संसद हमले के जवाब में सरहद पर थी सेना… फिर भारत ने अपने कदम पीछे क्यों खींच लिए!

13 दिसंबर 2001 का संसद हमला भारत के लोकतंत्र और सुरक्षा पर सीधा हमला था. आतंकियों ने संसद परिसर में घुसकर गोलियां चलाईं, जिसमें सुरक्षाकर्मी शहीद हुए. इस हमले के बाद भारत ने ऑपरेशन पराक्रम शुरू किया और सीमा पर बड़े पैमाने पर सैन्य तैनाती हुई लेकिन ऑपरेशन बिना युद्ध के समाप्त हुआ. यह घटना भारत-पाक संबंधों और राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में निर्णायक मोड़ साबित हुई.

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संसद भवन पर आतंकी हमले के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच बात जंग तक पहुंच गई थी. (File Photo) संसद भवन पर आतंकी हमले के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच बात जंग तक पहुंच गई थी. (File Photo)

संयम श्रीवास्तव

  • नई दिल्ली,
  • 13 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 10:22 AM IST

13 दिसंबर 2001 की सुबह भारत की संप्रभुता के प्रतीक भारतीय संसद पर जो आतंकवादी हमला हुआ उसे देश कभी भूल नहीं सकता.आज देश संसद पर हमले की बरसी पर उन वीर शहीदों को याद कर रहा है जिन्होंने अपनी कुर्बानी देकर देश की शान लोकतंत्र के मंदिर को किसी भी तरह की खरोंच भी नहीं लगने दी. यह भारतीय इतिहास की एक ऐसी घटना थी जिसने न केवल देश की सुरक्षा व्यवस्था को चुनौती दी बल्कि यह भारत के स्वाभिमान पर भी चोट की.

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पांच आतंकवादियों ने संसद परिसर में घुसकर गोलीबारी की, जिसमें नौ लोग मारे गए, जिनमें सुरक्षा कर्मी और संसद के कर्मचारी शामिल थे. संसद भवन में घुसने की कोशिश कर रहे हमलावरों को मार गिराया गया, लेकिन इस घटना ने भारत को गहरा झटका दिया.  भारत सरकार ने हमले के लिए पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों लश्कर-ए-तैयबा (LeT) और जैश-ए-मोहम्मद (JeM) को जिम्मेदार ठहराया. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) सरकार ने पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए 1971 से भी बड़ी सैन्य कार्रवाई की तैयारी शुरू कर दी.

भारत ने ऑपरेशन पराक्रम शुरू किया, जिसमें लाखों सैनिकों ( 5 लाख से 8 लाख तक) को सीमा पर तैनात किया गया. उधर पाकिस्तान ने भी करीब 3 लाख सैनिकों को सीमा पर मोबलाइज किया. इस तरह सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद दुनिया में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर दो देशों की सेनाएं आमने सामने खड़ीं थीं. लेकिन पाकिस्तान की सीमा पर करीब 9 महीने तक तैनात भारतीय सेना को वापसी करनी पड़ी. हालांकि कहने को भारत ने तात्कालिक रूप से कूटनीतिक बढ़त हासिल कर ली थी.  पाकिस्तान के तत्कालीन प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ के आतंकी गुटों पर एक्शन करने के वादे के बाद ही सेना की वापसी का फैसला लिया गया.

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हमले की पृष्ठभूमि और तात्कालिक प्रतिक्रियाएं

2001 का संसद हमला कोई अलग-थलग घटना नहीं था. यह कश्मीर मुद्दे और भारत-पाकिस्तान के लंबे विवाद का हिस्सा था. 1999 के कारगिल युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच तनाव पहले से ही था. फिर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकियों ने कंधार हाईजैक को अंजाम दिया था. अभी साल भर भी पूरा नहीं हुआ था कि पाकिस्तान ने एक बार फिर नापाक कोशिश की. 13 दिसंबर हमले के दिन, आतंकवादी फर्जी आईडी और वाहनों से संसद में घुसे और अंधाधुंध फायरिंग की. हमले में उपराष्ट्रपति कृष्णकांत का वाहन भी लक्ष्य था, लेकिन सौभाग्य से कोई बड़ा नेता हताहत नहीं हुआ. हाल ही भारत के सिनेमाघरों में सुपर डुपर हिट हो रही फिल्म धुरंधर ने भारतवासियों के इस घाव को फिर से कुरेद दिया है.

