संसद का मानसून सत्र पिछले 9 दिनों से चल रहा है. नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी लगातार बीजेपी पर हमले किए जा रहे हैं. और वो भी उन बिंदुओं को मुद्दा बनाकर बीजेपी को घेर रहे हैं जिनके लिए बीजेपी का रिकॉर्ड कांग्रेस से अच्छा रहा है. बीजेपी को समझ में नहीं आ रहा है कि राहुल के उन नरेटिव का तोड़ क्या निकाला जाए. बीजेपी जो भी कर रही है उसमें खुद फंसती जा रही है. जैसे कि बीजेपी सांसद अनुराग ठाकुर मंगलवार को राहुल गांधी की जाति पूछ ली तो बवाल मच गया. जबकि राहुल गांधी खुद जाति-जाति की रट लगाए हुए हैं. पत्रकारों से उनकी जाति पूछते रहे हैं. दूसरे राहुल गांधी से अधिक नाराज तो अखिलेश यादव हो रहे हैं जैसे कि कभी उन्होंने किसी से जाति पूछी ही नहीं है. पत्रकारों से उनकी जाति पूछकर अपमानित करने का काम अखिलेश भी करते रहे हैं. और अखिलेश की तो पूरी राजनीति ही जाति पर टिकी हुई है. मंडल की जातिवादी राजनीति से मुकाबले के लिए ही तो कमंडल का अस्तित्व समाने आया था.
पर यह भी मानना पड़ेगा कि लगातार नरेटिव बीजेपी के खिलाफ ही सेट हो रहा है. कांग्रेस और उसके साथी दल जाति जनगणना की बात कर रहे हैं, बीजेपी अगर जाति जनगणना की बात करती तो ये आरोप लग जाता कि ऐसा वह भेदभाव करने की नीयत से कर रही है. यही नरेटिव सेट करने में आज बीजेपी पिछड़ गई है. ऐसा क्यों हो रहा है यह बहस का विषय हो सकता है.
जाति जनगणना के सपोर्ट में रही है बीजेपी, पर नरेटिव अलग सेट हो रहा है
राहुल गांधी से भी पहले जाति जनगणना कराने का मुद्दा नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव का रहा है. केंद्र में यूपीए सरकार के समय 2010 में जाति जनगणना की मांग हुई थी, पर कांग्रेस ने इनकार कर दिया. अभी पिछले साल ही की बात है, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जाति जनगणना का मुद्दा उठाया और बिहार सरकार ने जाति जनगणना करवाई गई. यही नहीं जनगणना की रिपोर्ट भी जनता के सामने लाई गई. रिपोर्ट के आधार पर विभिन्न वंचित जातियों को लाभ पहुंचाने के लिए बिहार सरकार ने आरक्षण की सीमा भी बढ़ाई. बिहार में भारतीय जनता पार्टी उस समय विपक्ष में थी. पर जाति जनगणना के हर स्टेप का भारतीय जनता पार्टी ने सपोर्ट किया. जाति जनगणना की मांग करने वाली सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में भी बीजेपी शामिल रही. इस बीच जाति जनगणना रोकने के भी प्रयास हुए. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया. कोर्ट ने केंद्र सरकार का पक्ष मांगा, और केंद्र की बीजेपी सरकार के ओके करने के बाद ही जाति जनगणना संभव हो सकी.
यही नहीं उत्तर प्रदेश- मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बड़े बीजेपी नेताओं ने भी जाति जनगणना का सपोर्ट किया है. उत्तर प्रदेश में केशव प्रसाद मौर्य, महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस आदि ने हमेशा जाति जनगणना की डिमांड का सपोर्ट किया है. सिर्फ सपोर्ट ही नहीं ये नेता जाति जनगणना की डिमांड भी करते रहे हैं. रही बात जाति जनगणना कराने की तो न कांग्रेस शासित राज्यों ने इनिशिएटिव लिया और न ही बीजेपी शासित राज्यों ने इनिशिएटिव लिया. जब बिहार में जाति जनगणना करवाई जा रही थी कांग्रेस राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में सत्ता में थी. पर कभी भी जाति जनगणना के बारे में सोचा भी नहीं. यही नहीं हर रोज जाति जनगणना की मांग करने वाले राहुल गांधी ने कभी कर्नाटक की कांग्रेस सरकार से पूछा भी नहीं कि जाति जनगणना की रिपोर्ट जनता के सामने क्यों नहीं रखते. गौरतलब है कि कर्नाटक में जाति जनगणना हो चुकी है पर कांग्रेस सरकार जानबूझकर उसे जनता के सामने नहीं ला रही है. जिस तरह 2011 में हुई जाति जनगणना की रिपोर्ट 2014 तक कांग्रेस सरकार दबाए रखी.
