मुशर्रफ़ ने अपना कोर्ट मार्शल रुकने पर क्यों कहा था- थैंक्यू इंडिया!

ये साल 1999 का अक्टूबर महीना था. घड़ी में शाम के पाँच बजे थे. कराची का आसमान भयंकर बारिश और तूफान के बाद कुछ देर पहले ही साफ हुआ था.  एयरपोर्ट पर कोलंबो से आया एक जहाज लैंडिंग की परमिशन मांगते हुए चक्कर लगा रहा था. फ्यूल खत्म होने को था लेकिन इजाजत नहीं मिल रही थी. ये उस ड्रामे की शुरुआत थी जो थोड़ी देर बाद पूरे पाकिस्तान में खेला जाना था. सरकार और सेना के बीच. इस जहाज को न उतरने देने का आदेश खुद मुल्क के प्रधानमंत्री ने दिया था, और विमान में देश का सेनाप्रमुख बैठा था.

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परवेज़ मुशर्रफ परवेज़ मुशर्रफ

रोहित त्रिपाठी

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  • 15 फरवरी 2023,
  • अपडेटेड 8:00 PM IST

ये साल 1999 का अक्टूबर महीना था. घड़ी में शाम के पाँच बजे थे. कराची का आसमान भयंकर बारिश और तूफान के बाद कुछ देर पहले ही साफ हुआ था.  एयरपोर्ट पर कोलंबो से आया एक जहाज लैंडिंग की परमिशन मांगते हुए चक्कर लगा रहा था. फ्यूल खत्म होने को था लेकिन इजाजत नहीं मिल रही थी. ये उस ड्रामे की शुरुआत थी जो थोड़ी देर बाद पूरे पाकिस्तान में खेला जाना था. सरकार और सेना के बीच. इस जहाज को न उतरने देने का आदेश खुद मुल्क के प्रधानमंत्री ने दिया था, और विमान में देश का सेनाप्रमुख बैठा था. पाकिस्तान को जानने वाले समझते हैं कि वहाँ सेना अध्यक्ष का रुतबा क्या होता है. लैंडिंग की चाहत में विमान कराची से बाहर भी हो आया था मगर कोई भी उसे रनवे पर नहीं उतरने दे रहा था.  ढाई घंटों तक अपने ही देश के आसमान में चक्कर काटने के बाद आखिरकार ये कराची में ही उतरा लेकिन तब तक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ गिरफ्तार किये जा चुके थे. शाम ढलते ढलते और रात के गहराते एक बार फिर पाकिस्तान तख्तापलट का शिकार हो गया. सेनाअध्यक्ष ने शरीफ़ सरकार को किनारे किया और खुद गद्दी पर जा बैठे. विमान में बैठे इस शख़्स का नाम था,परवेज़ मुशर्रफ़. और पाकिस्तान की ये शाम सेना प्रमुख को राष्ट्र प्रमुख बनते देख रही थी.  

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पाकिस्तान की सियासी तारीख़ तख्तापलट की घटनाओं से स्याह है. इसमें 1999 से 2008 के नौ साल परवेज़ मुशर्रफ के नाम हैं.  दिल्ली के दरियागंज से विभाजन के बाद उनका परिवार कराची पहुंचा था.  पिता और माँ की नौकरियों की बदौलत विदेश भी घूमे और अच्छे स्कूलों में भी पढ़े. आखिरकार सेना में पहुंचे, अफसर बने और एक एक सीढ़ी चढ़ते हुए इस्लामाबाद से संचालित हुकूमत की कमान हाथों में ले ली. मुशर्रफ़ सेना के अफ़सर थे बाद में नेता बनने की कोशिश भी की लेकिन मरते दम तक नेता बन नहीं सके. सेना का एक अफ़सर जो बेपरवाह था, हमेशा उनमें ज़िंदा रहा. कुछ लोग कहते हैं कि ये बेपरवाही इसलिए थी क्योंकि वो जननेता नहीं तानाशाह थे. 
बचपन में विदेश विभाग में अधिकारी पिता के साथ मुशर्रफ ने कई देशों का भ्रमण किया. तुर्की वो जगह थी जहाँ उनका मन खूब रमा . पिता वहाँ सात साल तैनात रहे. मुशर्रफ़ ने लिखा है कि इस दौरान तुर्की मुझे भा गया था. यहीं से उनका आर्मी के प्रति इंट्रेस्ट भी जगा. मुशर्रफ़ अलजजीरा को दिए एक पुराने इंटरव्यू में अपने बचपन को याद करते हुए कहते हैं। 