इस हमले के बाद सरकार की तत्काल प्रतिक्रिया आक्रामक थी. गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में भाषण देते हुए कहा कि यह हमला पाकिस्तान की साजिश है. NDA सरकार ने पाकिस्तान से मांग की कि वह LeT और JeM के नेताओं को गिरफ्तार करे, उनके कार्यालय बंद करे और उनकी संपत्ति जब्त करे. जब पाकिस्तान ने इन मांगों को नजरअंदाज किया, तो भारत ने 21 दिसंबर 2001 को अपने उच्चायुक्त को वापस बुला लिया. इसके बाद जनवरी 2002 तक भारत ने लगभग आठ लाख सैनिकों को सीमा और नियंत्रण रेखा (LoC) पर तैनात कर दिया. यह ऑपरेशन पराक्रम का हिस्सा था, जो भारत का अब तक का सबसे बड़ा सैन्य मोबिलाइजेशन था. 

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लेकिन इस मोबिलाइजेशन के पीछे युद्ध की मंशा कितनी थी? कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्योरिटी (CCS) ने कई बैठकें कीं, जहां सीमा पार हमले या सीमित युद्ध की चर्चा हुई. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा ने कहा था कि CCS में सर्वसम्मति से फैसला हुआ कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, और जरूरत पड़ी तो सीमा पार किया जाएगा. हालांकि, विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने युद्ध की संभावना से इनकार किया, और कहा कि फोकस संयम पर था.

सरकार के मन में क्या था?

जनवरी 2002 के पहले सप्ताह में, भारतीय सशस्त्र बलों को पाकिस्तान के साथ संभावित युद्ध के लिए तैनात कर दिया गया था. युद्ध-पूर्व की अंतिम तैयारियां तेजी से चल रही थीं. समय भी युद्ध के लिए अत्यंत उपयुक्त माना जा रहा था. इस सैन्य तैयारी को ऑपरेशन पराक्रम का नाम दिया गया था. भारत को सैन्य स्तर पर स्पष्ट तौर पर बढ़त हासिल थी. दूसरे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका में 9/11 हमले के बाद रणनीतिक स्थिति ने पाकिस्तान को असमंजस में डाल रखा था.

तीस वर्षों में पहली बार भारतीय सैन्य बल इस तरह पूर्ण रूप से लामबंद हुए थे और केवल राजनीतिक ‘ग्रीन सिग्नल’ की प्रतीक्षा कर रहे थे. कई रक्षा और कूटनीतिक एक्सपर्ट्स इसे ऐसा अवसर कहते हैं जब भारत अपने पारंपरिक सैन्य प्रभुत्व का उपयोग कर पाकिस्तान को आतंकवाद पर निर्णायक लगान कसने के लिए बाध्य (compellence) कर सकता था.

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द प्रिंट में लेफ्टिनेंट जनरल एच.एस. पनाग (सेवानिवृत्त) लिखते हैं कि संसद हमले के बाद कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (CCS) की बैठक हुई, जिसमें तीनों सेनाध्यक्ष भी मौजूद थे. पनाग का कहना है कि राजनीतिक नेतृत्व सीमित कार्रवाई ,सिर्फ जम्मू-कश्मीर तक चाहता था. सेनाध्यक्ष का कहना था कि किसी भी संभावित परमाणु तनाव या व्यापक युद्ध की संभावना को देखते हुए पूर्ण सैन्य लामबंदी आवश्यक है. बहुत विचार विमर्श के बाद तय हुआ कि सेना को दो सप्ताह के भीतर आवश्यक तैयारी पूरी कर लेनी चाहिए. युद्ध का अंतिम निर्णय सरकार बाद में लेगी.

सीसीएस में परमाणु खतरे पर विस्तार से चर्चा नहीं हुई, लेकिन यह माना गया कि अंतरराष्ट्रीय दबाव और परमाणु जोखिम सामने आने से पहले हमारे पास लगभग दो सप्ताह का समय है. साथ ही यह भी तय किया गया कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी युद्ध के लिए पाकिस्तान से गुजर रही अमेरिकी लॉजिस्टिक्स से हमें हर हाल में दूर रहना होगा. जिससे भारतीय नौसेना की कराची-केंद्रित ऑपरेशनों और वायुसेना की सिंधु के पश्चिम में कार्रवाई पर स्पष्ट प्रतिबंध लग गया.

पनाग लिखते हैं कि सीसीएस की बैठक में कुछ भी तय नहीं किया गया. जैसे किस क्षेत्र पर कब्ज़ा करना है, दुश्मन की सैन्य क्षमता या अर्थव्यवस्था का कितना विनाश लक्ष्य होगा या युद्ध का ‘एंड स्टेट’ क्या होगा. नौसेना प्रमुख एडमिरल सुशील कुमार के अनुसार उन्होंने विशेष रूप से सरकार से राजनीतिक लक्ष्य मांगे थे, ताकि उससे सैन्य टारगेट निकले जा सकें. 