दरअसल समय के साथ कांग्रेस ने अपने में बदलाव लाई है. जिस तरह 2014 में बीजेपी ने अपने में बदलाव लाई और उसे सफलता मिली. अब बीजेपी में बदलाव का क्रम ठप सा पड़ गया है. बीजेपी ने सबसे पहले आईटी सेल के कॉन्सेप्ट पर काम किया. खूब सफलता मिली. अब दूसरे भी उस कॉन्सेप्ट को अपना लिए हैं. बीजेपी को कुछ अलग सोचना होगा. कांग्रेस ने अपनी रणनीति बदल ली है. वह जो है, जो नहीं है इन सब बातों से परे सोच रही है. जैसे कांग्रेस का नारा था जाति पर पात पर-मुहर लगेगी हाथ पर. अब कांग्रेस कह रही है जाति भी पात भी, मुहर लगेगी हाथ पर.
कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी ने पिछड़ों और दलितों के लिए काम किया पर नरेटिव कुछ और सेट हो रहा
कांग्रेस पार्टी पर हमेशा से पिछड़ों और दलितों की अवहेलना करने के आरोप लगते रहे हैं. कांग्रेस को पिछड़ों का समर्थन तो कम ही मिला पर दलितों के वोट पर ही कांग्रेस ने दशकों तक भारत पर राज किया. जबकि सर्वविदित है कि दलित अधिकारों के लिए बाबा साहब आंबेडकर ने कांग्रेस छोड़ी थी. यही नहीं जगजीवन राम को भी प्रधानमंत्री बनने से रोकने में कांग्रेस का हाथ रहा. देश के पहले पीएम जवाहर लाल नेहरू और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी तो घोर आरक्षण विरोधी रहे हैं. राहुल गांधी आज पूछते हैं कि हलवा सेरेमनी में कितने दलित और पिछड़े अधिकारी थे ? जबकि कांग्रेस सरकारों के दौर में अधिकारी तो छोड़िए पिछड़े वर्ग के नेता विधायक- सांसद बनने के योग्य भी नहीं समझे जाते थे. मंडल कमीशन की रिपोर्ट को बरसों कांग्रेस ने दबाए रखा. पूर्व पीएम विश्वनाथ प्रताप सिंह ने रिपोर्ट को लागू की. उसके बाद राजनीति और प्रशासन में पिछड़ों का प्रवेश शुरू हुआ. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय चुनावों का इतिहास जिन लोगों को पता है वो जानते हैं कि कांग्रेस का वोट बैंक ब्राह्मण-दलित और मुसलमान होते थे. पिछड़ों का वोट हमेशा से का्ंग्रेस विरोधी ही रहा है. मंडलवादी क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी पहली राष्ट्रीय पार्टी थी जहां पिछड़े नेतृत्व को स्वीकार किया गया. उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, मध्य प्रदेश में उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान आदि इसके ध्वजवाहक रहे. बाद में नरेंद्र मोदी के रूप में एक पिछड़े को देश का पहला पीएम बनाने का श्रेय भी बीजेपी को जाता है.
जहां तक दलितों की बात है, कांग्रेस इनका वोट जरूर लेती रही पर उनके कल्याण के लिए कुछ ऐसा नहीं किया जो संविधान के इतर रहा हो. संविधान में दलितों के आरक्षण की बात की गई थी. इसलिए उन्हें आरक्षण मिल रहा था. इसके अलावा कभी भी दलितों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया गया. भारतीय जनता पार्टी ने प्रमोशन में आरक्षण और हरिजन एक्ट को मजबूत बनाए रखने के लिए मजबूत कदम उठाया जबकि इन दोनों मुद्दों पर उसे समाजवादी पार्टी के विरोध का सामना करन पड़ा था.
संयम श्रीवास्तव