संभल की शाही मस्जिद में हरिहर मंदिर का सर्वे करने गई टीम के साथ हुई हिंसा के बाद से यहां पर तनाव है. हिंसा में करीब 4 युवकों की मौत हो गई थी. पुलिस का कहना है कि हिंसा की वजह स्थानीय राजनीति में वर्चस्व की जंग है. भारतीय जनता पार्टी और स्थानीय प्रशासन का मानना है कि संभल में हुई हिंसा सपा के संभल सांसद ज़िया-उर-रहमान बर्क और सपा विधायक इकबाल महमूद के बीच जातीय संघर्ष का नतीजा थी. संभल बीजेपी की स्थानीय इकाई ने आरोप लगाया कि इन दोनों नेताओं के बीच संघर्ष तुर्क बनाम पठान के आधार पर हुआ, क्योंकि ज़िया और महमूद क्रमशः तुर्क और पठान समुदाय से संबंधित हैं. हालांकि, सपा नेताओं ने इन आरोपों को खारिज कर दिया और बताया कि दोनों परिवारों के बीच पिछले चार दशकों से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता रही है.
सवाल उठता है कि क्या राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते एक दूसरे के समर्थकों पर गोली चलाई जा सकती है. सवाल का उत्तर हां और नहीं दोनों में हो सकता है. पर अगर ये कहा जाए कि यह सरकारी मशीनरी का फेलियर का नतीजा है तो शायद ही कोई इनकार कर सकेगा. क्योंकि अगर मुस्लिम धर्म की दो जातियां भी आपस में लड़ती हैं और मरने मारने पर उतारू होती हैं, या धोखे से एक गुट दूसरे गुट को मारता है या दंगा भड़काने के लिए नेताओं ने ही खुद गोली चलवाई जाती है तो फेलियर किसका है? इन बातों से इनकार नहीं किया जा सकता है दंगे भड़काने के लिए नेता किसी भी स्तर पर गिर जाते हैं. पर इसे रोकने के लिए ही तो पुलिस और प्रशासन की व्यवस्था की जाती है. आइये देखते हैं कि संभल हिंसा के पीछे मुख्य रूप से कौन जिम्मेदार है?
1-तुर्क और पठान विवाद पर क्यों उठ रही उंगली?
बीजेपी सरकार में मंत्री नितिन अग्रवाल ने संभल हिंसा के तुरंत बाद इसका कारण सपा सांसद और सदर विधायक की आपसी वर्चस्व का नतीजा बताया था. उन्होंने यहां तक दावा किया की गोली पुलिस की ओर से नहीं बल्कि सपा सांसद जिया उर रहमान के समर्थकों ने चलाई जो विधायक के समर्थकों को लग गई. पुलिस का भी कहना था कि मरने वालों के शरीर में उनकी बंदूकों की गोलियां नहीं है. दूसरी ओर समाजवादी पार्टी का कहना रहा है कि पुलिस ने जानबूझकर अवैध हथियारों से गोलियां चलाईं थीं ताकि जांच में कहीं वो फंस न सकें. पर अभी तक पुलिस ने जो विडियो फोटो आदि जारी किए हैं, या अभी तक मीडिया, यू ट्यूबर्स आदि ने जो फुटेज जारी किए हैं उनमें कोई भी पुलिस वाला अवैध हथियार से गोली चलाता नहीं दिखा है. दूसरी तरफ पुलिस ने तमाम ऐसे फुटेज जारी किए हैं जिसमें मुंह पर कपड़ा बांधे कुछ लोग अवैध हथियारों से फायरिंग करते दिख रहे हैं. जबकि पत्थरबाजों की संख्या तो सैकड़ों में है.
