‘मेरे उर के तार बजा कर जब जी चाहा/ तुम ने गाया गीत...’ कवि त्रिलोचन की कविता 'गाओ' की यह शुरुआती पंक्तियां हैं. विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी ने कभी कहा था, 'त्रिलोचन हिंदी के सौभाग्य हैं.' कवि त्रिलोचन हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा के प्रमुख हस्ताक्षर थे. वह आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभों में से एक थे. इस त्रयी के अन्य दो स्तंभ थे नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह.
त्रिलोचन शास्त्री का काव्य-जीवन लगभग पांच दशकों के लंबे काल में फैला हुआ है. वह हमारे समय के एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवि हैं. उनकी सामाजिक चेतना का फलक इतना व्यापक है कि वैयक्तिक दुःख को नजर अंदाज कर वह सामाजिक दुःख को तरजीह देते हैं, पर जब-तब उनकी यह टीस उभर आती है, और अपने पर भी कविता लिखने से वह चूकते नहीं. त्रिलोचन अद्वितीय प्रतिभा के एक विषम धरातल वाले कवि हैं.
त्रिलोचन की कविताएं समाज के संघर्षशील व्यक्ति की कविताएं हैं, जिनमें एक विचित्र किस्म का विरोधाभास दिखाई देता है. वह हिंदी के अतिरिक्त अरबी और फारसी भाषाओं के निष्णात ज्ञाता थे. उनकी कविताओं में गांव की धरती का ऊबड़खाबड़पन तो है ही, कला की दृष्टि से एक अद्भुत क्लासिकी का अनुशासन भी है. त्रिलोचन की आत्मपरक कविताओं की संख्या बहुत अधिक है. अपने बारे में हिन्दी के शायद ही किसी कवि ने इतने रंगों में और इतनी कविताएं लिखी हों. पर खास बात यह कि त्रिलोचन की ये कविताएं किसी भी स्तर पर आत्मपरक या आत्मग्रस्त कविताएं नहीं हैं.
त्रिलोचन शास्त्री की त्रिलोचन के ऊपर लिखी कविताओं की चंद पंक्तियों को देखते हैं:
'वही त्रिलोचन है' की चंद पंक्तियां हैं-
वही त्रिलोचन है, वह-जिस के तन पर गंदे
कपड़े हैं. कपड़े भी कैसे-फटे लटे हैं
यह भी फ़ैशन है, फ़ैशन से कटे कटे हैं.
कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चंदे
पर अवलम्बित है...
इसी तरह 'भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल' की शुरुआती लाइने हैँ -
भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझा था है तो है यह फ़ौलादी...
अपने पर ही लिखी कविता 'त्रिलोचन चलता रहा' की आखिरी पंक्तियों में वह खुद पर कटाक्ष करने से बाज नहीं आते. इस कविता की चंद आखिरी पंक्तियां हैं:
...जैसे प्रगतिशील कवियों की ऩई लिस्ट निकली थी
और उसमें त्रिलोचन का नाम नहीं था
उसी तरह इस कंडक्टर की बस में
उनकी सीट नहीं थी
सफर कटता रहा
त्रिलोचन चलता रहा
संघर्ष के तमाम निशान
अपनी बांहों में समेटे
बिना बैठे
त्रिलोचन चलता रहा
प्रेम, प्रकृति, जीवन-सौंदर्य, जीवन-संघर्ष, मनुष्यता के विविध आयामों को समेटे हुए त्रिलोचन की कविताओं का फलक अत्यंत व्यापक है. वह हिंदी की प्रगतिशील काव्य-धारा के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कवियों में हैं. भाषा के प्रति त्रिलोचन एक बेहद सजग कवि हैं. त्रिलोचन की कविता में बोली के अपरिचित शब्द जितनी सहजता से आते हैं, कई बार संस्कृत के कठिन शब्द भी उतनी ही सहजता से अपनी जगह बना लेते हैं.