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मैं सब कुछ कर लेना चाहता था। हर तरह के खेल खेले। बॉडी बिल्डिंग भी की। लेकिन जब एक खेल में एवरेज मुकाम हासिल कर लिया तो उसे छोड़ दिया। फिर दूसरे खेल के साथ भी यही, तीसरे,चौथे के साथ भी। 

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सेना के बाद नाटकीय तऱीके से सियासत में उतरे मुशर्रफ़ के व्यक्तित्व में और बचपन के मुशर्रफ़ में इस बात को लेकर समानता दिखती है. एक मुकाम हासिल तो दूसरे की कोशिश.इन्हीं मुकामों में एक था लाहौर का फोरमैन क्रिस्चियन कॉलेज. मिलेट्री अकैडमी जाने के लिए 11वीं 12वीं पास करना ज़रूरी था. पाकिस्तान में इसे एफए कहते हैं. मुशर्रफ़ ने वहीं से इंटर सर्विस सेलेक्शन बोर्ड का एग्ज़ाम निकाला. और मिलेट्री एकेडमी में दाखिला हो गया. ज़िन्दगी बदल रही थी. साल 1961 का था. तीन साल मिलेट्री ट्रेनिंग और मुशर्रफ़ सेना में अफ़सर हो गए. उन्होंने लिखा है जब मैने पहली बार कराची छोड़ा मुझे यकीन नहीं था कि मैं अब मां बाप के पास हमेशा नहीं रह सकूंगा. जब तक वो न मेरे पास आ जाएं. लेकिन पाकिस्तान आर्मी में तैनाती ने जल्दी ही बता दिया कि ये तय है.  मुशर्रफ़ के अनुशासनहीनता के किस्से भी बड़े हैं. ख़ुद उन्होंने लिखा है कि फौज के लिए ज़रूरी अनुशासन से मैं हमेशा भागता रहा. साथियों से लेकर अफसरों तक से मुशर्रफ़ के टकराव खूब हुए. लेकिन इत्तेफाक़ ऐसे कि मुशर्रफ़ आर्मी के ज़ीरो टॉलरेंस जोन में भी बच जाते थे. एक ऐसे ही इत्तेफाक़ का किस्सा भारत पाकिस्तान के बीच 1965 की जंग के ठीक पहले का है. मुशर्रफ़ एक जंगल में सेना की टुकड़ी के साथ तैनात थे। बकौल मुशर्रफ़ जंग के ऐलान का इंतज़ार कर रहे थे। तभी ख़बर आई कि उनके पिता जो फॉरेन सर्विसेज में तैनात थे, उनकी केन्या पोस्टिंग हो गई। मुशर्रफ़ कहते हैं कि उनके केन्या जाने से पहले मुझे कराची में उनसे मिलने जाना था। इतना आसान नहीं था क्योंकि कराची मेरी पोस्टिंग की जगह से काफ़ी दूर था। एक हफ़्ते की छुट्टी मांगी लेकिन मिली नहीं। मैंने बिना बताए निकलने की ठानी। मुझे अपने माँ बाप से मिलना था, उसके लिए किसी अप्रूवल का इंतज़ार क्यों करता? मैं निकल गया.  एक हफ़्ते बाद लौटा तो मेरे कोर्ट मार्शल की तैयारी शुरू हो चुकी थी. अनुशासनहीनता साबित करने को गवाह जुटाए जा रहे थे। लेकिन भारत का शुक्रिया कि उसने पाकिस्तान पर हमला कर दिया। thanks to india,they attacked pakistan and war broke out ये उनके exact शब्द हैं. मुशर्रफ़ ने कहा फिर तो हम सब जंग में लग गए। और इत्तेफाक़ देखिए कि जो कमांडर मुझे कुछ दिन पहले निकाल देना चाहता था उसी ने मेरा नाम गैलेंट्री अवार्ड्स के लिए दिया. पूरा पॉडकास्ट यहाँ सुनें-

