आज बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि शंख घोष का जन्मदिन है. 06 फ़रवरी, 1932 को बंगाल के चांदपुर, जो अब बंगलादेश में है, में जन्मे शंख घोष को मिले पुरस्कार इस बात की बानगी हैं कि समूचे भारतीय साहित्य जगत में उनकी अहमियत क्या है. आदिम लता-गुलमोमॉय, मूखरे बारो, सामाजिक नोय, बाबोरेर प्रार्थना, दिनगुली रातगुली और निहिता पातालछाया आदि से उन्होंने बांग्ला साहित्य में प्रचुर ख्याति व मान अर्जित किया.
रवींद्र नाथ टैगोर साहित्य के विशेषज्ञ रहे मूर्धन्य कवि, आलोचक एवं शिक्षाविद प्रोफसर शंख घोष को अपने सृजनकर्म के चलते इतने सम्मान मिले कि बड़े सम्मानों में कुछ भी शेष नहीं. वह देश के तीसरे सबसे सर्वोच्च सम्मान पद्मभूषण के अलावा साहित्य जगत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित सभी पुरस्कारों से सम्मानित किए जा चुके हैं. उन्हें रबिन्द्र पुरस्कार, सरस्वती सम्मान और ज्ञानपीठ जैसे देश के सर्वोच्च लेखकीय सम्मानों से नवाजा जा चुका है. साहित्य अकादमी सम्मान तो उन्हें दो बार मिला, एक बार अनुवाद के लिए भी.
हिंदी जगत में उनकी कविताएं सुलोचना वर्मा, शिव किशोर तिवारी, उत्पल बैनर्जी, प्रयाग शुक्ल, नील कमल और अरुण माहेश्वरी के द्वारा अनूदित होकर पहुंचीं. शंख घोष की कविता का स्वर सांद्र है, उसमें गहरी करुणा है. उनकी कविताओं की शब्द सम्पदा हमें दृश्यों, परिस्थितियों की एक बड़ी रेंज के बीच खड़ा कर देती है. प्रकृति और मान्वीय भावों को वह 'वे जो वसन्तदिन' कविता में यों चित्रित करते हैं.
और एक
और एक दिन इसी तरह ढल जाता है पहाड़ के पीछे
और हम निःशब्द बैठे रहते हैं.
नीचे गाँव से उठ रहा है किसी हल्ले का आभास
हम एक-दूसरे का चेहरा देखते हैं...
शंख घोष की कविताओं से हम दैनंदिन जीवन को समझने-बूझने के साथ ही सृष्टि और प्रकृति के बहुतेरे मर्मों को भी चिह्नित कर पाते हैं. नील कमल द्वारा अनूदित उनकी 'यौवन' नामक कविता में यह बानगी यों दिखती हैः
दिन और रात
के बीच
परछाइयाँ
चिड़ियों के उड़ान की
याद आती हैं
यूँ भी
हमारी आख़िरी मुलाक़ातें.
शंख घोष की खासियत है कि उनकी कविताएं बिना किसी पर सीधा प्रहार किए संकेतों में भी बहुत कुछ कहती है. सुलोचना वर्मा द्वारा अनूदित उनकी 'त्रिताल' कविता की शुरुआती चार पंक्तियों को ही देखें, तो इसमें बिना किसी पर लक्ष्य किए वह लिखते हैँ -
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ़
जड़ से कसकर पकड़ने के सिवाय
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ़
सीने पर कुठार सहन करने के सिवाय...
शंख घोष की कविताएं कई तरह के बिम्ब रचती ही है. उपमाओं का अनूठा प्रयोग उनकी एक अलग विशेषता हैं. उनकी कविताओं में अर्थ-गांभीर्य है और इस गांभीर्य के स्रोत विनोद और प्रखर उक्तियों में भी छिपे हैं. उत्पल बैनर्जी द्वारा अनूदित 'इसीलिए इतनी सूख गई हो' कविता की इन शुरुआती पंक्तियों को ही देखें.
