढ़ कर वहां घंटों तब तक मौन बैठी रहती है जब तक उसके भीतर एक धुन न उतर आए. प्रकृति से उपहार में मिली यह धुन नौ महीने शिशु के साथ ही मचलती रहती है उस के गर्भ में: एक तरह से उसके जुड़वा के रूप में. वह धुन उस बच्चे  को मां से पहले उपहार की तरह मिलती है. यह धुन सिर्फ उसके बच्चे के लिए होती है, और किसी की नहीं. जब-जब बच्चा  बीमार पड़ता है या किसी संकट से घिरता है, वह फिर एकांत में जाकर उस धुन की देवी का आह्वान करती है कि वह उसको संकट से उबारे. जब वह बूढ़ी होने लगती है, जिस संतान के लिए वह धुन फ़िजां से उतरी थी, उस संतान के हाथ में हाथ लेकर, उसके स्वर में स्वर मिला कर वह उसको अधिकृत (ऑथराइज़) करती है कि जीवन-भर और मृत्यु शय्या पर भी वह इस विशेष धुन का आह्वान करेगा और उससे आत्मसात होकर ही दुनिया से जाएगा . 
अपने कवि पिता स्व श्यामनंदन किशोर  से सुनी अनेक  कहानियों में एक कहानी मैंने यह भी सुनी थी और बचपन से ही मेरे मन में यह बैठ गया था कि किसी न किसी अनूठी धुन के साथ पैदा होता है हरेक व्यक्ति. वह धुन उसे अकेला करती है... गहन एकांत की ओर खींचती है. एकांत उसे अमूर्त से मूर्त करने की शर्त है. पूरा वजूद किसी गहन विरह में जब इकतारे-सा बजने लगे, तो ही उस धुन में बोल प्रकट होते हैं. पिताजी की रचना प्रक्रिया की मूक साक्षी मैं, उनकी मुसबिलवा, इस विराट सत्य की साक्षी भी हूँ कि कैसे अचानक धुन की तरंगायित डाली पर हर बार शब्द दूर देश के परिंदों-से अचानक उतर आते हैं ---ठीक वैसे जैसे अगीत में बिम्ब. उसके बाद की जो पंक्तियां होती हैं, हृदय की गहनतम स्मृतियों से सुर में सुर मिलाने को वैसे ही उठती हैं जैसे कोयल की कूक का आसरा पा हर गुम गली में बच्चे साथ कूक उठें और फिर जैसे पूरी प्रकृति किसी अर्जित सत्य की बलैयां लेती जाय उसके साथ-साथ . गीत प्रकृति का यूरेका-भाव हैं- तल्लीनता की पराकाष्ठा. 'पायो जी मैंने राम रतन धन पायो' का अहोभाव,  सत्य जहॉं 'राम रतन' की तरह दस आयामों में दमकता हुआ अचानक ही सामने कौंध जाए. 
सत्य की ख़ासियत तो यह ही कि वह सहज भाव से ढूँढ़े नहीं मिलता. बिन मॉंगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख. जब तक जान अरपकर ढूँढ़ो, वह नहीं मिलता. फिर रुक कर एक किनारे जा बैठो, अहं का ठीकरा फूट जाए, घट खाली हो जाए तो जाने कहां से कनखी मारता हुआ प्रकट हो जाता है. यह लुका-छिपी ही जीवन है. 
लुका-छिपी का यही शिल्प कविता आत्मसात कर लेती है. गीत विधा में संगीत के सहारे उतरता है सत्य , गीतेतर  विधाओं में बिम्बम  या संवाद के सहारे. किसी न किसी भगिनी विधा की उंगली पकड़ कर ही सत्य  प्रकट होता है कविता में. सहमिलूपन, सहज बहनापा इसके स्वभाव में है; आत्मीय बातचीत की लय इसकी स्वाभाविक लय. 'तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन!' 
ओम जी का यह संचयन पढ़ते हुए मुझे बचपन में सुनी-गुनी वे सारी बातें सहज याद आ गईं जिससे मिलकर या जिसे पढ़ कर बचपन की सुहानी स्मृतियां जग जाएं, वह व्यक्ति  अनूठा तो होता ही है. ओम जी को सबसे अनूठा बनाती है उनकी खूबसूरत ज़िद----अपने ही छंद, अपनी लय में अपने रास्तेर  बढ़े जाने की. मार्डनिस्ट कविता की कितनी गहन समझ उनके पास है, इसका प्रमाण हैं वे लंबे, अंतर्दृष्टि पूर्ण निबंध जो उन्होंने प्राय: हरेक समकालीन मार्डनिस्ट कवि पर लिखे... -कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह जैसे वरिष्ठों से लेकर बाबुषा कोहली तक पर, पर स्वयं कभी छंद का दामन छोड़ा नहीं... किसानी ठाठ से गीत-ग़ज़ल की उर्वरा भूमि में नए चलन के बीज बोते चले...ट्रैक्टर कभी धड़धड़ाए नहीं; हल पर ही नए चलन के गीत गुनगुनाए क्योंकि इन्हें अपनी मिट्टी से प्यार था, प्रेम था विरासत से, जिसका भास्वर प्रतीक हैं वे पिता जिन पर एक पूरी समृद्ध शृंखला उन्होंने लिखी है: 