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 1965 से लेकर 1971 तक मुशर्रफ़ हर जंग में शामिल होते रहे. फिर आया 1999 जब वो भारत के साथ जंग का कारण भी बने. कारगिल युद्ध. यही तो वो वजह है जिसकी वजह से आज भी ज्यादातर भारतीय उन्हें याद रखे हुए हैं.  कहते हैं कि कारगिल ऑपरेशन से पहले परवेज़ मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ तक को कोनफीडेंस में नहीं लिया था. इसे महज एक साल पहले सेना प्रमुख बने कम अनुभवी मुशर्रफ़ की गलती कहें या उनका आत्मविश्वास. जो भी था लेकिन ये नवाज़ शरीफ़ और मुशर्रफ़ के बीच की सबसे बड़ी खाई बन गया. 

इसी के बाद नवाज शरीफ ने तय किया था कि अब परवेज़ मुशर्रफ को उनके पद से हटा देंगे.. मुशर्रफ कोलंबो गए हुए थे. एक हफ्ते बाद उन्हें लौटना था, 12 अक्टूबर को. उसी दिन नवाज शरीफ ने मुशर्रफ को सेना प्रमुख के पद से हटाने का आदेश दिया।  लेकिन पाकिस्तानी सेना अपने मुखिया की अनुपस्थिति में भी उसकी कुर्सी बचाने में लग गई. तख्तापलट की शुरुआत हो गई , मुशर्रफ के लिए, मुशर्रफ के बगैर.  मुशर्रफ़ कोलंबों से कराची वापसी की राह में थे. उतरे तो एक मुल्क पकड़ा दिया गया. उसे जिसे जनता ने कभी नहीं चुना, जिसे लोकतंत्र ने ये अधिकार नहीं दिया.  मुशर्रफ़ बखूबी जानते थे जो कुछ हुआ है या होगा उससे पैनिक हो सकता है. उस शाम उन्होंने अपना भाषण ख़ुद लिखा. एक कमांडो से लेकर जैकेट पहनी. और देश को रात 2:30 बजे अंग्रेजी में संबोधित किया . अजीब था कि स्याह रात में मुशर्रफ़ पाकिस्तानी अवाम को नई सहर का वादा कर रहे थे. मुशर्रफ़ ने मार्शल लॉ की घोषणा नहीं की. वो सन्देश देना चाहते थे कि सब कुछ ठीक है. ये वही मार्शल लॉ था जिसके बारे में नवाज़ शरीफ ने पूछा था कि मुझे गिरफ्तार किया जा रहा है तो मार्शल लॉ लग गया? ये लॉ आर्मी चीफ़ को अधिकार दे देता है. शक्ति बढ़ा देता है. लेकिन मुशर्रफ़ को इसके बग़ैर भी उतनी ही शक्तियां थीं. जो मर्ज़ी कर सकते थे. किया भी मुशर्रफ़ ने कभी इस तख्तापलट को अपने लिए नहीं बताया. पाकिस्तान के लिए लिया गया फ़ैसला कहते रहे.उन्होंने लिखा कि पाकिस्तान राजनेताओं के भ्र्ष्टाचार से त्रस्त था. मैंने अपने शासनकाल के दौरान इसे बदला. उनका दावा है कि उन्होने देश की इकोनॉमी सुधारी. देश को नए सिस्टम दिए. लोकतंत्र को मजबूत किया. मुशर्रफ़ अपने अमेरिका के साथ सबन्धों और उससे देश के ख़जाने को भरने का ज़िक्र बार बार कई इंटरव्यूज में करते थे. लेकिन पाकिस्तान के कई लोग इस अमेरिकी इंटरेस्ट को अमेरिका का ही स्वार्थ बताते हैं. पूरा पॉडकास्ट यहाँ सुनें-

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लोकतंत्र की मजबूती का दावा कर रहे मुशर्रफ़ को तख्तापलट के बाद डेढ़ साल लगे, जब उन्हें सेनाप्रमुख की कुर्सी कम लगने लगी. राष्ट्रपति खटकने लगे. प्रधानमंत्री तो वो हटा ही चुके थे.1999 में कारगिल युद्ध छेड़ने वाले मुशर्रफ़ अब भारत के साथ बातचीत करना चाहते थे. 2001 का साल था, आगरा में एक शिखर वार्ता होने को थी जो भारत-पाकिस्तान के इतिहास में यादगार वार्ता थी. मुशर्रफ़ ने भारत आने से पहले राष्ट्रपति रफ़ीक तारड़ को अपने पद से इस्तीफ़ा दिलवाया.   खुद के राष्ट्रपति बनने की घोषणा कर दी, वो भी सेनाध्यक्ष का पद छोड़े बिना. लेकिन ये वार्ता बेनतीजा रहने वाली थी.अपने कार्यकाल में दुनियाभर के नेताओं के साथ मिलते जुलते मुशर्रफ़ की बॉडीलैंग्वेज डिप्लोमेटिक होने से ज़्यादा अटैकिंग या थोड़ा और आसान भाषा में कहें तो  डोमिनेटिंग रहती थी.  कहते हैं कि ये भी एक वजह थी जो सुलह के अवसर मार देती थी. मुशर्रफ़ अटल विहारी वाजपेयी से बंद कमरे में बात कर रहे थे. बाहर मीडिया को कुछ और बोल रहे थे. ऐन वक्त पर समझौते कागज़ के टुकड़े बन कर रह गए. लेकिन ताक़त बिना जोखिम के कहाँ आती है? मुशर्रफ़ दुनिया घूम रहे थे, पाकिस्तान में उनका शासन था लेकिन उनकी मुखालफत में कुछ लोग खड़े हो चुके थे. गुड टेरेरिस्ट बैड टेरेरिस्ट के फेर में मुशर्रफ़ भी पड़ चुके थे.  गुड वाले तो न जाने कहां गए जिन्हें कारगिल के समय मुशर्रफ़ ने किताब में मुजाहिद्दीन लिखा है,लेकिन बैड वालों की बंदूक का निशाना अब वो खुद थे.  साल 2003, दिसम्बर का महीना. 14 तारीख़. एयरपोर्ट से घर लौटते मुशर्रफ़ के काफ़िले के ठीक पीछे की कार विस्फोट में उड़ गई. उन्होंने लिखा है कि मेरी कार के चारों पहिये हवा में थे. मैं समझ गया था कि ये एक बड़े बम का धमाका है क्योंकि उसने तीन टन की मर्सिडीज़ कार को हवा में उछाल दिया था। 11 दिन बाद ही एक धमाका और हुआ.  इसमें भी मुशर्रफ बच गए. आठ बरस तक मुशर्रफ़ की हवेली पर रात में भी सूरज उगता रहा. लेकिन जम्हूरियत का सूरज ज़्यादा दिन तक कब्ज़ाया नहीं जा सकता. पाकिस्तान ने तो ज़िया उल हक़ का भी अस्त देखा था. अब मुशर्रफ़ की बारी थी. 
सेना की कुर्सी छोड़ते ही मुशर्रफ का पतन शुरू हो गया. बची खुची कहानी पूरी की 3 नवंबर 2007  को लगाई गई एमर्जेंसी ने, मुशर्रफ का विरोध शुरू हो चुका था. एमर्जेंसी के बावजूद दबाव बढ़ रहा था, चुनाव कराने का. अंततः ऐलान हुआ कि फरवरी 2008 में चुनाव होंगे. इन चुनावों में मुशर्रफ बुरी तरह हारे. PML एन और बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल भुट्टो  की पार्टी पीपीपी  ने सबसे ज्यादा सीटें जीती. सरकार बनी और प्रधानमंत्री बने यूसुफ रजा गिलानी. मुशरर्फ पर अब दबाव था इस्तीफे का, क्योंकि सब जानते थे कि अगर मुशरर्फ़ खुद नहीं हटे तो इंपीच मेंट से हटा दिया जाएगा. आखिरकार मुशर्रफ ने 18 अगस्त 2008 को राष्ट्रपति  की कुर्सी छोड़ दी.  अब पलटवार होना था. जवाबी कारवाई.मुशर्रफ ने जो दिया था वो वापस उन्हें मिलना था. मुशर्रफ को सजा सुनाई गई लेकिन आर्मी ने उन्हें सुरक्षित विदेश निकाल दिया. कई लोगों ने लिखा है कि इसके बाद भी मुशर्रफ़ वापसी के सपने पाले रहे. उन्हें लगता था कि अभी सूरज नहीं डूबा. लेकिन एक बार मुल्क़ छोड़ के उड़े मुशर्रफ़ लौट कर वापस नहीं आ सके. देशद्रोह के आरोप और उम्रक़ैद की सज़ा उनका इंतज़ार कर रही थी. वो नहीं लौटे.लेकिन दुबई में बैठे बैठे  पाकिस्तान के इस तानाशाह ने मुल्क की राजनीति को प्रभावित किये रखा. अक्सर उनके बयान सियासत के लिए बहस का विषय बनते रहे. लेकिन ...... वक्त बदलने की दुआ पाले मुशर्रफ का वो वक्त नहीं आया जो उन्हें पाकिस्तान की उड़ान दे सके. फिर वो भी दिन आया जब पाकिस्तान का ये जनरल और तानाशाह एक भयंकर बीमारी से दुनिया छोड़ गया. दुबई में ही. सोचिए जो मुल्क उन्हें जिंदा आने की इजाज़त नहीं दे रहा था क्योंकि मौत की सजा सुनाई गई थी, मरने के बाद मुशर्रफ को पाकिस्तान लाया गया. और सेना ने  ....वही सेना जिसने जनरल को स्व घोषित राष्ट्रपति बनाया ... उनका अंतिम संस्कार सैन्य परंपरा से किया.  राहत इन्दौरी का एक शेर है,  उनका अंजाम तुम्हें याद नहीं है शायद ,और भी लोग थे जो खुद को खुदा कहते थे  तानाशाहों को सदैव ये भ्रम रहा कि उनका अंत नहीं हो सकता, पाकिस्तान में जिया उल हक हो या परवेज़ मुशर्रफ.  पाकिस्तान की तारीख में मुशर्रफ किस तौर पर याद किये जाएंगे. शायद एक तानाशाह से ज्यादा कुछ नहीं. उनके दावे हमेशा से इसके उलट रहे लेकिन लोकतंत्र के तरीके को धता बता कर कुर्सी पर बैठ जाने वाला कैसे अच्छे तौर पर याद किया जा सकता है? परवेज़ मुशर्रफ ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि मुझे अपने मुल्क के भले के लिए याद रखा जाए, मुझे एक सोल्जर के तौर पर याद रखा जाए लेकिन पाकिस्तान में ये कह पाना बहुत मुश्किल है कि कौन उन्हें हीरो मानता है और कौन विलेन. राजनीतिक अस्थिरता ही परवेज़ मुशर्रफ के जन्म का कारण है और उनके हीरो बनने का भी. जो लोग लोकतंत्र में यकीन रखते हैं उन्हें मुशर्रफ कभी रास नहीं आएंगे. और शायद इतिहास को भी नहीं.  

 

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