त्रिलोचन की सबसे बड़ी खासियत एक इनसान के रूप में उसके स्वाभिमान के पक्ष में खड़े रहना था. त्रिलोचन ने न कभी किसी की खुशामद की, न अपने स्वाभिमान से एक इंच भी डिगे. उनकी कविताओं में लोक-जीवन की सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है. 'उस जनपद का कवि हूं' शीर्षक वाली अपनी चर्चित कविता में वह लिखते हैं:
उस जनपद का कवि हूं, जो भूखा-दूखा है,
नंगा है, अनजान है, कला-नहीं जानता,
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता,
कविता कुछ भी दे सकती है.
प्रगतिशील धारा के कवि होने के कारण त्रिलोचन मार्क्सवादी चेतना से संपन्न कवि थे, लेकिन इस चेतना का उपयोग उन्होंने अपने ढंग से किया. उनकी कविताएं वामपंथी विचारधारा के बारे में उस तरह नहीं कहतीं, जिस तरह नागार्जुन, मुक्तिबोध, धूमिल या केदारनाथ अग्रवाल की कविताएं कहती हैं. त्रिलोचन ने लोक भाषा अवधी और प्राचीन संस्कृत से प्रेरणा ली, इसलिए उनकी कविताओं में इसके शब्द तो हैं ही, उसकी धारा बदलाव, बुर्जुआ और परंपरा का पुट लिए हुए है. अपनी परंपरा से इतने नजदीक से जुड़े रहने के कारण ही उनमें आधुनिकता की सुंदरता, उसका लोच और सुवास तो थी ही, मनुष्य के कर्म और ताकत पर एक भरोसा भी था. शायद इसीलिए उनमें अपने विचारों को लेकर कोई बड़बोलापन नहीं आया. उनके लेखन में एक विश्वास हर जगह तैरता था कि परिवर्तन की क्रांतिकारी भूमिका जनता ही निभाएगी. उनकी एक कविता की पंक्तियां हैं:
अभी तुम्हारी शक्ति शेष है
अभी तुम्हारी सांस शेष है
अभी तुम्हारा कार्य शेष है
मत अलसाओ
मत चुप बैठो
तुम्हें पुकार रहा है कोई
अभी रक्त रग-रग में चलता
अभी ज्ञान का परिचय मिलता
अभी न मरण-प्रिया निर्बलता
मत अलसाओ
मत चुप बैठो
तुम्हें पुकार रहा है कोई
जनकवि का तमगा उन्हें यों ही नहीं मिला. वे उधार की भाषा का इस्तेमाल नहीं करते बल्कि उस देशज भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें हिन्दी अंचल के लोग बोलते-बतियाते हैं. त्रिलोचन की कविता में तत्सम शब्दों के साथ तद्भव एवम् देशज शब्दों के सटीक प्रयोग से रचना में बेतरतीबी की जगह एक प्रकार की विशिष्टता पैदा होती है. त्रिलोचन ने सौनेट जैसे पश्चिमी काव्यरूप को अपनाने के बावजूद उसे एक भारतीय रंग दिया. शायद इसीलिए उनकी नजर इनसानों के संघर्ष पर ही नहीं, उनकी स्वार्थी प्रवृत्ति पर भी थी. 'आदमी की गंध' कविता में वह लिखते हैं:
आदमी को जब तब आदमी की ज़रूरत होती है.
ज़रूरत होती है, यानी, कोई काम अटकता है.
तब वह एक या अनेक आदमियों को बटोरता है.
बिना आदमियों के हाथ लगाए किसी का कोई काम नहीं चलता.
त्रिलोचन किसी भी पुरस्कार से बड़े थे. उन्हें हिंदी अकादमी ने शलाका सम्मान से सम्मानित किया था. हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हे 'शास्त्री' और 'साहित्य रत्न' जैसी उपाधियां भी मिलीं थीं. 'ताप के ताए हुए दिन' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला था, तो वह उत्तर प्रदेश हिंदी समिति पुरस्कार, हिंदी संस्थान सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, शलाका सम्मान, भवानी प्रसाद मिश्र राष्ट्रीय पुरस्कार, सुलभ साहित्य अकादमी सम्मान, भारतीय भाषा परिषद सम्मान आदि से भी सम्मानित हुए थे. पर उनका असली पुरस्कार वह प्रशंसक थे, जिन्होंने उन्हें आज तक याद रखा है.