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धर्म

अयोध्या: हनुमान गढ़ी के महंत चुनाव में क्यों नहीं डाल पाते वोट?

मंजू ममगाईं/aajtak.in
  • 01 मई 2019,
  • अपडेटेड 9:20 AM IST
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देश की राजनीति में अयोध्या और उसकी रामजन्मभूमि अक्सर चर्चा का विषय बने रहते हैं. ये चर्चाएं तब और तेज हो जाती हैं जब चुनाव का समय आता है. बहरहाल अयोध्या का महत्व रामजन्मभूमि और अयोध्या मंदिर से हटकर भी है. यहां एक और चीज ऐसी है जिसके बार में बहुत कम लोग ही जानते हैं. जी हां और यह खास चीज हैं वहां का वहां की हनुमानगढ़ी. 

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इस गढ़ी ने अठारहवीं शताब्दी की समाप्ति से 20-25 साल पहले ही वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र को व्यवस्था और जीवनदर्शन के तौर पर अंगीकार कर लिया था. बावजूद इसके यहां के खुद के महंत चुनाव के दौरान वोट नहीं डाल पाते हैं. आइए जानते हैं आखिर क्यों.

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फैजाबाद के वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह ने बताया कि अयोध्या की ऐतिहासिक हनुमानगढ़ी में आंतरिक व्यवस्था के लिए आजादी मिलने से बहुत पहले से लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली को अपना रखा है, लेकिन उसकी एक परम्परा उसके लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सर्वोच्च पदाधिकारी-गद्दीनशीन-को किसी भी चुनाव में अपने मताधिकार के प्रयोग से रोक देती है.

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कृष्ण प्रताप सिंह ने बताया कि परम्परा यह है कि गढ़ी के गद्दीनशीन उसके 52 बीघे के परिसर से बजरंगबली के निशान और शोभा यात्रा के साथ ही बाहर निकल सकते हैं. चूंकि मतदान के दिन शोभा यात्रा निकालना और मतदान केंद्र तक ले जाना संभव नहीं होता, इसलिए गद्दीनशीन को अपनी मतदान की इच्छा का दमन करना पड़ता है. कई बार गद्दीनशीनों को इसका मलाल भी होता है, लेकिन हारकर वे परम्परा के आगे सिर झुका देते हैं.

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जब इस बारे में सवाल किया जाता है कि, क्या यह परम्परा अंतिम है? तो जानकार कहते हैं कि गढ़ी के संविधान में नया प्रावधान करके मतदान के दिन को उसका अपवाद बनाया जा सकता है, लेकिन गद्दीनशीनों को मतदान का दिन आने पर इसकी याद आती है और मतदान खत्म होते ही बात आई गई हो जाती है.

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हनुमान गढ़ी का लोकतंत्र-
हनुमान गढ़ी ने अठारहवीं शताब्दी की समाप्ति से बीस-पच्चीस साल पहले ही वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र को व्यवस्था और जीवनदर्शन के तौर पर बाकायदा संविधान बनाकर लागू कर दिया था. बता दें, फारसी में लिखे गये इस संविधान के अनुसार इसका सर्वोच्च पदाधिकारी गद्दीनशीन कहलाता है, जो वंश परंपरा, गुरु शिष्य परंपरा अथवा किसी उत्तराधिकार से नहीं आता.

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हनुमान गढ़ी का लोकतंत्र-
हनुमान गढ़ी के इस गद्दीनशीन का निश्चित अवधि के लिए बाकायदा चुनाव होता है. इस चुनाव के दौरान उसे वहां के लोगों को वचन देना पड़ता है कि वह गढ़ी की सारी संपत्ति को सामूहिक मानेगा, उसका संरक्षक बनकर रहेगा, उसे निजी प्रयोग में नहीं लायेगा, बर्बाद नहीं करेगा और पंचों के परामर्श के बगैर कोई कदम नहीं उठायेगा. अपने इस वचन को भंग करने पर संविधान में उसे दंडित करने की भी व्यवस्था की गई है.

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हनुमान गढ़ी का लोकतंत्र-
इस गढ़ी में आने वाले सदस्य को मत देने का अधिकार ऐसे ही नहीं मिल जाता है. इस अधिकार को पाने के लिए उसे एक निर्धारित प्रक्रिया से गुजरना होता है. शिक्षा-दीक्षा के लिए गढ़ी में आने वाले को सादिक चेला या साधक शिष्य कहते हैं. साधु बनने से पहले उसे छोरा बनना पड़ता है, फिर बारी-बारी से बंदगीदार, हुरदंगा, मुरेठिया, नगा और प्रतिश्रेणी नगा. प्रतिश्रेणी नगा हो जाने के बाद वह गढ़ी का सदस्य हो जाता है और उसे मताधिकार मिल जाता है.

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हनुमान गढ़ी का लोकतंत्र-
इस गढ़ी के नियमानुसार यहां कुल 3 पंचायतें होती हैं- पट्टी पंचायत, अखाड़ा पंचायत और अखाड़ा कार्यकारिणी की पंचायत. पहले चारों पट्टियों के मतदाता अपने महंत का चुनाव करते हैं. जिसके बाद अखाड़ा पंचायत चुनी जाती है. आखिरी में अखाड़े और चारों पट्टियों से चुने गए 24 पंच अपना एक सरपंच चुनते हैं, जो अखाड़ा कार्यकारिणी की पंचायत का सरपंच कहलाता है.

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हनुमान गढ़ी का लोकतंत्र-
सरपंच का कार्यकाल दो साल का होता है. चुनाव के दौरान उसे गद्दीनशीन के सामने सच्चाई, ईमानदारी और निष्पक्षता की शपथ लेनी होती है.बता दें, गद्दीनशीन का चुवान भी अखाड़े के पंचों द्वारा ही होता है.

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पट्टी, अखाड़े अथवा अखाड़ा कार्यकारिणी की पंचायतों की बैठकें करने और उनसे जुड़ी सूचनाएं दूसरों से साझा करने के लिए 'कोतवाल' नाम के एक पदाधिकारी की नियुक्ति की जाती है. जबकि हिसाब-किताब रखने वाले पदाधिकारी को 'गोलकी' कहकर बुलाया जाता है. साधुओं की इन चारों पट्टियों को सत्ता संघर्ष से बचाने के लिए एक खास नियम भी बनाया गया है कि गद्दीनशीन का चुनाव बारी-बारी करके हर पट्टी से किया जाएगा. जिसका उत्तरदायित्व सिर्फ अखाड़े के प्रति होगा.

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