बहुत दिनों से तुमने बादलों से बातचीत नहीं की
इसीलिए तुम इतनी सूख गई हो
आओ मैं तुम्हारा मुँह पोंछ दूँ
सब लोग कला ढूँढ़ते हैं, रूप ढूँढ़ते हैं
हमें कला और रूप से कोई लेना-देना नहीं
आओ हम यहाँ बैठकर पल-दो-पल
फ़सल उगाने की बातें करते हैं
हाल ही में रज़ा फाउंडेशन और राजकमल प्रकाशन के सहयोग से उनकी कविताओं का अनुवाद प्रख्यात लेखक, कला व रंगसमीक्षक प्रयाग शुक्ल ने किया. यह अनुवाद काफी सरस है. इससे हमें शंख घोष की कविता के विभिन्न चरणों की बानगी देखने को मिलती है. आज शंख घोष के जन्मदिन पर राजकमल प्रकाशन से छपे उनके कविता संकलन 'मेघ जैसा मनुष्य' से संकलित उनकी 6 कविताएं.
1. नाम
डालना नहीं मुझ पर और कोई दबाव.
खुलने दो शब्दों को, खुल-खुल वे जाते हैं.
जैसे कि भोर.
जैसे कि बहुत दूर ले जाकर
पत्थर को निर्जन में करती है
कल-कल शब्द धारा
घर में दिगन्त के चुपचाप
मिट जाता नाम यह हमारा.
माथे पर घास के धीरे-से
आता उतर हलका-सा नील रंग.
डालना नहीं मुझ पर दबाव और कोई
फिर किसी दिन.
2. वृष्टि
दुख के दिन मेरे तथागत हैं.
सुख के दिन मेरे भासमान
ऐसी वर्षा के दिन रह-रह रस्ते-रस्ते
दिन, ध्यान मृत्यु का अपनी, मन में आता है
जल भरे खेत सुख के फिर से
दुख-धान भरे फिर एक बार
ऐसी वर्षा के दिन लगता - है नहीं जन्म का मेरे
कोई अंत कहीं.
3. सूखा
गये सूख सबके सब नदी-नाले-पोखर
वे भी जो जल भरने आये थे
सूख गये
सूखे ज्यों पेड़ हैं -
झिलमिल-झिलमिल करती
आगे बस रेत है.
अन्त नहीं, यह तो शुरुआत है
आगे भी रेत है जितनी हटाओ
फिर उतनी ही रेत है
रेत है रेत है रेत है
कभी और दुनिया यह, लगी नहीं थी
पहले इससे ज्यादा ख़ाली.
4. काव्य-तत्व
कही थी कल क्या यह बात?
सम्भव है. लेकिन नहीं मानता उसे आज.
कल जो था मैं, वही हूँ मैं आज भी
इसका प्रमाण दो.
मनुष्य नहीं है शालिग्राम
कि रहेगा एक ही जैसा जीवन भर.
बीच-बीच में आना होगा पास
बीच-बीच में भरेगा उड़ान मन.
कहा था कल 'पर्वत शिखर ही है मेरी पसन्द'
सम्भव है मुझे आज चाहिए समुद्र ही.
दोनों में कोई विरोध तो है नहीं
मुट्ठी में भरता हूँ पूरा भुवन से.
क्या होगा कल और आज का योग कर
करूँगा भी तो करूँगा वह बहुत बाद में.
अभी तो रहा हूँ मैं सोच यही-
फुर्ती यह आयी कैसे विषम ज्वर में !
5. समय
तुम सब आये हो, इसीलिए कहता हूँ तुम सबसे,
अभी हुआ नहीं समय.
एक बार इसका मुँह, एक बार उसका मुँह ताकना-
अच्छा नहीं लगता यह प्रहसन मुझे.
जहाँ होगी मेरी क़ब्र, वहाँ आज जल देना गया भूल,
जो श्यामुख गये थे तुम रख,
उनमें नहीं थी शंख-ध्वनि कोई!
तुम सब आये हो, तुम सबसे कहता हूँ
तना हुआ है समयविहीन जाल स्तब्ध
ग्रह से ग्रह तक.
चाहिए मुझे निजता कुछ और अनदेखे समय की.
6. दाग़
बँधी है छाती यह शहर के डामर से
उगती नहीं उसके ऊपर कोई घास अब
बुझा नहीं पाता किसी वृष्टि का जल
अन्तर को.
केवल पदचाप केवल पदचाप और अन्तःसारहीन ?
कँपा-कँपा जाता पंजर-प्रकाश
भारी और मज़बूत टायरों का वेगमय उल्लास
फिर भी दिखाता हूँ उतारकर क़मीज़
कभी-कभी यहाँ देखो,
आज भी लगा है वह दाग़.