बिहार विधानसभा चुनाव में हार जीत चाहे किसी की भी हो पर एक नुकसान बीजेपी नेता और प्रदेश के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी का हो चुका है. चौधरी को जब बिहार बीजेपी का अध्यक्ष बनाया गया तो एकबारगी ऐसा लगा था कि बीजेपी को जेडीयू नेता और प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का विकल्प मिल गया. पर चौधरी का पानी पिछले साल लोकसभा चुनावों के बाद ही उतर गया. उन्हें बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा. रही सही कसर पूरी कर दी जनसुराज पार्टी के फाउंडर प्रशांत किशोर ने. किशोर ने चौधरी पर ऐसे ऐसे आरोप लगाए जो अभी तक आरजेडी और कांग्रेस जैसी बीजेपी की धुर विरोधी पार्टियों ने भी नहीं लगाई थी. फर्जी एज सर्टिफिकेट विवाद, फर्जी डिग्री विवाद और शिल्पी गौतम हत्याकांड से चौधरी को जोड़कर प्रशांत किशोर ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सम्राट चौधरी की ओर से किशोर पर लगाए आरोपों का यथोचित जवाब न दिए जाने से बिहार की जनता के बीच उनकी इमेज डेंट हुई है. जाहिर है, बिहार विधानसभा चुनाव सम्राट चौधरी के लिटमस टेस्ट साबित होने वाले हैं. अगर कुशवाहा वोटर्स का बीजेपी में इस बार भी ट्रांसफर नहीं हो पाता है तो वो पार्टी के ऊपर बोझ बनकर रह जाएंगे. आइये देखते हैं कि किस तरह जिस एक शख्स जिसे बिहार बीजेपी का नीतीश कुमार कहा जाने लगा था आज वो बिहार बीजेपी का कमजोर कड़ी बन चुका है.
1-लोकसभा चुनाव में अनुकूल नतीजा ना आना
सम्राट चौधरी के गिरावट का दौर उस समय ही शुरू हो गया था जब लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उम्मीद के मुताबिक सीटें नहीं मिल सकीं. तब सम्राट चौधरी बिहार बीजेपी के अध्यक्ष भी हुआ करते थे. वर्ष 2014 और 2019 में क्रमश: 22 और 17 सीटें जीतने वाली भाजपा 2024 में 12 सीटों पर सिमट गई. पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे ने इसका ठीकरा सम्राट चौधरी के सिर पर यह कह कर फोड़ा था कि आयातित नेताओं से भाजपा का भला नहीं हो सकता. भाजपा को अपने कोर कार्यकर्ताओं-नेताओं पर भरोसा करना होगा. गौरतलब है कि सम्राट चौधरी सभी पार्टियों से घूम फिरकर बीजेपी में आए हैं. अश्विनी चौबे के विचार को तब उनकी निजी राय बता कर कुछ लोगों ने हवा में उड़ा दिया. वह दौर ऐसा था जब कि भाजपा में दूसरे दलों से आए नेताओं के साथ कैसा बर्ताव किया जाए इसके लिए केंद्रीय स्तर पर मंथन शुरू हो चुका था. केंद्रीय नेतृत्व भी अब यह बात समझने लगा है कि अपने ही काडर पर भरोसा करना सही है. भाजपा ने लोकसभा चुनाव में दूसरे दलों से आए 100 से अधिक उम्मीदवारों को टिकट देकर देख लिया है कि वे बहुत कारगर साबित नहीं हुए.
सम्राट चौधरी पर भाजपा ने तब भरोसा किया था, जब बिहार में लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) वोटों के एकमात्र दावेदार नीतीश कुमार थे और वे महागठबंधन इंडिया ब्लॉक के साथ चले गए थे. भाजपा को उम्मीद थी कि ओबीसी में खासी आबादी वाले कुशवाहा वोटों को अपने पाले में लाने के लिए सम्राट चौधरी मुफीद साबित होंगे. शायद इसलिए कि वे कोइरी समाज से ही आते हैं. पर, इसका कोई लाभ भाजपा को नहीं मिला. उल्टे कुशवाहा वोटरों ने भाजपा या एनडीए के बजाय इंडिया ब्लॉक के उम्मीदवारों के प्रति ज्यादा विश्वास जताया.
