कड़कड़ाती सर्दी में गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के मिलन स्थल पर कल्पवास की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है. तीर्थराज प्रयाग में संगम के निकट हिन्दू माघ महीने में कल्पवास करते हैं. आइए जानते हैं क्या है कल्पवास का महत्व.
मान्यता है कि प्रयाग में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के साथ
शुरू होने वाले एक मास के कल्पवास से एक कल्प अर्थात ब्रह्मा के एक दिन का
पुण्य मिलता है. इस वर्ष कल्पवास 2 जनवरी को पौष पूर्णिमा के साथ आरंभ हो
चुका है. वहीं कुछ लोग मकर संक्रांति से भी कल्पवास आरंभ करते हैं.
आत्मशुद्धि के लिए महत्वपूर्ण:
कल्पवास
की परम्परा आदिकाल से चली आ रही है. इसमें कल्पवासी संगम के तट पर डेरा
जमाते हैं. पौष पूर्णिमा के साथ आरंभ करने वाले श्रद्धालु एक महीने वहीं
रहते हैं बनाते-खाते हैं और भगवान का भजन करते हैं. यह मनुष्य के लिए
आध्यात्म की राह का एक पड़ाव है, जिसके जरिए स्वनियंत्रण और आत्मशुद्धि का
प्रयास किया जाता है.
वेदों में भी मिलती है कल्पवास की चर्चा:
आदिकाल से चली आ रही इस परंपरा के महत्व की चर्चा वेदों से लेकर महाभारत और रामचरितमानस में अलग-अलग नामों से मिलती है. हालांकि बदलते समय के अनुरूप कल्पवास करने वालों के तौर-तरीके में कुछ बदलाव जरूर आए हैं लेकिन कल्पवास करने वालों की संख्या में कमी नहीं आई है. आज भी श्रद्धालु भयंकर सर्दी में कम से कम संसाधनों की सहायता लेकर कल्पवास करते हैं.
समय के साथ बदला कल्पवास का ढंग:
समय के साथ कल्पवास के तौर-तरीकों में कुछ बदलाव भी आए हैं. बुजुर्गों के साथ कल्पवास में मदद करते-करते कई युवा खुद भी कल्पवास करने लगे हैं. कई विदेशी भी अपने भारतीय गुरुओं के सानिध्य में कल्पवास करने यहां आते हैं.
कल्पवास 12 वर्षों तक जारी रखने की परंपरा:
पौष पूर्णिमा से कल्पवास आरंभ होता है और माघी पूर्णिमा के साथ संपन्न होता है. एक माह तक चलने वाले कल्पवास के दौरान कल्पवासी को जमीन पर शयन (सोना) करना होता है. इस दौरान श्रद्धालु फलाहार, एक समय का आहार या निराहार रहते हैं. कल्पवास करने वाले व्यक्ति को नियमपूर्वक तीन समय गंगा स्नान और यथासंभव भजन-कीर्तन, प्रभु चर्चा और प्रभु लीला का दर्शन करना चाहिए. कल्पवास की शुरुआत करने के बाद इसे 12 वर्षों तक जारी रखने की परंपरा रही है. हालांकि इसे अधिक समय तक भी जारी रखा जा सकता है.
कौन कर सकता है कल्पवास:
पौष कल्पवास के लिए वैसे तो उम्र की कोई बाध्यता नहीं है, लेकिन माना जाता है कि संसारी मोह-माया से मुक्त और जिम्मेदारियों को पूरा कर चुके व्यक्ति को ही कल्पवास करना चाहिए. ऐसा इसलिए, क्योंकि जिम्मेदारियों से बंधे व्यक्ति के लिए आत्मनियंत्रण कठिन माना जाता है.
जौ का बीजारोपण:
कल्पवास की शुरुआत के पहले दिन तुलसी और शालिग्राम की स्थापना और पूजन होती है. कल्पवासी अपने टेंट के बाहर जौ का बीज रोपित करता है. कल्पवास की समाप्ति पर इस पौधे को कल्पवासी अपने साथ ले जाता है. जबकि तुलसी को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है.