सालभर पहले ईरान में महसा अमीनी नाम की एक युवती की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई. 22 साल की महसा ने चोरी-डकैती नहीं की थी. उनका जुर्म इससे भी संगीन था. वे भूल गई थीं कि वे औरत हैं, जिसके हवा में लहराते बाल ईमानपसंद पुरुषों के लिए खतरा बन सकते हैं. हिजाब छोड़कर शहर में सैर-सपाटा करती महसा को गश्त-ए-इरशाद यानी नैतिकता का सबक पढ़ाने वाली एक टुकड़ी ने गिरफ्तार कर लिया. 3 दिन बाद उसकी मौत की खबर आई.
इसके बाद उस मुल्क में एकदम से कुछ बदला. नीम-बेहोशी में पड़ी लड़कियां, एक मुर्दा लड़की के झकझोरने से जाग पड़ीं.
जिन चेहरों को शौहरों और आइनों के अलावा कोई नहीं जानता था, वे सड़कों पर मुंह-उघाड़े घूमने लगीं. लंबे बालों को छोटी सोच की तरह कतरकर फेंकने लगीं.
ये अलग तरह की बगावत थी, जो कनाडियन जंगलों की आग से भी तेजी से भड़की. यहां तक कि सरकार को नैतिकता सिखाने वालों को सड़कों से हटाना पड़ गया. अब कई महीनों बाद मॉरेलिटी पुलिस एक बार फिर एक्टिव होने वाली है. कथित तौर पर ईरान के कट्टरपंथी लगातार इसकी जरूरत बता रहे थे.
स्त्री-शरीर को लेकर ये सनक न तो नई है, और ही ईरान-अफगानिस्तान तक सिमटी हुई है. 19वीं सदी में जब ब्रिटेन दुनिया के कई मुल्कों पर राज कर रहा था, वहां की औरतें शर्म के नए-नए सबक सीख रही थीं.
कुछ बड़े फैशन ब्रांड्स ने तय किया कि कुलीन ब्रिटिश महिलाओं की एड़ियां पुरुषों को उकसा सकती हैं. या फिर उनके खुले हुए कंधे, खुला न्यौता लग सकते हैं.
लिहाजा 'आदर्श' कपड़ों की तस्वीरें बनाकर लंदन से लेकर कॉर्नवॉल तक चिपका दी गईं. ये दर्जियों के लिए निर्देश था, और महिलाओं के लिए आदेश.
बात यहीं खत्म नहीं हुई. डायनिंग टेबल पर अघाकर खाना खाने के बाद ऊंघते एक पुरुष को टेबल के पाए (पैर) दिख गए. सुस्ताती हुई आंखें एकदम से चौकन्नी हो गईं. लकड़ी के ये पाए, लड़कियों के पैरों से कितने मिलते-जुलते हैं! फटाफट आदेश निकला कि टेबल-मेज के पैरों पर कपड़ों का गिलाफ ओढ़ा दिया जाए.
टेबल-कुर्सियों के पैर हमेशा ढंके रहे, इसका जिम्मा भी घर की औरतों को दे दिया गया. लंदन का ‘विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम’ उस दौर के फैशन पर बात करते हुए दबे हुए ढंग से ये भी बता जाता है.
खानपान, चेहरे-मोहरे और बोली में एकदम अलग देश भी औरतों के मामले में उन्नीस-बीस ही रहे.
प्राचीन रोम में लैक्स ओपिया नाम से एक कानून तैयार हुआ. ये नियम तय करता था कि किस दर्जे की महिलाएं किस किस्म के कपड़े-गहने पहन सकती हैं. कई और कायदे भी थे, जैसे औरतें कई रंगों के कपड़े नहीं पहन सकतीं, या फिर घोड़े की सवारी नहीं कर सकतीं. अकेले एक मील दूर जाने की भी उन्हें इजाजत नहीं थी. और नौकरी का तो सवाल ही नहीं था.
रोमन सीनेट ने साफ-साफ कहा- जो स्त्रियां अपनी जेब से अपना खर्च चला सकती हैं, उनके बेकाबू होते देर नहीं लगेगी.
लैक्स ओपिया चलता ही रहा, जब तक कि औरतों का धीरज नहीं चुक गया. पहले वे रात का इंतजार करतीं ताकि पति से सहमी आवाज में गुजारिश कर सकें. जल्द ही वे उजाले में अनजान लोगों के सामने आने लगीं. कच्ची-पक्की बोली में नारे लगाने लगीं.
उनकी कुछ मांगें थीं. वे अपनी मर्जी से पहनना-ओढ़ना चाहती थीं. अकेले जाने पर चरित्रहीन न मान लिया जाए, इतनी-भर छूट चाहती थीं. लेकिन सीनेट इनकार ही करता रहा, जब तक कि उनका किला जनाना शोर से घिर नहीं गया. रोमन इतिहासकार टाइटस लिविअस ने इस घटना का जिक्र अपनी कई किताबों में कर रखा है.
चलिए, रोम-ईरान छोड़कर एक घरेलू किस्सा सुनते हैं.
कुछ समय पहले दफ्तर के काम से सफर कर रही थी, जब स्टेशन पर दो जोड़ा औरतें दिखीं. एक नवेली बहू रही होगी. लाल जोड़े में सिर घुटनों तक धंसा हुआ. पसीने में नहाए हुए हाथ एक जगह जमे हुए. साथ बैठा शख्स शायद उसका पति था. शॉर्ट्स में बैठा युवक लगातार खुद को अखबार से हवा झल रहा था.
वहीं एक औरत और भी थी. सिर से पांव तक गहरे रंग में ढंकी हुई ये महिला दो बच्चे संभाल रही थी. जबकि शौहर कोल्ड ड्रिंक पीते हुए फोन पर किसी से भयंकर गर्मी की शिकायत कर रहा था. खुले हुए कपड़ों में, और इस गुंजाइश के साथ कि गर्मी बढ़ने पर वो स्टेशन के इस से उस पार तक घूम सके, या लस्सी-कोक खरीद सके.
ईरान से लेकर हिंदुस्तान तक किस्से ही किस्से हैं.
दुनिया में वायरस-बैक्टीरिया की उतनी किस्में नहीं होंगी, जितने स्त्रियों को काबू में रखने के नुस्खे मिल जाएंगे.
यहां तक कि इसपर किताबें भी मिलती हैं. साल 1969 में वोग्स बुक ऑफ एटिकेट्स एंड गुड मैनर्स नाम की किताब आई, जो महिलाओं को पुरुषों से मिलने-जुलने की तहजीब सिखाती थी. इसमें ये तक निर्देश था कि हंसते हुए मुंह कितना खुलना चाहिए, या खिलखिलाहट की आवाज कितनी कम-ज्यादा हो कि पुरुषों के कानों में न खटकें.
हमारे यहां भी हाल में मध्यप्रदेश में एक क्लास की चर्चा थी, जो दुल्हन को विदाई के वक्त रोना सिखाएगी. वहीं एक बाबा हैं, जो शादीशुदा महिलाओं के मांग भरने या न भरने की तुलना खाली प्लॉट से कर रहे हैं.
धरती पर इंसानों को आए करीब 2 लाख साल बीत चुके. इस बीच हम लगातार आधुनिक होते चले गए. पूंछ हटी. गुफाएं छूटीं. भाषाएं आईं. बस, पीछे होता गया तो औरतों को लेकर हमारा नजरिया. तभी तो ईरान की सड़कों पर एक बार फिर मॉरेलिटी पुलिस आ रही है. इस बार पक्की तैयारी के साथ कि किसी महसा की मौत भी सोए हुओं को न जगा सके.
मृदुलिका झा