2-कोइरी वोटर्स पर प्रभाव नहीं के बराबर
कोइरी वोटरों पर सम्राट चौधरी की कमजोर पकड़ उजागर हो चुकी है. लोकसभा चुनावों के दौरान शाहाबाद इलाके की पांच संसदीय सीटें एनडीए हार गया. भाजपा को सबसे अधिक तकलीफ इस बात की थी कि राजपूत बहुल औरंगाबाद सीट से उसके राजपूत उम्मीदवार सुशील कुमार सिंह हार गए और राजद के उम्मीदवार अभय कुशवाहा जीत गए. यानी, कुशवाहा वोट बीजेपी को न मिलकर आरजेडी को गए. इतना ही नहीं, कोइरी बिरादरी से आने वाले एनडीए के घटक राष्ट्रीय लोक मोर्चा के अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा को भी हार का सामना करना पड़ा. इससे सम्राट चौधरी की अपनी बिरादरी पर कमजोर पकड़ साबित हुई. भाजपा को यह बात भी शायद अखरी होगी कि जदयू की मदद से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के तुरंत बाद सम्राट चौधरी ने ऐलान कर दिया कि बिहार विधानसभा चुनाव का अगला चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. यह भाजपा समर्थकों को हतोत्साहित करने वाली घोषणा थी. उसके बाद ही अश्विनी चौबे ने कहा था कि भाजपा के नेतृत्व में ही विधानसभा चुनाव लड़ा जाना चाहिए.
3-बीजेपी को मध्यवर्गीय कोर वोटर्स के खांचे में फिट नहीं बैठते सम्राट चौधरी
सम्राट चौधरी भले ही बिहार भाजपा के उपमुख्यमंत्री और प्रभावशाली ओबीसी नेता माने जाते हों, लेकिन वे पार्टी के पारंपरिक मध्यवर्गीय कोर वोटर्स के खांचे में फिट नहीं बैठते हैं. यह वह वर्ग है जो संगठन, स्थिरता और साफ-सुथरी राजनीति को प्राथमिकता देता है. सम्राट चौधरी की शैली, पृष्ठभूमि और राजनीतिक छवि इस ढांचे से काफी अलग दिखाई देती है.
सम्राट चौधरी की राजनीतिक यात्रा आरजेडी, जेडीयू से होती हुई भाजपा तक आई है. यह लंबी ‘दल-दर-दल’ यात्रा भाजपा के स्थिर, विचारनिष्ठ नेताओं की परंपरा से मेल नहीं खाती है. शहरी, पढ़ा-लिखा भाजपा मतदाता ऐसे नेताओं को पसंद करता है जिनकी निष्ठा और वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट हो. इसके अलावा, उनकी शैक्षणिक योग्यता और संपत्ति को लेकर उठे सवालों ने उस वर्ग में असहजता पैदा की है जो पारदर्शिता और योग्यता को महत्व देता है.
भाजपा का कोर वोटर उस नेतृत्व को स्वीकार करता है जो संगठनात्मक अनुशासन, नीतिगत स्पष्टता और आधुनिक शासन दृष्टिकोण रखता हो. सम्राट चौधरी की राजनीति अब भी पारंपरिक, जाति-आधारित और व्यक्तित्व-केंद्रित है. यही कारण है कि वे भाजपा के मध्यवर्गीय समर्थक वर्ग के बीच अभी बाहरी तत्व की तरह देखे जाते हैं. उपयोगी तो हैं, लेकिन उस वैचारिक खांचे में फिट नहीं बैठते, जो भाजपा की असली ताकत है.
4-प्रशांत किशोर ने सम्राट चौधरी को छवि को डेंट कर दिया
प्रशांत किशोर ने बिहार की राजनीति में जिस बारीकी से सम्राट चौधरी को वोट बैंक के ठेकेदार के रूप में पेश किया उससे चौधरी की इमेज काफी डेंट हुई है.
सम्राट चौधरी पहले से ही जाति-आधारित नेता के रूप में देखे जाते रहे हैं .भाजपा ने उन्हें कुशवाहा समुदाय को साधने के लिए आगे किया था. लेकिन प्रशांत किशोर ने अपनी जनसभाओं और मीडिया से बातचीत में यह स्थापित किया कि सम्राट चौधरी भाजपा में इसलिए हैं क्योंकि वे नीतीश कुमार की तरह कुशवाहा कार्ड खेलना चाहते हैं, न कि जनता के मुद्दों पर राजनीति करना. इस बयानबाजी ने सम्राट को जाति पर टिके हुए अवसरवादी की छवि में सीमित कर दिया.