दरअसल पश्चिमी यूपी के शहरों और कस्बों में मुस्लिम लोग कई जातियों में बंटे हुए हैं. इनमें अपनी जाति को लेकर हिंदुओं जैसी प्राइड फीलिंग भी है. संभल से लोकसभा सांसद जियाउर रहमान बर्क तुर्क बिरादरी से आते हैं जबकि संभल सदर विधानसभा सीट से सपा विधायक इकबाल महबूब पठान बिरादरी से आते हैं. दोनों के बीच राजनीतिक वर्चस्व की बात जगजाहिर रही है. 2024 के लोकसभा चुनाव में इकबाल महबूब का नाम सपा उम्मीदवार के लिए भी चल रहा था. पर पार्टी ने जिया उर रहमान बर्क को टिकट दिया था. संभल, मुरादाबाद और आसपास के क्षेत्रों में तुर्क राजनीति का दबदबा है. बर्क फैमिली तुर्क है. संभल लोकसभा में ही करीब 2 लाख 70 हजार से अधिक तुर्क वोट हैं तो इसी तरह मुरादाबाद में भी करीब 2 लाख से अधिक तुर्क हैं. यही कारण रहा है कि शफिकुर्रहमान संभल और मुरादाबाद दोनों ही लोकसभा सीट से सांसद बने थे.
2-बीजेपी को क्या हो सकता है फायदा
पश्चिमी यूपी में कई मुस्लिम बहुल सीटों पर बीजेपी की राजनीति फेल होती रही है. पर कुंदरकी में मिले बीजेपी को वोट बताते हैं कि अगर मुसलमानों को बांट दिया गया तो वेस्ट यूपी की कई सीटों पर फतह हासिल की जा सकती है. क्योंकि तुर्क और पठान एक दूसरे के खिलाफ वोटिंग करते रहे हैं. 2009 के चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने शफीकुर्रहमान की जगह इकबाल महमूद को उम्मीदवार बना दिया था. इसके बाद सपा के फैसले से तुर्क संगठन नाराज हो गए थे. तुर्क संगठनों ने शाफिकुर रहमान बर्क पर बीएसपी में शामिल होने का दबाव बनाया और टिकट लेने को कहा. शाफिकुर रहमान बर्क ने बीएसपी से टिकट लेकर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को बुरी तरह पराजित किया था.
संभल हिंसा मामले में जियाउर रहमान बर्क के खिलाफ एफआईआर से तुर्क संगठन नाराज हुए हैं. अब पठान बनाम तुर्क विवाद और गरमाता है तो गैर तुर्क मुसलमान लामबंद होंगे. अगर गैर तुर्क किसी भी पार्टी के साथ जाते हैं तो फायदा बीजेपी को ही होने वाला है. संभल में गैर तुर्क मुसलमान की आबादी करीब 6 लाख है. हालांकि संभल हिंसा में सदर विधायक इकबाल महमूद के बेटे सोहेल इकबाल के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज हुई है.
3-सरकारी मशीनरी फेलियर
19 नवंबर को चंदौसी अदालत में दायर याचिका में तुरंत मस्जिद का निरीक्षण कराने की मांग की गई थी. सरकार के वकील प्रिंस शर्मा ने इसका विरोध नहीं किया और अदालत ने दोपहर 2:38 बजे याचिका मंजूर कर ली. एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि इसके बाद, एडवोकेट कमिश्नर रमेश राघव को मस्जिद का सर्वेक्षण करने और 29 नवंबर तक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए नियुक्त किया गया. आनन फानन में सर्वे शुरू हो गया. सरकार को संवेदनशील मामलों में इतनी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. मुस्लिम पक्ष का कहना है कि पहले सर्वे का नोटिस हमें कुछ मिनट पहले दिया गया, दूसरा सर्वे भी बिना कोर्ट के आदेश के किया गया.
रमेश राघव का कहना है कि सभी प्रक्रियाओं का पालन किया गया और मस्जिद कमेटी को पूर्व सूचना देने की आवश्यकता नहीं थी. यह सही है कि कुछ पूर्व सूचना देने की आवश्यकता नहीं होती है पर जब मामला और मंदिर और मस्जिद का हो गया तो इस तरह की जल्दबाजी दिखाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी.
संयम श्रीवास्तव