भलमनसाहत क्या होती यह तब हमने जाना 
जब चिड़ियों को चुगा रहे होते थे वे दाना 

जीवन की अंतिम सांसों तक वे मुस्तैद रहे 
सुख दुख घर बाहर के जंजालों में कैद रहे 
सूना रहा मगर आजीवन उनका इक कोना. 

उंगली पकड़ कभी हम जब उनके संग चलते 
जैसे चांद सितारे नभ में हों चलते फिरते 
तब आकाश सदृश होता था उनका पर्सोना. 
...पर्सोना शब्द् का इतना रोचक प्रयोग ओम जी ही कर सकते हैं. गांधी युग के जिस पिता के रूप में उन्होंने अपनी भाषाई विरासत का मानवीकरण किया है, वह पिता संबंधी स्टीरियो टाइप तोड़ता हुआ उन्हें  सिल्विया प्लाथ के डैडी का सबल प्रतिपक्ष सिद्ध करता है. हिटलर भी स्वयं को डैडी ही कहलाता था, उसके प्रतिपक्षी हमारे यहां बापू थे और सामान्य संघर्षों से जूझते हुए किसान घरों के सदय पिता जो देशी ज्ञान परंपराओं से एकाकार मां भी होते थे..

Advertisement

गीता के उपदेश और मानस की चौपाई
तुमने मुझे सिखाई पाणिनि की अष्टाध्यायी
पातंजलि का भाष्य बन गए
तुम दुर्गम क्षण में. 

रहे अभावों में बेशक पर दरियादिली रही
किन्हीं दुआओं से फ़कीर की झोली भरी रही
कभी न हाथ पसारा हमने 
किसी प्रलोभन में. 

ऊब हुई तो छलका दी तुमने रस की गागर 
सोते समय सुनाई तुमने कथा सरित्सागर
तुम हो तो 
ये ऋद्धि-सिद्धियां हैं इस जीवन में. 

ध्यान रहे कि इस देश की ज्ञान परंपरा में जिस तरह पिता में मां शामिल है, गीता के उपदेश और मानस की चौपाई के साथ फ़कीरों के दरियादिल हुए दुआ का भी. हर जगह उदार सह-अस्तित्व दमकता है. उदारता ही इस देश की ज्ञान परंपरा का बीज शब्दा है. 

मुक्तिबोध जिसे गरबीली गरीबी कहते थे , उसके नए व्यंजक चित्र इनके गीतों में दमकते हैं: 
'कभी न हाथ पसारा हमने / किसी प्रलोभन में.' 'बाधाएं सौ-सौ आईं /पर अपने भी पग रुके नहीं/ हम टूटे सौ बार / मगर सत्ता  के आगे झुके नहीं.' प्रेम के क्षण में या किसी बृहत्तर प्रतिबद्धता में...-बोला वहां ज्यादा नहीं जाता, बड़े-बड़े बोल तो एकदम ही नहीं बोले जाते. इसलिए प्रार्थना के शब्द् हों, या प्रतिबद्धता के,एब्सोल्यूट मिनिमम से ही काम चलाया जाता है. वाक्य-संयम ऐसा ही अनूठा होता है अभावों में पले हुए भावप्रवण हृदय का. 