पीके की दूसरी रणनीति थी भाजपा नेतृत्व को मध्यम वर्ग और युवा मतदाताओं से काटना. जिसमें उन्होंने सम्राट चौधरी को प्रतीकात्मक तौर पर निशाना बनाया. उन्होंने कहा कि बिहार के नेता या तो वंशवाद में हैं या पद की राजनीति में फंसे हैं. इसी क्रम में वे सीधे सम्राट चौधरी पर चोट करते दिखे. सम्राट और उनके पिता समता पार्टी और आरजेडी से लेकर भाजपा तक की राजनीति में सक्रिय रहे हैं. परिणामस्वरूप, भाजपा का वह वर्ग जो सम्राट को नए चेहरे के रूप में देखना चाहता था, उसमें भी भ्रम पैदा हुआ.
इसके अलावा, प्रशांत किशोर की राजनीतिक भाषा अपेक्षाकृत नीति-केंद्रित और डेटा-आधारित है, जबकि सम्राट चौधरी की शैली ज्यादा आक्रामक, बयानबाज़ी और जातीय संकेतों से भरी होती है. जब दोनों नेताओं की छवियों की तुलना मीडिया और जनता के बीच होने लगी, तो सम्राट चौधरी एक पुराने ढर्रे के नेता के रूप में दिखने लगे.
5-सम्राट चौधरी के नाम विवादों का पिटारा
सम्राट चौधरी के नाम के साथ कई विवाद लगातार जुड़े रहे हैं. ये विवाद केवल राजनीतिक मतभेदों तक सीमित नहीं रहे, बल्कि उनकी व्यक्तिगत छवि, शैक्षणिक योग्यता, बयानबाज़ी और राजनीतिक वफादारी तक फैले हुए हैं. यही वजह है कि उन्हें अक्सर विवादों का पिटारा कहा जाता है.
सबसे पहले शैक्षणिक योग्यता और उम्र से जुड़ा विवाद सुर्खियों में रहा. चुनावी हलफनामे में सम्राट चौधरी ने अपनी शिक्षा को Pre-Foundation Course बताया, जो एक सर्टिफिकेट से ज्यादा मायने नहीं रखता. इस पर विपक्ष ने तंज कसा कि राज्य का उपमुख्यमंत्री खुद अपनी शिक्षा को लेकर स्पष्ट नहीं हैं. उनके जन्म वर्ष को लेकर भी अलग-अलग रिकॉर्ड में विरोधाभास देखने को मिला है. कहीं 1968 तो कहीं 1971 का उल्लेख है.
सम्राट चौधरी ने अपने करियर की शुरुआत आरजेडी से की, फिर जेडीयू में गए, और अब भाजपा में हैं. विरोधी दलों और कई भाजपा नेताओं ने भी यह सवाल उठाया कि क्या वे वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध नेता हैं या सत्ता के समीकरण के हिसाब से पाला बदलने वाले अवसरवादी. यह छवि उन्हें भाजपा के परंपरागत, स्थिर विचारधारा वाले नेताओं की पंक्ति में खड़ा नहीं करती.
सम्राट चौधरी कई बार अपने बयानों से पार्टी को असहज स्थिति में डाल चुके हैं. कभी उन्होंने नीतीश कुमार को 'राजनीतिक ठग' कहा, तो कभी विपक्षी नेताओं पर व्यक्तिगत टिप्पणी की. उनके तीखे और उत्तेजक वक्तव्य भाजपा की संयमित और अनुशासित छवि के विपरीत जाते हैं.
इन सब विवादों ने मिलकर सम्राट चौधरी की छवि को नुकसान पहुंचाया है. भाजपा ने उन्हें ओबीसी चेहरा बनाकर राजनीतिक संतुलन साधने की कोशिश की, परंतु लगातार उठते विवादों ने उन्हें एक भरोसेमंद प्रशासक से ज्यादा विवादित नेता के रूप में स्थापित कर दिया. आने वाले विधानसभा चुनावों में यही छवि उनसे अधिक बीजेपी के लिए चुनौती होगी.
संयम श्रीवास्तव