उत्तर प्रदेश में सरकार और संगठन में बदलाव को लेकर राजनीतिक गलियारों में अटकलबाजी का दौर खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है. जाहिर है कि इसके लिए भाजपा नेताओं की गतिविधियां ही अधिक उत्तरदायी हैं. ऐसा लगता है कि लखनऊ से लेकर दिल्ली तक किसी को भी पार्टी की चिंता नहीं है. सभी अपने व्यक्तिगत हित के लिए पार्टी को ताक पर रख दिए है. पार्टी यह समझ नहीं पा रही है कि उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चा गरम रहती है तो इसका सीधा असर आगामी उपचुनावों में देखने को मिल सकता है. जिस तरह लोकसभा चुनावों के बाद कार्यकर्ताओं का मॉरल गिरा है उसका प्रभाव 2027 विधानसभा चुनावों तक में दिख सकता है. यदि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में भाजपा 33 सीटों पर ही सिमट गई तो इसके लिए केवल राज्य सरकार को दोष देना सही नहीं है. लोकसभा चुनाव की हार की समीक्षा के लिए बनी कमेटी ने जो रिपोर्ट दी है उसमें भी सरकार और संगठन दोनों को जिम्मेदार ठहराया गया है. पर हफ्ते भर से पार्टी लाइन लेंथ सही करती नजर नहीं है. सुधरने को कोई तैयार नहीं है चाहे वो सरकार के लोग हों या संगठन के.
1-खास बैठकों से दोनों डिप्टी सीएम रहे गायब रहे
बुधवार को लखनऊ में सीएम आवास पर हुई बैठक में दो लोग जो सीएम के बाद सबसे महत्वपूर्ण हैं वो गैर हाजिर रहे. अगर इस अवसर पर डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक उपस्थित होते तो केशव प्रसाद मौर्य ने बीजेपी कार्यसमिति की बैठक के दौरान जो बातें कहीं थीं उसे गंभीरता से लिया जाता. सीएम के घर पर महत्वपूर्ण बैठक में उपस्थित न होने से सीधा यह संदेश गया कि बीजेपी कार्यसमिति की बैठक में जो सरकार और संगठन के बारे में जो बातें कही गई वह केवल कुर्सी की लड़ाई के चलते थी. हालांकि इसके पहले भी दोनों डिप्टी सीएम मुख्यमंत्री की बैठकों से खुद को अकसर दूर ही रख रहे थे. पर खास मौकों पर दुनिया को दिखाने के लिए ही सही, उन लोगों को बैठक में उपस्थित होना चाहिए था. कार्यसमिति की बैठक में मौर्य ने ऐसी टिप्पणियां की थीं - जिन्हें सीएम पर परोक्ष हमले के रूप में देखा गया था, जिसमें कहा गया था कि वह पार्टी कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर रहे हैं और नौकरशाही के माध्यम से राज्य चला रहे हैं. पूरे प्रदेश के लोगों में यह संदेश गया कि सरकार में एका नहीं है. दोनों डिप्टी सीएम प्रदेश के मुख्यमंत्री में भरोसा नहीं कर रहे हैं, इसका मतलब है कि ऊपर से इन दोनों पर किसी का हाथ है. जाहिर है कि इस तरह के संदेश से सरकार का इकबाल कमजोर होता है. अधिकारियों और जनता का भरोसा भी कम होता है.
2-उप चुनाव की तैयारियों में संगठन कहीं नहीं दिख रहा है
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि उपचुनावों की तैयारी को लेकर जो बैठक सीएम योगी आदित्यनाथ के घर पर हुई उसमें बीजेपी संगठन का कोई वरिष्ठ नेता नहीं दिखा दिया. हालांकि कुछ भाजपा नेताओं का कहना है कि चुनाव की तारीखों की घोषणा होने तक मुख्य रूप से लोगों के मुद्दों को हल करना सरकार का काम था इसीलिए बैठक में केवल मंत्री ही मौजूद थे. पर दोनों डिप्टी सीएम की अनुपस्थिति और संगठन के किसी भी सदस्य का न होना इस तर्क पर संदेह खड़ा करता है. हालांकि बीजेपी नेता कह रहे हैं कि सरकार अपना काम कर रही है. एक बार उपचुनाव की तारीखों की घोषणा हो जाने के बाद, पार्टी संगठन तय करेगा कि कौन क्या करेगा.
3-क्या सीएम योगी को उपचुनावों में मिल गई है खुली छूट
अपने आवास पर उपचुनावों की तैयारी को लेकर जिस तरह सीएम योगी आदित्यनाथ उपचुनावों के लिए योग्य उम्मीदवारों की क्वालिटी पर चर्चा कर रहे थे उससे तो ऐसा लग रहा था कि उन्हें कैंडिडेट तय करने की खुली छूट मिल गई है. अगर ऐसा है तो अच्छी बात है. पर अगर ऐसा नहीं है तो पार्टी में भ्रम की स्थिति और बढ़ेगी ही. उपचुनावों की तैयारियों के लिए मंत्रियों को प्रभारी बनाना एक बात है पर उम्मीदवार तय करना एक अलग तरह का टास्क है. जिस तरह पार्टी के सीनियर नेता उस बैठक में नहीं थे उसके चलते कार्यकर्ताओं का सरकार और संगठन दोनों पर संदेह बढ़ता है.
4-केंद्रीय नेतृत्व को भी समझना होगा
कई बार ऐसा लगता है जैसे केंद्रीय नेतृत्व ने भी उत्तर प्रदेश को राम भरोसे छोड़ दिया है. अगर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की बैठकों से दोनों डिप्टी सीएम गायब रह रहे हैं. ऐसे बयान दे रहे हैं जिसका संदेश सरकार के खिलाफ जाता है तो उसे रोकने की जिम्मेदारी किसकी है? पार्टी हाईकमान को अपने नेताओं की अनावश्यक बयानबाजी पर रोक लगानी होगी, अन्यथा जनता को यही संदेश जाएगा कि उन्हें किसी का संरक्षण मिल रहा है. जो भारतीय जनता पार्टीअपने अनुशासन और पार्टी के प्रति नेताओं के समर्पण के लिए जानी जाती है आज उसमें वही बुराइयां नजर आ रही हैं जो कभी कांग्रेस में दिखाई देती थीं. क्या सत्ता ने भारतीय जनता पार्टी को पूरी तरह कांग्रेस बना दिया. केंद्रीय नेतृत्व को यदि सरकार और संगठन में कोई परिवर्तन होने हैं तो जरूर करने चाहिए. लेकिन इस तरह जैसे कि घर का मामला है. जैसा बीजेपी में पहले होता रहा है.जैसा मध्यप्रदेश में बिना किसी लाग लपेट के शिवराज सिंह चौहान के सीएम की कुर्सी से हटा दिया गया. सरकार और संगठन में संभावित परिवर्तन को लेकर अटकलबाजियों का दौर पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर बुरा प्रभाव डालने वाला तो है ही, विपक्षी नेताओं को कटाक्ष करने का अवसर देने वाला भी होता है. जो फाइनली पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाला ही है.
संयम श्रीवास्तव