Advertisement

कोई तो कारण होगा कि जहां-जहां भी कृषक संस्कृति कायम है, दक्षिण एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका के उन सब देशों में आधुनिकता की धारा के समानांतर प्रगीत धारा भी कायम रही. कृषक संस्कृति जिस तरह की  समुदाय-चेतना का रेखांकन करती है, वहां गाते-बजाते हुए लोग श्रमसाध्यब कार्य करते हैं. गीतों के चलते ही न काम से एलियेनेशन होता है, न सहकर्मियों से जिसकी बात मार्क्स ने औद्योगिक मजदूरों के असेम्बली लाइन के संदर्भ में की थी.उस एलिअनेशन की काट हैं ये जितार गीत.  गीत तो गीत, मुहावरे और कहावतें भी जनजीवन की सॉंस हैं, उसकी प्रज्ञा का अक्षय कोष हैं. कृषि प्रधान सभ्यताओं में उनकी उपस्थिति अभी भी जीवन्त है. इसके स्पष्ट संकेत हैं ये गीत जहॉं बारहमासे मन का मौसम नियोजित करते हैं और प्रेमगीत में प्रकृति भी  एक सनातन लोकनी सखा है... सूक्ष्मतम संवेगों से फूटे गहनतम जीवन राग की सजग नियोजक-

ये कजलियों के दिन हैं, ये बदलियों के दिन हैं
ये कोयलों के दिन हैं, ये बिजलियों के दिन हैं
घर-घर है पक रहा कुछ पकवान का मौसम है. 

सावन अभी गया है, भादों का मन नया है
पत्तोंभ में ताजगी है, तन-मन भिगो गया है
आने लगे हैं पाहुन 
मेहमान का मौसम है.

है क्वार में दशहरा  कार्तिक में है दीवाली
कुदरत ने सजाई है ज्यो अल्पना की थाली
कांधे-धरे  अँगौछा 
खलिहान का मौसम है. 

Advertisement

पुरवा जो बह रही है, कुछ भेद कह रही है
चौपाल पर डटे सब क्या खूब बतकही है
सिरहाने सरौता है, 
यह पान का मौसम है.

डूबे न कहीं  दुनिया सूखें न कहीं  फसलें
जलदेवता से कह दो वे न्याय से न बिचलें
कर्मण्य किसानों  के सम्मान का मौसम है. 
यह धान का मौसम है.

सांस की लय में, लहर की लय में उठता-गिरता जीवन राग का यह सहज छंद सामासिक संस्कृति का अंतरंग चित्र जिस सहजता से उकेरता है, उसी सहजता के विषय में कभी रामकृष्ण  परमहंस ने कहा था कि सहज होना सचमुच कठिन है. वह पिकासो के ही वश में है कि वह हाथ से अक्षुण्ण-सी एक सरल रेखा खींच पाए... दो बिन्दुओं के बीच की निकटतम दूरी जैसे दो दिलों के बीच की. सॉंग्स आफ इनोसेंस की यह सहजता ही सुबह को संतूर-सा बजा सकती है और एक दिया अटूट प्रण का हर कोने सहेज कर बाल सकती है-
अम्मा कहती थीं दिये बालना सहेज कर!
पहले दीए पर बाबा का हक
रखना चारो कोने बाल कर
चौपाई मन में सुमिरन कर
अक्षत-जल हवा में उछाल कर

इसके बाद अपनत्व का वृत्त संकेंद्रित वृत्त  की इकाइयों की तरह लगातार जिस तरह बढ़ता जाता है,  गौरतलब है वह -

Advertisement

बाबा की बगिया में एक दिया
एक दिया मरकटही बाग में
एक दिया बँसवारी में रख दो 
घर का पिछवाड़ा रोशन कर दो

अभी और दिये जलाने होंगे
झुग्गी-झोपड़ियों में
सड़कों पर गलियों में
मंदिर की चौखट पर
चित्त  की सरणियों में

एक दिया रोशन हो मन का
एक दिया पितृ से उऋण का
एक दिया बुराई से रण का
एक दिया बस अटूट प्रण का

पुनरावृत्ति का कौशल यहां 'पुनरपि जन्मं  पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्'  की लय का ही नहीं, प्रकृति की लय का भी पुण्य स्मरण है :-- 

धान के हरेपन में कोई लहर - सी है
शस्य श्यामल धरा घनाक्षरी - सी है
नदी के घाट बोलते हैं, शरद के दिन हैं
हृदय में प्यार घोलते हैं, शरद के दिन हैं

जैसे कोई लहर बार-बार एक बिन्दु  पर सिर नवा जाए---ये पुनरुक्तियॉं  कोई गहन दर्शन रेखांकित करती हैं, पर हर बार एक नई उठान से चलती हुई... कभी तेज, कभी मद्धिम. ऐसा लगता है कि यह व्य क्तिर दो कहानियां सुनाता हुआ बड़ा हुआ है--- एक दुनिया को और दूसरी, थोड़ी दबी आवाज में स्वयं को ही---एक धारावाहिक कथा जो बीच-बीच में टूटती है, लेकिन फिर धार पकड़ लेती है, जैसे कि स्वयं जीवन-लय या सॉंस या विलंबित लय की कोई ठुमरी-

Advertisement

हो रही हर ओर धारासार वर्षा
प्यास पृथ्वी की सनातन बुझ रही है
बीजुरी-सी कौंधती चकमक दिशाएं
तृप्ति का उल्लास कुदरत लिख रही है

खेत हरियर भर रहे नासापुटों में
बासमतियों की महक का गंधमादन,
दूध भरने लगा है अब बालियों में
हो रहा जैसे प्रकृति का अन्नप्राशन. 

