इतिहास की क्लास चल रही थी और एक बच्चा देश के अतीत से बेखबर अपनी ही दुनिया में डूबा हुआ था. ख्वाबों की दुनिया में. टीचर ने पूछा कि तुम क्या कर रहे हो और कॉपी हाथ से छीन ली. वह कविताएं लिख रहा था. टीचर ने कॉपी फाड़ दी. बच्चे को यह बात बुरी लगी और उसने किताबें उठाकर ब्लैकबोर्ड पर दे मारीं और रोते हुए बोला, 'आइ डोंट लाइक हिस्ट्री. आइ लाइक पोएट्री.' छुटपन में शायरी! शायद सबने इसे उसकी चंचलता समझा. लेकिन आज वह
बॉलीवुड के टैलेंटेड गीतकारों में अपनी जगह बना चुका है. वे विश्व कप 2011 के दे घुमा के एंथम से लेकर बॉस, उंगली, गब्बर, सन ऑफ सरदार और पीकू समेत लगभग दो दर्जन फिल्मों और कई जिंगल्स के लिए गीत लिख चुके हैं.
उनके पिता 1960 के दशक में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से मुंबई आकर एक मिल में काम करने लगे थे. इस वजह से बचपन का सफर मुंबई और उत्तर प्रदेश के बीच दौड़ते-भागते बीता. साल भर पढ़ाई करते मुंबई में और गर्मियों की दो महीने की छुट्टियां बीतती गांव में. इस तरह गंगा-जमुनी तहजीब हमेशा उनके जेहन में रही. उनमें
बचपन से ही सवाल दागने की आदत थी. मनोज बताते हैं, 'पिताजी कहते थे कि सारी दुनिया के सवाल मेरे ही भेजे में ठूंस दिए हैं भगवान ने.'
शुरुआती सफर स्कूलों में अमूमन कुछ ऐसे बच्चे होते हैं कि जिन्हें पता होता है कि उन्हें क्या करना है. वहीं कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें कुछ नहीं करना होता और कुछ ऐसे जिन्हें बहुत कुछ करना होता है. मनोज भी सब कुछ करना चाहते थे. पढ़ाई में ठीक-ठाक थे और टीचर्स और दोस्तों में लोकप्रिय. उनकी यही कोशिश रहती कि वे लोगों का ध्यान अपनी ओर कैसे खींचें, और इसी जुगत में लगे रहते. हर मां-बाप की तरह उनके पेरेंट्स भी सोचते कि वे डॉक्टर या कलेक्टर बनेगे. लेकिन उनका ध्यान शायरी पर आकर टिका.
वे बताते हैं, 'मैंने सबसे पहले डॉन फिल्म देखी थी. बस वहीं से फिल्मों का कीड़ा दिमाग में घुसा था. घर पर टीवी नहीं था. पड़ोस में जाकर देखना पड़ता था. एक वक्त ऐसा आया कि पड़ोसियों ने मना कर दिया. फिर भी मैं आवाज सुना करता था. पिताजी से टीवी लाने की जिद की तो उन्होंने शर्त रखी कि पढ़ाई में अच्छा स्कोर करोगे तभी अगले साल मिलेगा. अच्छा स्कोर किया और टीवी मिल गया.' उन्होंने 1989 में जंगल जंगल बात चली है पता चला है, चड्ढी पहन के फूल खिला है गीत सुना तो उसके बाद लिखने का शौक और जोर मारने लगा. लिहाजा मनोज ने हर बात कविता में कहना शुरू कर दिया. स्कूल में सभी फ्रेंड्स के जन्मदिन पर वे उनके नाम के अनुसार बधाइयां लिखते. इस तरह लिखना शुरू हो गया.
जिंदगी का संघर्ष
उनका जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा है. वे बताते हैं, 'पिताजी के देहांत के बाद मां की तबियत ऐसी बिगड़ी कि मेरे 7-8 साल हॉस्पिटल और उनकी देखभाल में ही बीते.' उनके जाने के बाद भी संघर्षों ने पीछा नहीं छोड़ा. गुजर-बसर के लिए
पैसों की सख्त जरूरत थी. सो कुछ साल तक पेंटिंग कॉन्ट्रेक्टर के पास नौकरी भी की. फिर मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव का काम किया. पर नौकरी में मन नहीं लगा क्योंकि लिखने के लिए समय नहीं मिल पाता था. लेकिन हालात थोड़े पकड़ में आए तो नौकरी छोड़-छाड़कर उन्होंने सांग राइटिंग की ठानी.
कामयाबी की दास्तान उन्होंने कॉमर्शियल राइटिंग गणपति मंडल में ऐक्ट लिखने से की. वे गणपति के लिए ऐक्ट लिखते जिसके बदले 100-300 रुपये मिलते थे. इस दौरान उन्हें 15 से 30 ऐक्ट का काम मिल जाता था.
फिल्मी सफर म्यूजिक डायरेक्टर गुलराज सिंह से मुलाकात के बाद शुरू हुआ. दोनों ने मिलकर गणपति पर म्यूजिक एल्बम गणराज अधिराज बनाने का फैसला किया. इस दौरान उन्हें शंकर-एहसान-लॉय का मार्गदर्शन और सपोर्ट मिला, और एक दिन उनकी मैनेजर का फोन आया कि उन्हें स्टूडियो आना है, कुछ काम है. मनोज बताते हैं, 'मैं गया और मेरा पहला काम एयरसेल मोबाइल का जिंगल लिखने का था. उसके बाद लक्स का सोने से भी सोना लगे (अभिषेक और ऐश्वर्या राय) का जिंगल किया. '
फिर क्रिकेट विश्व कप 2011 का एंथम दे घुमा के हुआ और फिर एक के बाद एक कडिय़ां जुड़ती गईं. ' किसी लक्ष्य के लिए शिद्दत से मेहनत की जाए तो पूरी कायनात उसे मिलाने के लिए जुट जाती है. ऐसा ही कुछ मनोज के साथ हुआ. वे मानते हैं कि दिल की सुनें, जिम्मेदार बनें और जिम्मेदारी निभाएं.'
नरेंद्र सैनी