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सेना कितनी तैयार थी युद्ध के लिए

सीसीएस की मीटिंग में वायुसेना और नौसेना ने बताया था कि वे एक सप्ताह में युद्ध के लिए तैयार हो सकती हैं. लेकिन थलसेना के सामने गंभीर चुनौतियां थीं. रक्षा मोर्चों पर तैनात इकाइयां 72–96 घंटे में तैयार हो सकती थीं. लेकिन तीन स्ट्राइक कोर जो भारत की मुख्य आक्रामक शक्ति हैं सीमा से काफ़ी पीछे तैनात थीं, उन्हें पूरी तरह ऑपरेशनल होने में तीन सप्ताह चाहिए थे.

स्ट्राइक कोर के आंशिक रूप से पहुंचने पर युद्ध शुरू करना अस्वीकार कर दिया गया, क्योंकि इससे असमंजस में पड़ने की आशंका थी.
अतः युद्ध शुरू होने की सबसे जल्दी संभावित तारीख तीन सप्ताह बाद ही हो सकती थी.

एक सेना कमांडर ने कहा कि उन्हें युद्ध हेतु अतिरिक्त प्रशिक्षण का समय चाहिए. उन्होंने फील्ड मार्शल मानेकशॉ (1971) का उदाहरण दिया कि कैसे उस समय मानेक शॉ ने अपनी बात रखी थी. जाहिर है कि यह तत्कालीन  सेनाध्यक्ष के लिए दुविधा का विषय बन गया.
क्या परमाणु युद्ध का खतरा था

1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद, दोनों देश परमाणु शक्ति बन चुके थे. स्टैंडऑफ के दौरान, पाकिस्तान ने परमाणु धमकी दी, जिसने भारत को सतर्क किया. Fearful Symmetry में Ganguly और Hagerty तर्क देते हैं कि परमाणु युद्ध की छाया ने जंग को रोका. किताब में 2001-2002 क्राइसिस का न्यूक्लियर युद्ध की छाया के तहत एनालिसिस किया गया है, जहां दोनों पक्ष जानते थे कि एस्केलेशन परमाणु स्तर तक पहुंच सकता है. 

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वीके सूद की किताब में RAW के आकलन का उल्लेख है कि युद्ध सीमित रह सकता है, लेकिन परमाणु खतरा 50% से ज्यादा था. सूद लिखते हैं कि हमने मोबिलाइजेशन किया ताकि पाकिस्तान डरे, लेकिन जब कालुचक के बाद भी हमने हमला नहीं किया, तो स्पष्ट था कि परमाणु जोखिम हमें रोक रहा है.

हालांकि बहुत से लोगों का मानना है कि उस समय परमाणु हथियारों की डिलीवरी क्षमता काफी प्रारंभिक अवस्था में थी, सामरिक (टैक्टिकल) परमाणु हथियार विकसित नहीं हुए थे, परमाणु सीमा रेखा (न्यूक्लियर थ्रेशहोल्ड) अस्पष्ट थी. इसलिए परमाणु युद्ध का खतरा नहीं था.

इसके साथ ही बढ़ते तनाव के बावजूद, भारत और पाकिस्तान ने परमाणु प्रतिष्ठानों और सुविधाओं पर हमले की मनाही वाली संधि के तहत अपने-अपने परमाणु प्रतिष्ठानों की सूची का आदान–प्रदान कर रहे थे. शायद एक कारण यह भी था कि उस समय किसी भी किसी तरह के परमाणु युद्ध की संभावना नहीं लग रही थी. पाकिस्तान भी जानता था कि परमाणु हथियार का उपयोग उसके अपने अस्तित्व को समाप्त कर देगा.

16 अक्टूबर तक यानि कि कुल नौ महीनों तक सेना को कभी आगे बढ़ने का आदेश नहीं दिया गया. इस लामबंदी की लागत लगभग 2 बिलियन डॉलर और 800 सैनिकों की दुर्घटनावश मौत के रूप में सामने आई. द टेलिग्राफ में 30 मई 2003 को छपी एक खबर की मानें तो ऑपरेशन पराक्रम के दौरान बिना युद्ध लड़े ही 1874 सैनिकों को हमने खो दिया था. टेलिग्राफ इस लेख में लिखता है कि संसद में दिए गए एक जवाब में, सैन्य तैनाती रद्द किए जाने के छह महीने बाद, यह खुलासा हुआ कि 300 दिनों से कुछ अधिक समय तक चले सैन्य अभ्यास में 1,847 लोग हताहत हुए थे. जो 1999 के कारगिल युद्ध में हताहतों की संख्या 600 से कहीं बहुत अधिक थे.

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