प्रकृति का अन्नप्राशन... इतना संश्लिष्ट चित्र और इतना सटीक कि बालियों में ही नहीं, गीत में भी दूध उतर आए, छाती भर आए उसकी उससे जिसे अंगरेजी में 'मिल्क ऑफ ह्यूमन काइण्डनेस' कहते हैं. 

'सीढ़ियों पर साँझ/ मन मे फूल/ जल में पाँव'  धरे ये गीत  सर्जना का नया संवत्सर इसलिए भी रच पाते हैं कि दृश्य और श्रव्य  बिम्ब यहां गले-गले मिल कर सोए हैं और 'सामा-चकवा'  के खेल में जिस तरह से मधुर ठस्सों लेकर बिदेसिया आता है, पर्सोना, सिम्फनी और फ्लेवर आदि शब्द  अचानक आकर कहते हैं-
दो घड़ी बैठ कर 
दो घड़ी बोल कर 
तुम गए सांस में
छंद-सा घोल कर 
सिम्फनी नींद है 
चम्पई ख्वाब है! 
*     *      *
कोलकता का वह ढाकुरिया 
जहां चाय पीते थे
जीते थे जीवन मनचाहा 
जख्म जहां सीते थे 
कितने फ्लेवर, कितना रसमय जीवन दिखता है 
अब भी बच्चे जैसा यह दिल खूब मचलता है. 

पर उल्लास के समानांतर यहां एक गहरी उदासी भी है और इस विडंबना बोध का गहरा अहसास भी कि परिस्थितियां जटिल हैं. जीवन के आदि स्रोतों से गहन तादात्म्य रह-रह कर टूट भी जाता है, और जब यह टूट जाता है तो क्या हाल होता है: 
सुधियों के खंजन भी उड़ कर यहां नहीं आते
जीवन से चल रही हमारी अरसे से अनबन . 

Advertisement

यह समझ अंतत: एक मार्डनिस्ट समझ ही है. 

'छद्ममय संसार था उसके लिए 
क्याछ बचा था और जीने के लिए 
योजनाएं मुँह चिढ़ाती ही रहीं
विषभरा जल मिला पीने के लिए 
भूल कोहबर की प्रतिज्ञाएं 
काल बन बैठा 
स्वयं ही स्वयंवर!' 

जिसे हमने स्वययं ही वरा था, एकांगी विकास वाली --- वह पश्चिमी जीवन शैली हो या समर्पण को ही जीवन का सर्वस्व  समझने वाली पौर्वात्य परंपरा,जीवन का निष्कर्ष अंतत: 'डबडबाई आंख' ही है-- 
प्रार्थना में फूल 
मन में अर्घ्य  लेकर 
लौट आए 
डबडबाई आंख लेकर . 
कुल मिलाकर जीवन चितकबरा ही है. अहेतुक प्रेम और विश्वास में, समर्पित समुदाय-बोध के कुछ निरुपम क्षण कौंधते हैं जटिल जीवन में;  पर कौंध तो कौंध ही है. इसकी उम्र लंबी नहीं होती, पर गीत हैं तो विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी पुरुषार्थ (और स्त्रियार्थ) साधने की प्रेरणा भी बची हुई है . क्यों? क्योंकि इसकी भाषा में कुछ है जो सनातन है...

भाषा में लोरियों की कैसी है मीठी रुनझुन
इसमें हैं लावनी की इक रागिनी-सी रुनझुन 
भाषा की अशुद्धता की ही खाद से सँवरती 
इसकी रगों में बहती है लोकगीत की धुन 
फीके हैं आभरण सब/ संदिग्ध  आचरण सब
पुरुषार्थ को जो साधे भाषा तो बस वही है. 
***  
पुस्तकः तुम्हें मीर के एक मिसरे से छू लूँ (गीत संग्रह); कवि: ओम निश्चल , प्रकाशक: हिंदी अकादमी, दिल्ली, संस्करण: 2025, पृष्ठ 184, मूल्य  रुपये 300/- 

 

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement