केंद्र की मोदी सरकार ने जनता के लिए कार्य करने वाले और सरकारी मशीनरी के पते के तौर पर पहचानी जाने वाली संस्थाओं के नाम एक बार फिर बदले हैं. अब तक के 11 वर्षों के कार्यकाल में यह पहल कई चरणों में अपनाई गई है, जिसके तहत नया बदलाव यह हुआ है कि राजभवन को लोकभवन नाम से जाना जाएगा वहीं, प्रधानमंत्री कार्यालय को सेवातीर्थ के तौर पर जाना जाएगा. इससे पहले केंद्रीय गृहमंत्रालय के निर्देश के बाद आधारिक रूप से राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ कर दिया गया था तो वहीं सेवन रेसकोर्स रोड अब लोक कल्याण मार्ग कहलाता है.
नाम के बदलावों पर आलोचना के सुर!
नाम के इन बदलावों पर आलोचना के सुर भी उठते हैं. कहा जाता है कि 'नाम बदलने से क्या होगा'. असल में सच्चाई यह है कि 'नाम में क्या रखा है' यह तथ्य हर जगह नहीं चलता है. कई बार नाम ही उस पहचान का प्रतीक बन जाते हैं, जो जनभावना से जुड़वा महसूस कराते हैं और जनता को भी यह लगता है, यह जगह उसकी अपनी है.
जैसे कि राजपथ का ही उदाहरण लें. एक लोकतांत्रिक देश में किसी तरह के 'राजपथ' का अस्तित्व होना यह बताता है कि कहीं न कहीं शासन की परंपरा के भीतर 'राजशाही' की क्रूर मानसिकता जिंदा है. राजपथ, नाम शासकों के चलने का पथ बन जाता है, जबकि असल में यह वह सुलभ मार्ग होना चाहिए, जहां से आम जनता तक और आम जनता की शासन तक आसान पहुंच होनी चाहिए.
राजा रघु जो सम्राट होकर भी कुटिया में निवास करते थे
इस बारे में पौराणिक कथाओं से एक बड़ा और सटीक उदाहरण लिया जा सकता है. श्रीराम के वंश में उनके ही एक महान पूर्वज थे राजा रघु. राजा रघु की महानता के कारण ही सूर्यकुल का इक्ष्वाकु वंश रघुवंश कहलाया था. राजा रघु साकेत के बड़े भूभाग के महाराज थे, लेकिन उन्होंने जनता की सेवा के लिए कभी भी महल में निवास नहीं किया, बल्कि राज्य की सीमा के बाहर एक कुटिया में रहते थे, ताकि प्रजा उनसे कभी भी अलगाव न महसूस करे.
एक बार अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के कहने पर उन्होंने विश्वजित यज्ञ किया और यज्ञ के पारायण में अपनी सारी संपत्ति ब्राह्मणों, किसानों और श्रमण परंपरा के संतों को दान कर दीं. एक सुबह जब वह अपनी कुटिया में ध्यान कर रहे थे, तभी एक युवा वेदपाठी ब्राह्नण आया. उसका नाम कौत्स था. उसे अपने गुरु को दक्षिणा में स्वर्ण मुद्राएं देनी थीं जो उसके पास नहीं थीं.
राजा रघु, कौत्स और कुबेर की कथा
कौत्स ने राजा को कुटिया में अकेले देखा और जो ध्यान मग्न थे और वहीं पास में साधारण से चूल्हे पर भोजन पक रहा था. कौत्स संकोच में वहां से लौटने लगा, लेकिन फिर कुछ सोचकर राजा से अपनी बात की और फिर मौन हो गया. राजा रघु उसके मन की बात समझ गए और उसे कुबेर (यक्षपति और देवताओं के कोषाध्यक्ष) के पास भेज दिया. कुबेर ने राजा रघु के कहने धन की वर्षा कर दी और इस तरह कौत्स ने अपने गुरु को दक्षिणा दी.
कहने का मतलब ये है कि राजा, राजपरिवार और राज्य की शासन व्यवस्था इतनी सहज होनी चाहिए कि प्रजा उसमें शामिल होना महसूस करे न कि उससे अलग होकर खुद को हीन और सत्ताधीशों को विशेष मानने लगे. यही वजह है कि राज्य में अकाल पड़ने पर राजा जनक खुद हल चलाने निकलते हैं. राजा विक्रमादित्य वेश बदलकर प्रजा का हाल जानने निकलते हैं और इस परंपरा को हर्ष, चंद्रगुप्त समेत कई राजा अपनाते हैं. जो नहीं अपनाते वो मिट जाते हैं जैसे नंदवंश.
