अखलाक लिंचिंग के बाद उन्‍नाव रेप केस...  आरोपियों और दोषियों को क‍िस बात की 'राहत'?

21 जनवरी मंगलवार का दिन कोर्ट से आई दो खबरों का दिन था. कोर्ट एक मामले में दोषी पर रहम करती नजर आ रही थी, तो दूसरे मामले में यूपी सरकार ही आरोपियों के पक्ष में पैरवी कर रही थी. जाहिर है कि सवाल तो उठेंगे ही.

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दादरी में बीफ रखने के आरोप में भीड़ की हिंसा का शिकार हुए अखलाक और उन्नाव रेप केस में सजायाफ्ता मुजरिम पूर्व विधायक कुलदीप सेंगर जिन्हें हाईकोर्ट से राहत मिली है. दादरी में बीफ रखने के आरोप में भीड़ की हिंसा का शिकार हुए अखलाक और उन्नाव रेप केस में सजायाफ्ता मुजरिम पूर्व विधायक कुलदीप सेंगर जिन्हें हाईकोर्ट से राहत मिली है.

संयम श्रीवास्तव

  • नई दिल्ली,
  • 24 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 4:43 PM IST

भारतीय न्याय व्यवस्था में न्याय की प्रक्रिया लंबी और जटिल होती है, लेकिन जब हाई-प्रोफाइल मामलों में आरोपी या दोषी व्यक्तियों को बार-बार 'राहत' मिलती है, तो यह सवाल उठता है कि क्या न्याय पीड़ितों के लिए है या अपराधियों के लिए? 2015 में दादरी में मोहम्मद अखलाक की लिंचिंग से लेकर 2017 के उन्‍नाव रेप केस तक, ऐसे कई मामले हैं जहां शुरुआती जांच, गिरफ्तारी और यहां तक कि सजा के बाद भी आरोपियों को विभिन्न आधारों पर जमानत या अन्य राहत मिल जाती है.

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उत्तर प्रदेश सरकार ने अखलाक लिंचिंग मामले में आरोपियों के खिलाफ मुकदमा वापस लेने की कोशिश की, जबकि उन्‍नाव रेप केस में दोषी कुलदीप सिंह सेंगर की सजा दिल्ली हाईकोर्ट ने सस्‍पेंड कर दी. ये घटनाएं न केवल पीड़ित परिवारों के घावों को कुरेदती हैं, बल्कि समाज में एक गलत संदेश भी देती हैं कि शक्तिशाली लोग कानून से ऊपर हैं. सवाल यह है कि ऐसी 'राहत' देने का आधार जो भी हो, समाज पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है? 

अखलाक लिंचिंग मामला: एक दशक बाद भी न्याय की तलाश

2015 में उत्तर प्रदेश के दादरी के बिसाहड़ा गांव में मोहम्मद अखलाक को गौहत्या के संदेह में भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला था. हमले में उनका बेटा भी गंभीर रूप से घायल हुआ था. पुलिस जांच में 19 लोगों को आरोपी बनाया गया, जो कई स्थानीय भाजपा नेताओं से जुड़े थे. 2018 में अदालत ने कुछ आरोपियों को दोषी ठहराया, लेकिन अपील की प्रक्रिया में कई को जमानत मिल गई. 

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अब, 2025 में, जब घटना को 10 साल हो चुके हैं, उत्तर प्रदेश सरकार ने आश्चर्यजनक रूप से मुकदमा वापस लेने की याचिका दायर की. सूरजपुर जिला अदालत ने हालांकि इस याचिका को खारिज कर दिया है, लेकिन सरकार की इस कोशिश ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. अखलाक के परिवार ने इस कदम का विरोध किया है, और कहा है कि अगर जरूरी हुआ तो वे हाईकोर्ट जाएंगे.

परिवार का कहना है कि यह कदम राजनीतिक दबाव के कारण उठाया जा रहा है, क्योंकि आरोपी स्थानीय प्रभावशाली लोग हैं. क्या यह 'राहत' इसलिए दी जा रही है क्योंकि मामले में राजनीतिक कनेक्शन हैं? या फिर गौ-रक्षा के नाम पर हिंसा को जायज ठहराने की कोशिश है? इस मामले में शुरुआती जांच में मांस की फॉरेंसिक रिपोर्ट से साबित हुआ कि अखलाक के घर में बीफ नहीं था, बल्कि मटन था. 

दोषियों को सजा मिलने के बाद भी, अपील में जमानत मिलना आम बात हो गई है. उदाहरण के लिए, 2019 में हरि ओम नामक आरोपी को जमानत मिली, जो जेल में अपराधियों का नेटवर्क बना चुका था. ऐसे में सवाल है कि क्या न्याय व्यवस्था कमजोर पड़ रही है? पीड़ित परिवार आज भी डर के साये में जी रहा है, जबकि आरोपी खुलेआम घूम रहे हैं. यह 'राहत' दोषियों को मिल रही है, लेकिन पीड़ितों को न्याय कब मिलेगा? कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित सवाल उठाते हैं कि सरकार हर छोटे से छोटे मामले में पुनर्अपील करती है. अगर किसी मामले में कोर्ट जमानत दे रही है तो उसके खिलाफ सरकार को जाना कर्तव्य बनता है.

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 मॉब लिंचिंग के मामलों में अकसर यही पैटर्न देखने को मिलता है. जैसे झारखंड के रामगढ़ लिंचिंग केस में दोषियों को जमानत मिलने पर केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने उनका स्वागत किया था. दादरी मामले में भी, भाजपा विधायक संगीत सोम को सरकारी आदेश उल्लंघन के लिए दोषी ठहराया गया, लेकिन आगे की कार्रवाई धीमी है.

गुजरात के बिलकिस बानो केस में भी ऐसा ही देखा गया. गुजरात दंगों की पीड़िता बानो के 11 दोषियों को गुजरात सरकार ने रिमिशन के आधार पर रिहा कर दिया. गुजरात सरकार में शामिल कुछ लोगों ने इन दोषियों के रिहा होने पर इनका सम्मान किया. हालांकि बाद में तीव्र विरोध के चलते सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार के रिमिशन को रद्द कर दिया और सभी दोषियों को फिर से सरेंडर करना पड़ा. 

उन्‍नाव रेप केस: सत्ता का दुरुपयोग और जमानत की 'राहत'

2017 में उत्तर प्रदेश के उन्‍नाव में एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार का मामला सामने आया, जिसमें तत्कालीन भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर आरोपी थे. यह मामला सत्ता के दुरुपयोग का जीता-जागता उदाहरण है. पीड़िता ने आरोप लगाया कि सेंगर ने नौकरी का लालच देकर उसका बलात्कार किया, और जब उसने शिकायत की तो परिवार पर हमले करवाए.

पीड़िता के पिता की पुलिस हिरासत में मौत हो गई, और परिवार पर कई हमले हुए. 2019 में दिल्ली की अदालत ने सेंगर को आजीवन कारावास की सजा सुनाई. लेकिन दिसंबर 2025 में, दिल्ली हाईकोर्ट ने सेंगर की अपील पर सुनवाई के दौरान उनकी आजीवन सजा को निलंबित कर जमानत दे दी. कोर्ट का तर्क था कि पॉक्सो एक्ट की धारा 5(सी) लागू नहीं होती, क्योंकि अपराध करने वाला पब्लिक सर्वेंट नहीं है. जमानत देने वाले जजों का कहना है कि विधायक पब्लिक सर्वेंट नहीं होता. इस तरह 5 सी एक्ट न लगने के चलते दोषी की सजा सात साल से अधिक नहीं हो सकती . सेंगर सात साल से अधिक का समय जेल में काट चुके हैं.

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 हालांकि, यह जमानत शर्तों के साथ है, जैसे 500 किमी दूर रहना और पीड़िता से संपर्क न करना. लेकिन पीड़िता ने इस फैसले पर दुख व्यक्त किया और कहा कि वह खुदकुशी करना चाहती थी.वह अब सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रही है.
 
निर्भया की मां आशा देवी ने इस जमानत पर तीखी प्रतिक्रिया दी. उन्होंने कहा कि यह एक 'नया नियम' बन रहा है, जहां अपराधियों को राहत मिल रही है, लेकिन पीड़ित परिवार खतरे में हैं. आशा देवी के अनुसार, दूरी या पैसे से फर्क नहीं पड़ता, महत्वपूर्ण है कि अपराध हुआ और सजा मिली. उन्होंने सुझाव दिया कि अपील सीधे हाईकोर्ट में होनी चाहिए, न कि निचली अदालतों में समय बर्बाद हो.

पीड़िता का परिवार आज भी सुरक्षा कवर में है, बच्चियां स्कूल नहीं जा पातीं, और आर्थिक स्थिति खराब है. अगर दोषी बाहर आया तो परिवार पर क्या असर पड़ेगा? यह 'राहत' इलाज के बहाने भी दी जाती है. सेंगर ने मेडिकल ग्राउंड्स पर जमानत मांगी, लेकिन आशा देवी कहती हैं कि जेल में ही इलाज हो सकता है. 

 क्या यह राजनीतिक प्रभाव का नतीजा है?

सेंगर भाजपा से निकाले गए, लेकिन उनके कनेक्शन अभी भी मजबूत हैं. इस मामले में सीबीआई जांच हुई, लेकिन न्याय की गति धीमी रही. पीड़िता को दिल्ली शिफ्ट किया गया, लेकिन अब जमानत से डर बढ़ गया है. सेंगर की पहुंच का ही नतीजा है कि यूपी सरकार की ओर से अभी तक हाइकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ अपील करने की बात सामने नहीं आई है.

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पैटर्न और सामाजिक प्रभाव:

क्या न्याय व्यवस्था पक्षपात पूर्ण है? अखलाक लिंचिंग और उन्‍नाव रेप जैसे मामलों में एक समान पैटर्न दिखता है. शुरुआती मीडिया ध्यान, जांच, सजा, और फिर अपील में राहत. उच्च-प्रोफाइल मामलों में आरोपी अक्सर राजनीतिक या सामाजिक प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं. जैसे बुलंदशहर में पुलिस अधिकारी की लिंचिंग में 38 दोषी ठहराए गए, लेकिन सजा अभी बाकी है. 

क्या यह अल्पसंख्यकों या महिलाओं के खिलाफ अपराधों में ज्यादा होता है? 

समाज पर प्रभाव गहरा है. ऐसी राहत से अपराधियों का मनोबल बढ़ता है, जबकि पीड़ित हतोत्साहित होते हैं. आशा देवी जैसी आवाजें कहती हैं कि कोर्ट को पीड़ितों को प्राथमिकता देनी चाहिए. कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि अपील का अधिकार सबको है, लेकिन जमानत देते समय पीड़ित की सुरक्षा को ध्यान में रखना चाहिए. भारत में जेलों में कैदी अधिक हैं, लेकिन उच्च-श्रेणी के अपराधियों को आसानी से जमानत मिल जाती है.सरकार की भूमिका भी संदिग्ध है. अखलाक मामले में मुकदमा वापसी की कोशिश से लगता है कि वोट बैंक की राजनीति हो रही है.

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