श्रीराम और महर्षि जाबालि की कहानी
श्रीराम जब वन को जाते हैं तो उनका रास्ता रोककर एक ऋषि जाबालि खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि क्या सिर्फ पिता का वचन ही सत्ता की कसौटी है, प्रजा की भावना और लोकमत की कोई जगह नहीं? वह राम के वन जाने की आलोचना करते हैं और प्रजा के मत को बड़ा मानते हुए उनसे शासन संभालने के लिए कहते हैं.
राजा जनक जो नहीं लगाते थे राजसी दरबार
राजा जनक को ही लेकर यह प्रचलित है कि मिथिला में सैन्य बल और उसके अभ्यास की मनाही थी. इसीलिए सीरध्वज जनक के भाई कुशध्वज राज्य के दूसरे छोर पर सिर्फ सैन्य व्यवस्था को साथ लेकर रहते थे. राजा जनक कभी भी शिरस्त्राण (सिर पर पहने जाना वाला विशेष मुकुट जो कंधों को ढंकता था) नहीं पहनते थे. वह कवच नहीं लगाते थे, अंगरक्षकों को साथ नहीं रखते थे. उनका आसान योगी का आसन था और वह सभा में भी ऊंचाई पर नहीं बैठते थे. उनका दरबार आम जन के बीच खुले में लगता था और हमेशा ही ज्ञान और धर्मचर्चा वाले शास्त्रार्थ उनके दरबार में हुआ करते थे. रामायण और रामचरित मानस दोनों में ही उन्हें राजर्षि जनक कहा गया है और गृहस्थ आश्रम के ऋषि की संज्ञा भी दी गई है.
राजा जनक का मानना था राज्य में सैन्य व्यवस्था की मौजूदगी प्रजा को राजा से दूर कर देती है और सिर्फ भय बढ़ाने के काम आती है. राजा प्रजा का स्वामी नहीं बल्कि सेवक है, इसलिए राजमहल को राजा के निवास का स्थान नहीं बल्कि प्रजा की सेवा के लिए बना कार्यालय समझना चाहिए.
अगर आप इतिहास के पन्ने पलटें और देखें कि, प्राचीन काल में सरकारी भवनों और कार्यालयों के नाम कैसे होते थे तो आप पाएंगे कि उन्हें हमेशा लोक से जोड़कर देखने की कोशिश की गई.
भारवि के काव्य में शासन की लोक व्यवस्था
संस्कृत महाकवि भारवि द्वारा रचित महाकाव्य किरातार्जुनीय में लिखा है, "हर प्रकार की समृद्धि वहां वास करती है जहां राजा और मंत्री सदैव परस्पर अच्छा व्यवहार रखते हैं और प्रजा की भी उसमें सहभागिता होती है' भारवि की रचना का काल पल्लवों के शासन के समकालीन है और साक्ष्य से पता चलता है कि पल्लव राजा अपने मंत्रियों की सहायता और सलाह लेने में भारवि के आदर्श के अनुसार शासन करते थे.पल्लव राजाओं की अपनी एक मंत्रिपरिषद होती थी, इसकी पुष्टि वैकुंठपेरुमल शिलालेख से होती है, जो पल्लव सरकार के 'मंत्रिमंडल' का महत्वपूर्ण परिचय देता है.
मंडपी सीमाशुल्क के संग्रह के लिए नियुक्त अधिकारियों का वर्ग था और उनके कार्यालय को 'लोकमंडप' कहा जाता था. गुमिका नामके अधिकारी वन अधिकारी थे और वह गुमिकावीथि में नियुक्त थे. इसे कह सकते हैं वन जाने वाली गली या रास्ता. नंदिवर्मन के एक शिलालेख में राज्य के उच्च अधिकारियों में एक महादंडनायक (कमांडर-इन-चीफ) के नाम का उल्लेख किया गया है. इस अधिकारी का भी कार्यालय 'लोकमंडप' परिसर में ही बनाया गया था.
ये सभी भारत और भारत की प्राचीन शासन परंपरा में शामिल रहे हैं. इसी की तर्ज पर आजादी के बाद सरकारी संस्थाओं और उनके कार्यालयों का जो नामकरण किया गया था, उन्हें आम जन से और करीब लाने के लिए उनके नामों को भी आम किया गया. इसी के तहत राजपथ बना कर्तव्य पथ, राजभवन बना लोकभवन और पीएमओ बन गया है सेवातीर्थ... हालांकि जरूरी ये भी है जिस भावना और आशा के साथ ये नाम बदले गए हैं जरूरी है कि आमजन असल में उस भावना को महसूस करे , यह तभी होगा जब इन भवनों और कार्यलयों से वैसा ही कार्य भी जारी रहे. नहीं तो शेक्सपियर ने कहा ही है कि 'नाम में क्या रखा है'
विकास पोरवाल